लोकतंत्र में मुसलमानों की भूमिका: तुर्की विरोधी डॉ. अहमद टी कुरू का अधिकारों और कर्तव्यों पर जोर
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो,नई दिल्ली
तुर्की के मुखर विरोधी और धर्मनिरपेक्षता को अपने नजरिए से देखने वाले अमेरिका स्थित राजनीतिक विद्वान और इस्लामिक और अरबी अध्ययन के प्रोफेसर डॉ. अहमद टी कुरू ने हाल ही में नई दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान मुसलमानों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग रहने की सलाह दी. उन्होंने कहा कि मुसलमानों को अपने पिछड़ेपन को समाप्त करने के लिए अपनी नागरिकता को स्वीकार करना चाहिए और लोकतंत्र के माध्यम से अपनी स्थिति में सुधार लाना चाहिए.
उनका मानना है कि मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का समाधान लोकतांत्रिक प्रणाली में निहित है, जहां सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलते हैं और कर्तव्यों को निभाने का भी अवसर मिलता है. डॉ. कुरू ने यह भी कहा कि एक समाज तभी प्रगति कर सकता है, जब उसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों समुदायों को समान सम्मान और अधिकार मिले.
उनके अनुसार, मुसलमानों को सह-अस्तित्व की भावना के साथ समाज में अपनी भूमिका निभानी चाहिए और विविधता को खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए. इस प्रकार, वे न केवल अपने समुदाय की बेहतरी के लिए काम कर सकते हैं, बल्कि देश की समग्र प्रगति में भी योगदान दे सकते हैं.
तुर्की और मलेशिया में धार्मिक और राजनीतिक दबाव का सामना
डॉ. कुरू, जो वर्तमान में अमेरिका के सैन डिएगो स्टेट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं, ने हाल ही में मलेशिया में अपने अनुभवों को साझा किया, जहां उन्होंने तुर्की से आने वाले राजनीतिक दबावों के कारण कठिनाइयों का सामना किया. उन्होंने कहा कि उनकी पुस्तक के विमोचन को रद्द कर दिया गया और उन्हें अधिकारियों द्वारा कथित रूप से दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा.
कुरू ने इस स्थिति को तुर्की के राजनीतिक वातावरण से जोड़ा और कहा कि उन्हें इस्लाम विरोधी और धर्मनिरपेक्ष होने के आरोपों का सामना करना पड़ा, जबकि वे खुद अपने धार्मिक अधिकारों के कट्टर समर्थक हैं. कुरू ने बताया कि उनकी पत्नी, जो सिर पर दुपट्टा पहनती हैं, को तुर्की में नौकरी के लिए अस्वीकार कर दिया गया था, और खुद उन्हें शराब न पीने के कारण तुर्की के अभिजात वर्ग से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा..
तुर्की सरकार और धर्मनिरपेक्षता पर कटाक्ष
कुरू ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि तुर्की में धर्मनिरपेक्षता का पालन करने में अज्ञानता की स्थिति उत्पन्न हो गई है. उन्होंने इस्लामिक और धर्मनिरपेक्ष नीतियों के बीच संतुलन की आवश्यकता पर जोर दिया और कहा कि तुर्की की धर्मनिरपेक्षता को आलोचना करना एक खतरनाक स्थिति पैदा कर सकता है. उनका मानना है कि तुर्की में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धार्मिक विश्वासों का पालन करने वाले व्यक्तियों को अक्सर आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है..
कुरू ने कहा कि तुर्की में उनके खिलाफ राजनीतिक दबाव का सामना करते हुए उन्हें “गुलेनिस्ट” (एक तुर्की विद्वान का समर्थक) होने का आरोप लगा, जो कि तुर्की सरकार के लिए एक आपत्तिजनक स्थिति है. उन्होंने बताया कि तुर्की की सत्तारूढ़ पार्टी (AKP) और उनके आलोचकों के बीच यह आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला लगातार जारी रहता है..
तुर्की, फ्रांस और अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता का तुलनात्मक अध्ययन
अपने शोध में, डॉ. कुरू ने तुर्की, फ्रांस और अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा का तुलनात्मक अध्ययन किया है.. उनका मानना है कि इन देशों में धर्मनिरपेक्षता की नीतियां अलग-अलग परिप्रेक्ष्य से आकार लेती हैं, और यह केवल तुर्की के लिए एक मॉडल नहीं है. उनका अध्ययन दर्शाता है कि तुर्की, फ्रांस और अमेरिका में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा अलग-अलग तरीके से लागू की जाती है, जिससे इन देशों के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में विभिन्नताएं पैदा होती हैं.
उन्होंने अपनी पुस्तक “धर्म और राज्य” में यह स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता केवल एक आदर्श नहीं है, बल्कि यह विभिन्न देशों के ऐतिहासिक संघर्षों और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर विकसित हुई है. उनके शोध से यह सिद्ध हुआ कि धर्मनिरपेक्षता का एकमात्र रूप नहीं हो सकता, बल्कि यह विभिन्न प्रकार की हो सकती है, जैसे भारतीय, चीनी, रूसी, मैक्सिकन, और इंडोनेशियाई धर्मनिरपेक्षता.
भविष्य की दिशा
डॉ. अहमद टी कुरू का यह अध्ययन धर्मनिरपेक्षता के विभिन्न रूपों और उनके राजनीतिक प्रभावों को समझने में सहायक है. उन्होंने यह भी कहा कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धार्मिक विश्वासों और स्वतंत्रताओं का उल्लंघन नहीं होना चाहिए, और समाज में हर व्यक्ति को अपनी आस्थाओं के पालन का अधिकार होना चाहिए. उनका यह संदेश है कि अगर मुसलमान अपनी नागरिकता के अधिकारों और कर्तव्यों को स्वीकार करते हैं, तो वे अपनी स्थिति को सुधार सकते हैं और समाज में एक सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं.
कुरू के विचारों का यह संदेश न केवल भारत में मुसलमानों के लिए, बल्कि दुनिया भर के धर्मनिरपेक्ष देशों के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह धर्म, राज्य और समाज के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है.