सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: नागरिकता कानून को संवैधानिक माना
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो,नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6ए को संवैधानिक मानते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है. चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की बेंच ने 4-1 के बहुमत से यह निर्णय लिया, जिससे असम के लाखों लोगों को राहत मिलेगी, जिनके ऊपर दशकों से नागरिकता का संकट मंडरा रहा था. जमीअत उलमा-ए-हिंद ने इस फैसले का स्वागत किया है, जो असम समझौते के अनुरूप है.
फैसले में कहा गया है कि 25 मार्च 1971 से पहले असम में रह रहे सभी लोग और उनके वंशज भारतीय नागरिक माने जाएंगे. मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति सुंदरेश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने 6ए की संवैधानिकता के पक्ष में फैसला सुनाया.
जमीअत उलमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना महमूद असद मदनी ने कहा कि यह निर्णय उन लोगों के लिए मील का पत्थर साबित होगा, जो नागरिकता की उम्मीद खो चुके थे. उन्होंने बताया कि जमीअत उलमा-ए-हिंद पिछले 70 वर्षों से असम के गरीब और पीड़ित लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है.
महिलाओं की भागीदारी
मौलाना मदनी ने कहा कि जमीअत ने असम एनआरसी से संबंधित मामलों में सुप्रीम कोर्ट में नौ केस लड़े हैं, जिसमें मुस्लिम और गैर-मुस्लिम सभी महिलाएं शामिल थीं. उन्होंने यह संकल्प लिया कि जमीअत उलमा-ए-हिंद असम के उत्पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष जारी रखेगी.
नस्लीय समूहों का अधिकार
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि विभिन्न नस्लीय समूहों की उपस्थिति का मतलब अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं है. याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि एक नस्लीय समूह दूसरे की उपस्थिति के कारण अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा करने में असमर्थ है.
नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6ए
यह धारा भारतीय मूल के विदेशी शरणार्थियों को, जो 1 जनवरी 1966 के बाद लेकिन 25 मार्च 1971 से पहले भारत आए थे, भारतीय नागरिकता का अधिकार देती है. यह धारा असम समझौते के बाद जोड़ी गई थी, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश से असम में आए अवैध शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करना है.
असम एकॉर्ड का महत्व
असम एकॉर्ड 15 अगस्त, 1985 को राजीव गांधी की सरकार, असम सरकार और आंदोलनकारी संगठनों के बीच हुआ समझौता है, जिसमें तय किया गया था कि जो भी 25 मार्च, 1971 से पहले असम में आए हैं, उन्हें भारतीय माना जाएगा.
यदि सुप्रीम कोर्ट ने असम सम्मिलित महासंघ की याचिका को स्वीकार कर लिया होता, तो 1 जनवरी 1966 और 25 मार्च 1971 के बीच असम में आए लाखों लोगों को विदेशी घोषित किया जा सकता था. जमीअत उलमा-ए-हिंद ने इस समझौते की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में पक्षकार बनकर इसे चुनौती दी थी.
इस मामले की पैरवी में वरिष्ठ वकील एमआर शमशाद, दुष्यंत दवे, इंदिरा जय सिंह, और अन्य शामिल रहे.