संविधान के 75 साल: न्याय का सपना, अन्याय की सच्चाई
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मुस्लिम नाउ विशेष
10 अगस्त 1950 को भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एक ऐतिहासिक लेकिन विवादास्पद आदेश पर हस्ताक्षर किए. इसे “अनुसूचित जाति आदेश” के नाम से जाना गया. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने इस आदेश के जरिए देश के दलित समाज को अनुसूचित जाति (SC) का संवैधानिक दर्जा दिया. लेकिन यह दर्जा केवल उन दलितों तक सीमित रखा गया जो हिंदू धर्म का पालन करते थे. यह निर्णय भारत के इतिहास में पहली बार धर्म के आधार पर विभाजन और भेदभाव को सरकारी मान्यता देने वाला क़ानून बन गया.
1950 का आदेश: भेदभाव की शुरुआत
अनुसूचित जाति का दर्जा मिलने से दलित समाज को आरक्षण और सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर मिला. लेकिन हिंदू धर्म में रहने वाले दलितों को यह लाभ प्रदान करते समय, अन्य धर्मों में मौजूद दलित समुदायों—जैसे ईसाई और मुस्लिम दलित—को इस अधिकार से वंचित कर दिया गया.
1956 में इस आदेश में संशोधन कर सिख धर्म के दलितों को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया. इसके बाद, 1990 में, बौद्ध धर्म को मानने वाले दलितों को भी यह दर्जा दिया गया. लेकिन, ईसाई और मुस्लिम धर्म मानने वाले दलित आज तक इस अधिकार से वंचित हैं.
अन्याय की परतें और आंदोलनों की आवाज़ें
ईसाई और मुस्लिम दलितों ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई. उन्होंने निवेदन दिए, धरने और प्रदर्शन किए. कई राज्यों की विधानसभाओं ने उनके समर्थन में प्रस्ताव पारित किए. लेकिन केंद्र सरकारों ने उनकी मांगों को अनसुना कर दिया.
यह मामला अब दशकों से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. कोर्ट ने कई मौकों पर कहा है कि यह कानून धर्म के आधार पर भेदभाव करता है. संविधान की धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है. अदालत ने इसे “संविधान के लिए अभिशाप” और “लिखित संविधान की सुंदरता को नष्ट करने वाला” करार दिया.
संविधान की जरुरत किसको है?
— Abdur Rahman (@AbdurRahman_IPS) December 14, 2024
दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग को संविधान चाहिए. अल्पसंख्यक और मुसलमानो को संविधान चाहिए. गरीब, कमजोर, किसानों और वंचितों को चाहिए.
क्योंकि संविधान हमें बराबरी का अधिकार देता है. न्याय, सामाजिक न्याय और अवसर की समानता प्रदान करता है. धार्मिक आजादी प्रदान… pic.twitter.com/yfqpzm2C2B
राजनीतिक चुप्पी: कांग्रेस से बीजेपी तक
1950 के इस विवादास्पद आदेश की शुरुआत कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुई थी. उस समय इसे सामाजिक न्याय के कदम के रूप में पेश किया गया. लेकिन यह कदम समाज के सभी वंचित तबकों को न्याय देने में विफल रहा.
बीजेपी की सरकार ने भी इस कानून को जारी रखा है. विडंबना यह है कि न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी ने संसद में इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा की. राजनीतिक दलों की यह चुप्पी दिखाती है कि सामाजिक न्याय और समानता के दावे केवल चुनावी भाषणों तक सीमित हैं.
संविधान के आदर्श बनाम हकीकत
संविधान का अनुच्छेद 15 और 16 धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान या किसी अन्य आधार पर भेदभाव को स्पष्ट रूप से निषिद्ध करता है. लेकिन अनुसूचित जाति का दर्जा देने वाले इस आदेश ने संविधान के मूल सिद्धांतों को ही कमजोर कर दिया है.
भारत के प्रथम कानून मंत्री डॉ. बी.आर. आंबेडकर, जिन्होंने संविधान के निर्माण में अहम भूमिका निभाई, ने समानता और धर्मनिरपेक्षता की नींव रखी थी. यह विडंबना है कि उन्हीं के बनाए संविधान के तहत दलितों को उनके धर्म के आधार पर बांट दिया गया.
संविधान के 75 साल, अन्याय के 75 साल.
— Abdur Rahman (@AbdurRahman_IPS) December 15, 2024
10 अगस्त 1950 को भारत के राष्ट्रपति ने अनुसूचित जाति आदेश जारी किया और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने पहला धर्म के आधार पर क़ानून बनाया. सिर्फ हिन्दू धर्म माननेवाले दलितों को SC का दर्जा दिया गया और बाकी धर्म के दलितों पर… pic.twitter.com/nwHqcOPYMd
ईसाई और मुस्लिम दलितों की स्थिति
ईसाई और मुस्लिम समुदायों में भी सामाजिक भेदभाव और जातिगत शोषण के उदाहरण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं. इन धर्मों को मानने वाले दलित भी अन्य दलित समुदायों की तरह जातिगत अत्याचारों का सामना करते हैं. लेकिन उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा न मिलने के कारण आरक्षण, सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में मिलने वाले विशेष अवसरों से वंचित रहना पड़ता है.
आगे का रास्ता: न्याय की उम्मीद
अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है, और देश की न्यायपालिका से उम्मीद है कि वह संविधान के धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांतों की रक्षा करेगी.ईसाई और मुस्लिम दलितों के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा केवल अधिकारों का मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की दिशा में उठाया जाने वाला एक बड़ा कदम है.
1950 से लेकर आज तक, भारत ने संविधान के तहत 75 साल पूरे कर लिए हैं. इन वर्षों में संविधान ने कई बार वंचित तबकों को न्याय दिलाया है. लेकिन अनुसूचित जाति के दर्जे के इस भेदभावपूर्ण आदेश ने लाखों दलितों को न्याय से दूर रखा है.
यह समय है कि सरकारें अपनी चुप्पी तोड़ें, संसद में इस मुद्दे पर चर्चा हो और न्यायपालिका यह सुनिश्चित करे कि संविधान के आदर्श केवल कागज पर न रहें, बल्कि वे प्रत्येक नागरिक के जीवन में समान रूप से परिलक्षित हों. 75 साल के संविधान के जश्न के साथ हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि यह 75 साल अन्याय के भी रहे हैं.