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सीएए देशभर में लागू, आखिर बीजेपी को वोट क्यों दे मुसलमान ?

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

देश भर में सोमवार 11 मार्च 2024 से सीएए लागू हो गया. इसके साथ ही मुसलमानों की तरफ से सवाल किया जा रहा है कि आखिर देश का मुसलमान बीजेपी को वोट क्यों दे ? इससे जुड़ा एक अहम सवाल यह भी है कि क्या बगैर मुसलमान के समर्थन के भारतीय जनता पार्टी दावे के अनुरूप 400 सीटें ले आएगी ?

दरअसल, ये दोनों ही सवाल मुसलमानों के मंथन के लिए हैं. वे अभी जो निर्णय लेंगे, उसका अक्स अगले पांच वर्षों तक सरकार के काम-काज पर दिखेगा. इसमें दो राय नहीं कि भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों की पसंद नहीं रही है. इसके अलावा पिछले एक दशक में मौजूदा सत्तारूढ़ दल ने मुसलमानों से जुड़े जितने भी निर्णय लिए उसकी वजह से दोनों के बीच की दूरी और बढ़ गई है.

मौजूदा सरकार ने कभी मुसलमानों के मत को सम्मान नहीं दिया. मुस्लिम वर्ग सरकार के जिन-जिन फैसलों को लेकर विरोध करता रहा, उसे अहमियत नहीं दी गई. यहां तक कि सीएए को लेकर भी सरकार और देश के मुसलमानांे में मतभेद है. मुलमानों के तमाम विरोध-प्रदर्शन और मांग के बावजूद सीएए से मुसलमानांे को अलग रखा गया.

दूसरी तरफ, सीएए का विरोध करने वाले आज भी कई मुस्लिम युवा विभिन्न आरोपों में देश के अलग-अलग जेलों में बंद हैं. कई के मकान ढहा दिए गए. कई की संपत्तियां कुर्क कर ली गईं.इधर, तमाम मुस्लिम मुखालिफ फैसलों के बावजूद सत्तारूढ़ बीजेपी पिछले दो वर्षों से इस प्रयास में है कि अल्पसंख्यक वर्ग में फूट पड़ जाए और दो-चार प्रतिशत वोट उसकी झोली में आ गिरे. इसके लिए गंगा-जमुनी संस्कृति के नाम पर कई तरह के मंच और प्रपंच रचे गए हैं.

भारतीय मुसलमानों को इंडोनेशिया का सांप्रदायिकता वाद पढ़ाया जाता है. पसमांदा और सूफीवाद का मुददा भी, इसी रणनीति का हिस्सा है. कभी-कभी आपने भी सुना होगा कि मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक वर्ग एक राष्ट्रवादी संगठन से पींगे बढ़ा रहा है. वह भी खास रणनीति का ही हिस्सा है. राम मंदिर के उद्घाटन में दाढ़ी-टोपी वाले जो लोग दिखे थे. उनकी हैसियत भी शतरंज की बिसात जैसी ही है. ऐसे लोग राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यक्रम में अग्रिम पंक्ति में बैठते हैं.

दरअसल, ये सब मुसलमानों को भ्रम में डालने वाले हैं. ताकि आम मुसलमानों को लगेगा कि बीजेपी से उनके रिश्ते सुधर गए. बीजेपी को मुसलमानों द्वारा वोट देना भी अफवाह से ज्यादा कुछ नहीं. कुछ दर्जन वोट को केवल अपवाद के रूप में ले सकते हैं. हकीकत पहले की तरह ही है. मुसलमानों के तमाम विरोध के बावजूद पिछले दस वर्षों में ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिससे बीजेपी को वोट मिलने की उम्मीद की जाए. उत्तराखंड में यूसीसी और सीएए इसके ताजा उदाहरण हैं.

