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गाज़ा में युद्ध विराम: दर्द, जीवित रहने की जंग और आशा की नई किरण

15 महीने तक चले अथक नरसंहार और हिंसा के बाद, आखिरकार गाज़ा में युद्ध विराम का दौर चल पड़ा है. यह विराम केवल एक सामरिक समझौता नहीं, बल्कि एक संघर्ष की कहर और जीवित रहने की निरंतर जद्दोजहद का साक्ष्य है. शेष बचे लोगों के लिए यह विराम एक राहत की सांस से कम नहीं, लेकिन इसके साथ ही, एक गहरा सवाल भी उठता है – कौन वास्तव में जीत रहा है?

जीवन के चक्र में रुकावटें और संघर्ष

एक नर्स, जिन्होंने लंबे समय तक विस्थापन के तम्बुओं में अपना समय बिताया, बताते हैं कि कैसे अब उनके जीवन में अरबी कॉफी के गिलास के साथ मुस्कान की झलक दिख रही है. ये तस्वीरें – मुस्कुराती हुई एक महिला और एक अरबी कॉफी का गिलास – उन अनगिनत संघर्षों की कहानी कहती हैं जो हर दिन जीने के लिए लड़ाई लड़ते हुए बिताए गए.

इस अवधि में, हर परिवार को मूलभूत आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करना पड़ा. पीने का पानी, कपड़े धोने का पानी, भोजन, और यहां तक कि आग जलाने के लिए भी लोगों को बाहरी दुनिया में निकलना पड़ता था. रोटी – जो पहले एक अधिकार था – उसे पाने के लिए लोगों को अनगिनत बाधाओं का सामना करना पड़ा. सहायता संगठनों के राशन का अति शीघ्र खत्म हो जाना और सीमित संसाधनों में से हर दिन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं का इंतजाम करना, इस युद्ध के जीवन को और भी कठोर बना देता था.

छिपे दर्द और अनदेखी मौतें

बाहरी दुनिया ने इज़रायली सेना द्वारा फिलिस्तीनी बच्चों, महिलाओं और पुरुषों की हिंसक मौतों के दृश्य देखे, लेकिन वहीं गाज़ा के भीतर, अनेक अन्य मौतें होती रहीं जिनमें बीमारी, संक्रमण और अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाओं की वजह से लोग मरते गए. संक्रमण, किडनी रोग और अन्य चिकित्सा संकटों से ग्रस्त लोग अपनी जान गंवाते रहे क्योंकि एंटीबायोटिक और अन्य जीवनरक्षक दवाओं की कमी ने इन मौतों को और बढ़ा दिया. इन मौतों का आंकलन अक्सर आधिकारिक नरसंहार मृत्यु दर में शामिल नहीं किया गया, फिर भी उनमें से कई को रोका जा सकता था.

सामूहिक पीड़ा के बीच भी जीवन की चाह

विस्थापन शिविरों की गलियों में शोक और मौन का बोलबाला था. मृतकों को उनके व्यक्तिगत पहचान चिह्नों – एक जूता, एक शर्ट – के आधार पर ही पहचाना जा सकता था. इतने महीनों के सामूहिक नुकसान और दर्द के बाद, ऐसा लगता था कि मन से बचने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची. कई लोगों ने महसूस किया कि वे पहले जैसा महसूस नहीं करते – “हम अपने जैसे नहीं हैं. हम हम नहीं हैं!”

फिर भी, इस अत्यधिक पीड़ा और दर्द के बीच भी, जीवन से चिपके रहने की एक अनोखी कला विकसित हुई. “जीवन से प्यार” की इस चाह ने उन्हें बतलाया कि जितना भी मुसीबत आए, जीवन में उम्मीद की एक किरण हमेशा मौजूद रहती है. एक नर्स ने अपने अस्थायी क्लिनिक में काम करते हुए और लंबी सैरों में कॉफी की तलाश करते हुए अपने भीतर विद्रोह और जीने की क्षमता का अनुभव किया.

जीत का सवाल: क्या बचना ही जीत है?

युद्ध विराम की इस घड़ी में दुनिया भर में चर्चा हो रही है कि आखिर कौन जीता – इज़राइल, हमास, या वीर फिलिस्तीनी लोग? लेकिन इस संघर्ष में जीत का असली मायने बहुत अलग हैं. एक जीवित व्यक्ति के लिए, जिसका दिल जीवन के लिए धड़कता है, हर दिन का संघर्ष जीने की एक जीत है. “जीवन से चिपके रहना ही जीत है.” यह संदेश उन लोगों का है जिन्होंने इतनी मुश्किलों का सामना किया है कि मौत से बचना भी एक अनंत संघर्ष बन गया.

नए संस्करण की शुरुआत

15 महीने के नरक से निकलकर, फिलिस्तीनी लोगों ने अपने भीतर एक नया संस्करण तैयार किया है – जो अब न केवल बच गए हैं, बल्कि जीवन की प्रत्येक छोटी-छोटी खुशी को सराहते हैं. टेंटों से बाहर निकलते ही, उन्हें एक भयावह दृश्य ने घेर लिया – मलबे में दबे हुए मृतकों की गिनती, और उन अनगिनत कहानियाँ जो अब भी अधूरी हैं.लेकिन यह भी स्पष्ट है कि मृत्यु ने उन्हें तबाह नहीं किया, बल्कि उनके भीतर जीवन के प्रति एक अटूट लगन जगा दी है.

जीवन के इस नए अध्याय में, हर मुस्कान, हर कॉफी का गिलास, और हर छोटी सफलता एक विद्रोह का प्रतीक बन गई है – एक ऐसा विद्रोह जो कहता है कि भले ही हमने सब कुछ खो दिया हो, लेकिन हम अपने जीवन से प्यार करना नहीं छोड़ते.

गाज़ा में युद्ध विराम ने दर्द, संघर्ष और अनदेखी मौतों की कहानियों के साथ-साथ आशा और जीवन की जिद को भी सामने लाया है. यह संघर्ष केवल जंग के मैदान में जीती गई जीत नहीं है, बल्कि उन अनगिनत छोटी-छोटी लड़ाइयों की जीत है, जो हर दिन जीवित रहने के लिए लड़ी जाती हैं. इस विराम ने फिलिस्तीनी लोगों को एक नया रूप दिया है – एक ऐसा रूप जो कहता है कि हम मरे नहीं हैं, हम जीवित हैं, और हर दिन की जीत में एक नई शुरुआत है.

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