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नफरत की भेंट चढ़े सूफ संत ‘काले खां‘, नाम बदल कर किया बिरसा मुंडा चौक

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

पिछले दस वर्षों में देश में मुसलमानों के खिलाफ नफरत की ऐसी आंधी चली है जिसमें अंधे होकर लोग वे तमाम काम कर रहे हैं, जिससे मुसलमानों को सामाजिक, मानसिक, शैक्षणिक पीड़ा पहुंचाई जा सके. कोई मस्जिद पर भगवा लिए चढ़ा जा रहा है तो कोई चुनचुन कर मुसलमानों के प्रतिष्ठान बंद करा रहा है. यह सब कोई ढका छुपा नहीं है.

खुलेआम हो रहा है. कार्रवाई के नाम पर उल्टे कैसे कई उदाहरण सामने हैं जिसमें मुसलमानों को ही सलाखों के पीछे जाना पड़ा. इस क्रम में मुस्लिम स्थानों के नाम पर भी आफत है. इस ‘सांस्कृतिक युद्ध’ के तहत वह तमाम निशानियां मिटाई जा रही हैं, जिससे मुस्लिम इतिहास वाबसता है. इस जदद में अब सूफी संत ‘काले खां’ आ गए हैं.

इनके मुकाबले ‘बिरसा मुंडा’ को खड़ा किया गया है ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. यह काम ऐसे वक्त किया गया है जब झारखंड में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं. झारखंड के आदिवासी बिरसा मुंडा को भगवान समान मानते हैं. चूंकि स्वतंत्रता संग्राम में बिरसा मुंडा का सराहनीय योगदान रहा है.

इसलिए देश का एक अन्य वर्ग भी इस नामकरण का जश्न मना रहा है. हालांकि, एक चैक का नाम बिरसा मुंडा के नाम पर करना उनकी कद के अनुसार, उचित नहीं. इसके पास ही एक बड़ा पार्क है. यदि मुंडा के नाम पर उसका नामकरण किया जाता तो ज्यादा तार्किक होता.

बहरहाल, सूफी संत काले खां और इस स्थाना का क्या इतिहास भूगोल रहा है. यहां आपका जानना बेहद आवश्यक है. एक रिपोर्ट के अनुसार, जिसे बिरसा मुंडा चैक का नाम दिया गया है, दरअसल, दिल्ली में दक्षिण पूर्व दिल्ली जिले में एक शहरी गांव है. यह स्थान दिल्ली मेट्रो पिंक लाइन (दिल्ली मेट्रो) के माध्यम से दिल्ली के अन्य हिस्सों से जुड़ा हुआ है.

इसमें अंतर-राज्यीय बस टर्मिनस भी है. यह हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से सटा हुआ है. यह दिल्ली के पांच मुख्य स्टेशनों में से एक है और 60 ट्रेनों का प्रारंभिक और टर्मिनल स्टेशन है. बिरसा मुंडा चैक दिल्ली के दक्षिण के शहरों की ओर जाने वाली अधिकांश बसों का टर्मिनस है. यह मुद्रिका सेवा (रिंग रोड बस सेवा) और कई अन्य बस मार्गों के लिए डीटीसी बस डिपो भी है.

क्या है काले खां का इतिहास ?

इस क्षेत्र का नाम सराय रखा गया था, जो यात्रियों या कारवां के लिए एक विश्राम गृह था. यह मुगल शाही दरबारों और चांदनी चैक से लगभग 32 किमी (20 मील) दूर महरौली में उनके विश्राम स्थल तक का शाही मार्ग था. सराय का नाम 14वीं-15वीं शताब्दी के एक सूफी संत काले खान के नाम पर रखा गया था, जिनका विश्राम स्थल दिल्ली के एक अन्य सूफी संत के साथ यात्रियों का विश्राम स्थल भी आज दिल्ली हवाई अड्डे के परिसर में स्थित है.