सवाल उठता है कि क्या बगैर मुसलमानों के वोट के बीजेपी 400 सीटें ले आएगी ? जवाब होगा, नहीं. चुनाव से पहले ऐसी दावे वही पार्टी करती है जिसकी तमाम कोशिशों के बावजूद स्थिति उसके अनुकूल न हो. इसके अलावा पिछले दस वर्षों मंे आम मुसलमान सियासत के नजरिए से पहले से ज्यादा होशियार हो गया है. उसे अपने दाढ़ी-टोपी वाले मुस्लिम लीडर पर भी संदेह है. क्योंकि पिछले एक दशक में मुसलानों के खिलाफ एक के बाद एक कई बड़े निर्णय लिए जाने के बावजूद उन्हांेने बयानबाजी के सिवाए धरात पर ठोस कुछ नहीं किया.

आंदोलन की एक पूरी रणनीति, गणित और विज्ञान होता है. यह विज्ञप्ति और उपवास लेकर आगे तक जाता है. बतौर उदाहरण किसान या मराठा आंदोलन को ही लें. मुसलमानों को यह आयाम नहीं दिया गया. कितने मामलों में मुस्लिम या इस्लामी रहनुमा ने आंदोलन की पूरी प्रक्रिया अपनाई है ? इसका एक ही जवाब है, एक भी मामले में नहीं. इसकी जगह वे मुददों को सीधे कोर्ट में ले जाते हैं. उसके बाद बहुत आसानी से ये मुददे उन्हें सौंप दिए जाते हैं, जिनका मुसलमान विरोध कर रहा होता है.
मुसलमानों की आवाज और मांगों को इस तरह गलताखाते में डालने का यह नया पैटर्न है. मुसलमानों की ओर से जो लोग ऐसे मामले को बिना आंदोलन की रणनीति और कार्रवाई के सीधे कोर्ट में ले जाते हैं समझ लीजिए दाल में कुछ काला है. इसे आप यूं भी समझ सकते हैं कि पिछले दस वर्षों में मुसलमानों से जुड़े मामले अदालतों तक इस लिए ले जाए गए ताकि विरोधियों के मकसद को सिरे चढ़ाया जा सके.

फिर भी बीजेपी उम्मीद कर रही है कि उसे मुसलमानों का वोट मिलेगा. चूंकि आम मुसलमान सब समझ चुका है, इसलिए वोट मिलना बहुत मुश्किल लग रहा है.

कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का महत्वपूर्ण सारांश निम्नलिखित है:

  • सरकार की तरफ से मुस्लिम समुदाय को समर्थन और सम्मान का अभाव: बीजेपी ने मुस्लिम समुदाय के मत को सम्मान नहीं दिया और उनकी मांगों को ध्यान में नहीं रखा.
  • सामाजिक और धार्मिक भेदभाव: मुस्लिम समुदाय को धार्मिक और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा है, जिससे उनका विकास और सुरक्षा परिस्थितियों में प्रतिबंधित हो रहा है.
  • प्रतिबंधक सियासत: मुस्लिम समुदाय को भारतीय राजनीति में उचित प्रतिनिधित्व और समर्थन का प्रतिबंधक सामना करना पड़ा है.
  • विरोधाभासी कदम: बीजेपी के तर्क और कदमों में मुस्लिम समुदाय ने अप्रत्याशित विरोध और निरंतर आंदोलन देखा है.
  • न्यायिक संघर्ष: मुस्लिम समुदाय को न्यायिक संघर्ष में संलिप्त होना पड़ता है, जिससे उनके अधिकारों की सुरक्षा और न्याय का सामना करना पड़ता है.
  • राजनीतिक जागरूकता: मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक जागरूकता और साक्षात्कार का महत्वपूर्ण अंश माना जाता है, ताकि वे अपने हकों की रक्षा कर सकें.
  • योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ: मुस्लिम समुदाय को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का उचित लाभ नहीं मिला है, जिससे उनका विकास और प्रगति अवरोधित हो रहा है.
  • समाजिक सहामति और समाधान: मुस्लिम समुदाय को समाजिक सहामति और समाधान की आवश्यकता है, जिससे वे समाज में समानता और भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित कर सकें.
  • सामरिक सहयोग और विकास: मुस्लिम समुदाय को सामरिक सहयोग और विकास के लिए सरकारी संस्थानों और सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है.
  • राष्ट्रीय एकता और सांघीकरण: मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय एकता और सांघीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए, ताकि वे समृद्धि और समानता के माध्यम से राष्ट्र का हिस्सा बन सकें.