टीपू सुल्तान से लेकर दारुल उलूम देवबंद तक: आजादी की जंग का अनकहा इतिहास
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मौलाना अरशद मदनी
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन विद्वानों और मुसलमानों ने शुरू किया था. उन्होंने लोगों को गुलामी का एहसास कराया. स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया. भारत के इतिहास में विद्वानों ने हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, चाहे वह राष्ट्रीय नेतृत्व हो, आंदोलन का नेतृत्व करना हो, या संकट और दुख के समय में लोगों की मदद करना हो.
स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत
भारत का स्वतंत्रता संग्राम 1857 में शुरू नहीं हुआ, बल्कि 1799 में सुल्तान टीपू की शहादत से शुरू हुआ. टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से लड़ते हुए “आज से भारत हमारा है” का नारा दिया और अंग्रेजों को चुनौती दी. इसके बाद विद्वानों ने स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी और स्वाधीनता की दिशा में कदम बढ़ाए.
आज़ादी के लिए विद्वानों की भूमिका
टीपू सुल्तान की शहादत के बाद, हजरत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी के बेटे हजरत शाह अब्दुल अजीज मुहद्दिस देहलवी ने फतवा दिया कि भारत गुलाम हो गया है. इसे आजाद कराना हर मुसलमान का कर्तव्य है. इसके परिणामस्वरूप उन्हें और उनके अनुयायियों को बहुत कष्ट सहना पड़ा.
दारुल उलूम देवबंद की स्थापना
1857 की असफलता के बाद, विद्वानों ने स्वतंत्रता के लिए एक नई योजना बनाई. 1866 में दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की.इस संस्था का उद्देश्य आजादी के लिए मुजाहिदीन तैयार करना था.
रेशमी रूमाल आंदोलन और शेख अल-हिंद की भूमिका
दारुल उलूम देवबंद ने ऐसे विद्वानों को जन्म दिया जिन्होंने स्वतंत्रता की अलख जगाई. शेख अल-हिंद मौलाना महमूद हसन ने रेशमी रूमाल आंदोलन की शुरुआत की. अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को मजबूत किया.
जेल की कठिनाइयाँ और जमीयत उलेमा-ए-हिंद की स्थापना
मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी और अन्य विद्वानों ने स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाया. जमीयत उलेमा-ए-हिंद की स्थापना की.
धर्मनिरपेक्ष संविधान की मांग
जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने स्वतंत्रता के बाद एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की मांग की, जिसमें मुस्लिम मस्जिदों, मदरसों, और सभ्यता की सुरक्षा की गारंटी हो. इस मांग के चलते देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष बना.
(मौलाना सैयद अरशद मदनी, दारुल उलूम देवबंद के प्रोफेसर और जमीयत उलमा के अध्यक्ष)