अदालतों के रवैये से मुस्लिमों में असंतोष, जमाअत-ए-इस्लामी ने ज्ञानवापी में पूजा की अनुमति को बताया ठेस पहुंचाने वाला
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
पिछले 10 वर्षों में ज्ञानवापी, हिजाब, तीन तलाक, बाबरी मस्जिद सहित मुसलमानों और इस्लाम से संबंधित मामलों को लेकर अदालतों का जैसा रवैया रहा, उसपर अब मुस्लिम संगठन खुलकर बोलने लगे हैं. शुक्रवार को ऐसे मामलों के प्रति मुस्लिम संगठनों ने न केवल चिंता जाहिर की, उन्हांेने प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर यह जता दिया कि अदालों के रवैये पर अब उन्हें संदेह होने लगा है.
जमाअत -ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी कहते हैं, वाराणसी कोर्ट द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद के दक्षिणी तहखाने में हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति देना न केवल चैंकाता है, कानून का उल्लंघन भी है. यानी सआदतुल्लाह हुसैनी ने सीधे-सीधे अदालत के फैसले पर उंगली उठाई है.
वारणसी कोर्ट के फैसले की निंदा
न्यूज आउट लेट आवाज द वाॅयस की एक खबर के अनुसार, उत्तर प्रदेश के वाराणसी में मौजूद ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में जिला अदालत की तरफ से हिन्दू पक्ष को पूजा करने की इजाजत देने के खिलाफ दिल्ली में जमीयत उलेमा ए हिंद के दफ्तर में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मीटिंग हुई.इसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के जिम्मेदारों ने निंदा. पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने कहा कि रातोंरात ज्ञानवापी मस्जिद के तह खाने लोहे की ग्रिल काट मूर्तियां रखकर जल्दी में पूजा शुरू कराना इस बात को दिखाता है कि प्रशासन मुद्दई के साथ मिलकर मस्जिद कमेटी को आर्डर के खिलाफ अपील करने के अधिकार को प्रभावित करना चाहता था.
रिपोर्ट में आगे कहा गया है, अदालत ने प्रशासन को इस काम के लिए 7 दिन का समय दिया था. हमें वाराणसी जिला न्यायाधीश के फैसला पर भी बहुत हैरानी और दुख है. हमारे अनुसार यह फैसला बहुत ही गलत और निराधार तर्कों के आधार पर दिया गया कि ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में 1993 तक सोमनाथ व्यास का परिवार पूजा करता था और उस समय की राज्य सरकार के आदेश पर उसे बंद कर दिया गया था. 17, जनवरी को इसी कोर्ट ने तहखाने को जिला प्रशासन के नियंत्रण में दे दिया था.
ज्ञानवापी के तहखान में कभी पूजा नहीं हुई: रहमानी
मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने कहा कि इस तहखाने में कभी भी पूजा नहीं हुई थी. एक निराधार दावे को बुनियाद बनाकर जिला जज ने अपनी सर्विस के आखिरी दिन बहुत ही आपत्तिचजनक और निराधार फैसला दिया है.
इसी तरह आरक्योलोजीकल सर्वे की रिपोर्ट का भी हिंदू पक्ष ने प्रेस में एकतरफा तौर पर रहस्योदघाटन करके समाज में बिगाड़ पैदा किया. हालांकि अभी अदालत में न तो इस पर कोई बहस हुई है और न ही उस की पुष्टि, अभी इस रिपोर्ट की हैसियत मात्र एक दावे की है.
अदालत हमारी कोई बात नहीं सुनती: अरशद मदनी
वहीं, जमीयत उलेमा ए हिन्द के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि अदालत ने हमारी कोई भी बात नहीं सुनी. एक तरफा फैसला देते हुए हिंदू पक्ष में फैसला दे दिया. जिला अदालत को भी मुस्लिम पक्ष को अपील का मौका देना चाहिए था जो कि उस का कानूनी अधिकार था.
उन्होंने कहा कि हमें सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ की उम्मीद थी, लेकिन बाबरी मस्जिद फैसला जब आया तो हमें मायूसी हुई. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी हमारी नहीं सुनी. हमें सुप्रीम कोर्ट पर सिर्फ यकीन है.
उन्हांेने कहा, समस्या केवल ज्ञानवापी मस्जिद तक सीमित नहीं. जिस तरह मथुरा की शाही ईदगाह, दिल्ली की सुनहरी और अन्य मस्जिदों और देश भर में फैली हुई अनगिनत मसजिदों और वक्फ संपत्तियों पर लगातार निराधार दावे किए जा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट इबादतगाहों से जुड़े 1991 के कानून पर चुप्पी साधे हुई है, उसने देश के मुसलमानों को गहरी चिंता में डाल दिया है.
अदालतें पक्षपात करने लगीं, इंसाफ की गुहार किस से की जाए
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता कासिस रसूल ने कहा कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अदालतें समाज के पीड़ित और प्रभावित लोगों के लिए आखिरी सहारा होती है. अगर वो भी पक्षपातपूर्ण रवैय्या अपनाने लगें तो फिर इंसाफ की गुहार किस से लगाई जाए. ऐसा लगता है कि सुप्रीमकोर्ट के सीनियर वकील दुषयंत दवे की अदालतों के बारे यह राय सही है कि देश की अदालतें बहुसंख्यक वर्ग की मुहताज बनती जा रही हैं.
