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बत्तख मियां न होते तो महात्मा गांधी भी न होते

स्टाफ रिपोर्टर।
बत्तख मियां अंसारी। कभी सुना है यह नाम ! नहीं, तो यह बात गांठ बांधलें। अगर बत्तख मियां नहीं होते तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी न होते और न ही हमें जल्दी अंग्रेजी हुकूत से छुटकारा मिलता। नाथूराम गोडसे से पहले भी एक बार बापू की हत्या की साजिश रची गई थी जिसेे बत्तख मियां ने अपनी सूझ-बूझ से नाकाम कर दिया था।
इस हौसलामंद शख्सियत का 25 जून को जन्मदिन होने के बावजूद कहीं से उन्हें याद करने की खबर नहीं आई। वह बिहार के चम्पारण जिले के रहने वाले थे। कांग्रेस की नीतियों का अनुशरण करते थे। मगर उनके जन्मदिन पर उन्हें याद करने का होश न बिहार सरकार को रहा और न ही कांग्रेस को। चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे होने के मौके पर भी उन्हें याद नहीं किया गया था।
अब बात बत्तख मियां की। सन 1917 की बात है। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद स्वतंत्रता सेनानी शेख गुलाब, शीतल राय और राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधीजी मौलाना मज़हरुल हक, डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के कारण दुर्दशा झेल रहे नील की खेती करने वालों का हाल-चाल जानने चम्पारण के जिला मुख्यालय मोतिहारी आए। इस दौरान मसले पर चर्चा करने के लिए नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने उन्हें रात्रि भोज पर आमंत्रित किया। तब बत्तख मियां अंसारी इरविन के रसोइया हुआ करते थे।
बताते हैं कि इरविन ने गांधी की हत्या के लिए बत्तख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। इसपर वह जहर मिला दूध का ग्लास लेकर गांधीजी के पास गए। उस समय वहां देश के प्रथम राष्ट्रपति रहे राजेन्द्र प्रसाद भी मौजूद थे। बत्तख मियां ने गांधीजी को दूध का ग्लास देने हुए दोनों के कानों में सारी बातें फुसफुसा दीं। इसपर गांधीजी ने विषयुक्त दूध नहीं पिया और उनकी जान बच गई। मगर योजना फेल होने पर अंग्रेज सरकार ने बत्तख मियां तथा उनके परिवार को भरपूर यातनाएं दीं। उनकी बेरहमी से पिटाई की गई। जेल में डाल दिया गया और उनके छोटे से घर को जमींदोजकर उसे कब्रिस्तान में तब्दील कर दिया गया।


स्वतंत्रता के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के दौरान देश के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बत्तख मियां की खोज-खबर ली। प्रशासन से उन्हें जमीन आबंटित करने का आदेश दिया। बताते हैं कि बत्तख मियां के तमाम प्रयासों के बावजूद उन्हें जमीन नहीं मिली और बदहाली में उनकी 1957 में मौत हो गई। आज भी उनके दो पोते असलम अंसारी और जाहिद अंसारी फाकाकशी में दिन गुजार रहे हैं। मज़दूरी कर परिवार का पेट पलते हैं। यही नहीं, अब बत्तख मियां को याद रखना भी जरूरी नहीं समझा जाता है।