हालांकि लोदी युग की एक संरचना काले खां का गुमड़ भी दक्षिण दिल्ली के कोटला मुबारकपुर परिसर में स्थित है, लेकिन मकबरे के अंदर मेहराब पर एक शिलालेख के अनुसार यह मकबरा 1481 ईस्वी का है. यह काले खां बहलोल लोदी के शासनकाल के दौरान लोदी काल में एक दरबारी थे.

मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय (शासनकाल 1728-1806) के शासनकाल में दरबारी रहे नवाब कासिम जान के बेटे नवाब फैजुल्लाह बेग बहादुर शाह जफर के शासनकाल में दरबारी थे, और उन्होंने परिसर का निर्माण किया जिसे बाद में अहाता काले साहब के नाम से जाना गया.

इसका नाम काले खां नामक एक संत के नाम पर रखा गया, जो कुछ समय के लिए यहां रहे थे. इस परिसर को बाद में कवि मिर्जा गालिब की भाभी बनियादी बेगम ने अधिग्रहित कर लिया था, और कर्जदारों की जेल से रिहा होने के बाद कवि को यहीं रखा गया था.

सराय नाम अफगान शेर शाह सूरी के शासन के समय से लिया गया है, जिसके तहत एक पक्की सड़क नेटवर्क बनाया गया था, जिसमें हर बारह मील पर सराय नामक सड़क किनारे विश्राम गृह था. 15 नवंबर 2024 को, आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में इसका नाम बदलकर बिरसा मुंडा चैक कर दिया गया.

उल्लेखनीय है कि यह इलाका सूफियांे का गढ़ रहा है. आज भी हजरत निजामुद्दीन की दरगाह की वजह से यह इलाका बेहद मशहूर हैं. मिर्जा गालिब की भी यहां कब्र है. इसके अलावा भी इलाके में कई सूफियों की मजारें हैं.

दिलचस्प बात यह है कि एक कट्टरपंथी संगठन का मुस्लिम मोर्चा भी इसी इलाके में सूफी परंपरा और भाईचारगी बढ़ाने की वकात करता है और इसी इलाके में सूफी संत काले खां का नाम विलुप्त करने की कोशिश की गई है.

एक्स पर एक यूजर ने काले खां के इतिहास को बिगाड़ कर पेश करने की कोशिश की है. हालांकि वह खुद आगे लिखता है कि यह इहिास बहुत प्रचलित नहीं है. यानी इसकी दलील में ही झोल छुपा है. इस ट्वीट में क्या लिखा गया है, आप भी पढ़िए-दिल्ली में #सरायकालेखानचौक को बिरसा मुंडा चौक में बदलना वास्तव में उपनिवेशवाद से मुक्ति का एक बड़ा कदम है। क्यों?

कालेखान एक अफ़गान था जो लोदी वंश के राक्षसी वंश के लिए काम करता था। हिंदुओं पर उनका भयानक अत्याचार, मूल निवासियों (यहां तक ​​कि मुसलमानों) का बहिष्कार, मंदिरों का विनाश, बलात्कार और लूटपाट एक काला अध्याय है. उत्पीड़न और कब्जे के ऐसे प्रतीक बने रहना शर्म की बात है. यह इतिहास बहुत प्रसिद्ध नहीं है.

दूसरी ओर #बिरसामुंडा ने ईसाई मिशनरियों से लड़ाई लड़ी और अंत में ईसाई अंग्रेजों ने उन्हें जेल में मार डाला. यह इतिहास भी बहुत प्रसिद्ध नहीं है. वामपंथी उन्हें किसी तरह के हिंदू विरोधी व्यक्ति के रूप में पेश करते हैं .

यह नाम परिवर्तन न केवल उत्पीड़न के अवशेषों को मिटाने बल्कि वास्तविक इतिहास को सामने लाने का एक शानदार मौका है! शेयर करें!

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