धार्मिक शिक्षा प्रणाली के खिलाफ NCPCR के पक्षपात की जांच
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राहुल जमातिया | केएलई लॉ कॉलेज, बेंगलुरु
भारत की शिक्षा प्रणाली विविध सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि को प्रतिबिंबित करने के लिए संरचित की गई है. लेकिन राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) के हालिया निर्देशों को लेकर गहराती संवैधानिक बहस ने मदरसों की स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों को केंद्र में ला दिया है. विशेष रूप से तब जब सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में NCPCR के निर्देशों पर रोक लगा दी, जिसमें मदरसा छात्रों को औपचारिक सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने की बात कही गई थी.
यह विवाद भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, धार्मिक शैक्षणिक संस्थानों की स्वतंत्रता और सभी बच्चों के लिए आधुनिक शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करने में राज्य की भूमिका पर गहन चर्चा को मजबूती देता है. यह रिपोर्ट NCPCR के निर्देशों और अल्पसंख्यक अधिकारों के टकराव का कानूनी विश्लेषण प्रस्तुत करती है.
NCPCR के निर्देश और सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
2024 में, NCPCR ने उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा की राज्य सरकारों से संवाद किया और मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को औपचारिक सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव रखा. आयोग का तर्क था कि मदरसा शिक्षा, जो मुख्य रूप से धार्मिक शिक्षाओं पर केंद्रित होती है, बच्चों को आधुनिक शिक्षा से दूर रख रही है और उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का कारण बन रही है, जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 में उल्लिखित हैं.
हालांकि, इस कदम का इस्लामी संगठनों, विशेष रूप से जमीयत उलेमा-ए-हिंद द्वारा जबरदस्त विरोध किया गया. उन्होंने इस निर्देश को मदरसों की धार्मिक स्वायत्तता के विरुद्ध बताया और इसे संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को प्राप्त अधिकारों का उल्लंघन करार दिया. याचिका में तर्क दिया गया कि NCPCR की कार्रवाई असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है, जो मदरसों की भूमिका को गलत तरीके से प्रस्तुत करती है.
22 अक्टूबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने NCPCR के इन निर्देशों पर रोक लगाई. सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि राज्य को व्यापक शिक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन साथ ही अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक अधिकारों का भी सम्मान किया जाना चाहिए. इस निर्णय ने निर्देशों को अस्थायी रूप से रोक दिया और मामले की गहराई से समीक्षा करने की राह खोली.
धार्मिक शिक्षा बनाम धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक दायरा
भारतीय संविधान में धर्म की स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा का प्रावधान किया गया है. अनुच्छेद 28 “धार्मिक निर्देश” और “धार्मिक शिक्षा” के बीच एक स्पष्ट अंतर को उजागर करता है. राज्य द्वारा वित्त पोषित संस्थानों में धार्मिक शिक्षा की अनुमति नहीं है, लेकिन धर्म के शैक्षिक अध्ययन को स्वीकार किया जाता है.
मदरसों ने पारंपरिक रूप से धार्मिक और सामान्य शिक्षा दोनों प्रदान की है. लेकिन NCPCR का दावा है कि मदरसा शिक्षा में धार्मिक विषयों पर अत्यधिक जोर दिया जाता है, जिससे छात्रों की समकालीन शैक्षिक आवश्यकताओं की उपेक्षा होती है. सवाल यह उठता है कि क्या सभी बच्चों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने की राज्य की प्रतिबद्धता, अल्पसंख्यकों के अपने शैक्षणिक संस्थानों को संचालित करने और प्रबंधित करने के संवैधानिक अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण है?
सर्वोच्च न्यायालय का संतुलनकारी दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट की इस बहस में भागीदारी राज्य और अल्पसंख्यक समुदायों के हितों के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह सभी बच्चों को व्यापक शिक्षा उपलब्ध कराए, जिससे वे भविष्य में बेहतर अवसर प्राप्त कर सकें. लेकिन साथ ही, अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक और भाषाई परंपराओं को बनाए रखने का मौलिक अधिकार भी प्राप्त है.
सुप्रीम कोर्ट का स्थगन आदेश इस बात को दर्शाता है कि भारत में शिक्षा नीति बनाते समय संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखना आवश्यक है. यह आदेश केवल कानूनी और शैक्षणिक बहस को नहीं दर्शाता, बल्कि यह संकेत भी देता है कि देश में धार्मिक संस्थानों और आधुनिक शिक्षा के बीच समन्वय बनाए रखना जरूरी है.
मदरसों का भविष्य और शिक्षा नीति पर प्रभाव
यह विवाद भारत में धार्मिक शिक्षा के भविष्य पर गहरा प्रभाव डाल सकता है. यदि सुप्रीम कोर्ट NCPCR के निर्देशों को पूरी तरह खारिज कर देता है, तो यह मदरसों की स्वतंत्रता के लिए एक बड़ी जीत होगी. लेकिन यदि निर्देशों में आंशिक या पूर्ण रूप से संशोधन किया जाता है, तो यह एक नई शिक्षा नीति के निर्माण की नींव रख सकता है.
शिक्षाविदों का मानना है कि इस मामले का दूरगामी प्रभाव होगा और धार्मिक शिक्षा के स्वरूप को नए सिरे से परिभाषित किया जाएगा. सरकार को अब एक समावेशी नीति बनाने की आवश्यकता होगी जो आधुनिक शिक्षा और धार्मिक पहचान के बीच संतुलन बनाए रख सके.
NCPCR के निर्देशों और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने धार्मिक शिक्षा और आधुनिक शिक्षा के बीच के विवाद को एक नई दिशा दी है. यह बहस केवल मदरसों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की शिक्षा नीति, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों के व्यापक मुद्दों को छूती है.
आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय यह निर्धारित करेगा कि भारत में धार्मिक शिक्षा और आधुनिक शिक्षा को कैसे संतुलित किया जाएगा. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह मामला शिक्षा प्रणाली के ढांचे और धार्मिक संस्थानों की भूमिका को फिर से परिभाषित करने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करता है.