वे अदालतों के एक के बाद एक कई फैसले देश के अल्पसंख्यकों और पीड़ित वर्गों के इसी एहसास को बल दे रहे हैं, जिसकी अभिव्यक्ति वकील महोदय ने उपर्युक्त शब्दों में की है. यह मुद्दा केवल अदालतों की गरिमा को बनाए रखने का नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यक वर्गों को वंचित होने और पीड़ित होने के एहसास से बचाने का भी है.
उन्होंने आगे कहा, हम यह समझते हैं कि इस समय देश की गरिमा, उसकी न्याय व्यवस्था और प्रशासनिक मामलों की निष्पक्षता को गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है, जिसका संज्ञान लेना सभी संवैधानिक पदाधिकारियों का महत्वपूर्ण दायित्व है.
भारतीय मुसलमानों के इस एहसास को राष्ट्रपति तक, जो कि देश का लोकतांत्रिक हेड होता है, पहुंचाने के लिए उनके प्रतिनिधि के रूप में हमने समय मांगा, ताकि उस के उपाय के लिए वे अपने स्तर से कोशिश कर सकें .इसी तरह भारतीय मुसलमानों के इस एहसास को हम मुनासिब तरीके से चीफ जस्टिस आफ इंडिया तक भी पहुंचाने की कोशिश करेंगे.
मौके पर मर्कजी जमीअत अहले-हदीस के अध्यक्ष मौलाना असगर मदनी, मौलाना सय्यद असद महमूद मदनी अध्यक्ष जमीअत उलमा हिंद, मलिक मोतसिम खान उपाध्यक्ष जमात-ए-इस्लामी हिंद, कमाल फारूकी सदस्य ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मौजूद थे.
ज्ञानवापी के तहखाने में पूजा की अनुमति चैंकाने वालाः जमाअत-ए-इस्लामी हिंद
मीडिया को जारी एक बयान में सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी ने कहा, ज्ञानवापी मस्जिद के दक्षिणी तहखाने में हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति देने के वाराणसी न्यायालय के आदेश से हम स्तब्ध हैं. यह आदेश जारी करके, वाराणसी न्यायालय ने इबादतगाह अधिनियम 1991 का उल्लंघन किया है. वस्तुतः स्वामित्व मुकदमे का फैसला किया है जबकि मामला अभी भी अदालतों में लंबित है.
चूंकि तहखाना मस्जिद का हिस्सा है, इसलिए वहां पूजा की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी द्वारा इस आदेश को ऊपरी अदालतों में चुनौती देने के फैसले का जमाअत-ए-इस्लामी हिंद समर्थन करती है. वाराणसी कोर्ट के अजीब फैसले के बाद की घटनाओं की शृंखला परेशान करने वाली और अभूतपूर्व है.
जिस बेशर्मी से पूजा स्थापित करने के लिए ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की पवित्रता को भंग किया गया, वह चिंताजनक और अशुभ है. हम इस कार्रवाई की कड़ी निंदा करते हैं . मस्जिद पर नाजायज प्रभुत्व हासिल करने की हताशा के इन कृत्यों को पलटना उच्च न्यायालयों की जिम्मेदारी है.
इबादतगाह अधिनियम 1991 का पालन हो
जमाअत के अध्यक्ष ने कहा, हम इबादतगाह अधिनियम 1991 का पालन करने की अपनी मांग दोहराते हैं. यह अधिनियम सार्वजनिक इबादतगाहों के धार्मिक स्वरुप के संरक्षण की गारंटी प्रदान करता है. ये स्थल 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में थे. भारत सरकार को इस अधिनियम के समर्थन में सशक्त रूप से सामने आना चाहिए. घोषणा करनी चाहिए कि वे इसका अक्षरशः पालन करेंगे.
हमें विश्वास है कि इबादतगाह अधिनियम 1991 को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय द्वारा वाराणसी न्यायालय के आदेशों को पलट दिया जाएगा. यहां बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के मुकदमे का फैसला करते समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय के शब्दों को याद दिलाना उचित जान पड़ता है. शीर्ष अदालत ने इबादतगाह अधिनियम का व्यापक रूप से हवाला देते हुए इस अधिनियम को आंतरिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दायित्वों से संबंधित बताया. यह सभी धर्मों की समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है.
सबसे बढ़कर, इबादतगाह अधिनियम उस गंभीर कर्तव्य की पुष्टि है जो एक आवश्यक संवैधानिक मूल्य के रूप में सभी धर्मों की समानता को संरक्षित करने के लिए राज्य पर डाला गया था. एक ऐसा मानदंड जिसे संविधान की मूल विशेषता होने का दर्जा प्राप्त है. सार्वजनिक इबादतगाहों के चरित्र को संरक्षित करने में, संसद ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया है कि इतिहास और उसकी गलतियों का उपयोग वर्तमान और भविष्य पर अत्याचार करने के साधन के रूप में नहीं किया जाएगा.
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