Religion

रोज़ा: इस्लाम का अनिवार्य कर्तव्य और उसकी कुरआनी आधारशिला

रमज़ान का पाक महीना आते ही दुनिया भर के मुसलमान पूरे श्रद्धा और समर्पण के साथ रोज़ा रखते हैं। यह उपवास न केवल आत्मसंयम का प्रतीक है, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि और ईश्वर के प्रति समर्पण की भी निशानी है। इस्लाम में रोज़ा (उपवास) केवल एक धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं, बल्कि एक अनिवार्य कर्तव्य है, जिसका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में किया गया है। इस लेख में हम कुरआन की उस आयत पर विस्तार से चर्चा करेंगे, जिसके माध्यम से रोज़ा को मुसलमानों के लिए अनिवार्य किया गया। साथ ही, हम इस्लाम में रोज़े की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और इसके महत्व को भी समझेंगे।

रोज़ा: इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक इस्लाम के पाँच स्तंभ हैं –

  1. कलमा (तौहीद – ईश्वर की एकता में विश्वास और मुहम्मद सल्ल. को अंतिम पैगंबर मानना),
  2. नमाज़ (दैनिक पाँच वक्त की इबादत),
  3. रोज़ा (रमज़ान के महीने में उपवास),
  4. ज़कात (निर्धारित आय का एक हिस्सा दान देना),
  5. हज (मक्का की यात्रा, यदि आर्थिक और शारीरिक रूप से संभव हो)।

रोज़ा केवल एक आत्मिक अभ्यास नहीं है, बल्कि यह शरीर और मन को शुद्ध करने का माध्यम भी है। यह हमें धैर्य, सहनशीलता और दूसरों की पीड़ा को समझने की क्षमता प्रदान करता है।

क़ुरआन में रोज़े की अनिवार्यता रोज़े की अनिवार्यता को स्पष्ट रूप से कुरआन की सूरह अल-बक़रा की आयत 183-185 में बताया गया है:

“ऐ ईमान वालों! तुम पर रोज़े अनिवार्य कर दिए गए हैं, जैसे तुमसे पहले लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम तक़वा (परहेज़गार) बनो।” (कुरआन 2:183)

इस आयत में यह स्पष्ट किया गया है कि रोज़ा सिर्फ़ इस्लाम में ही नहीं, बल्कि इससे पहले के धर्मों में भी एक अनिवार्य आध्यात्मिक अभ्यास रहा है। इसका मूल उद्देश्य इंसान को संयम और ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना विकसित करना है।

रोज़े के नियम और छूट क़ुरआन में बताया गया है कि रोज़ा केवल स्वस्थ और सक्षम मुसलमानों पर अनिवार्य है। कुछ परिस्थितियों में छूट भी दी गई है:

  1. बीमार व्यक्ति: यदि कोई व्यक्ति बीमार है और रोज़ा रखने से उसकी सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है, तो वह बाद में उन दिनों की क़ज़ा (पूरा) कर सकता है।
  2. यात्रा पर रहने वाला व्यक्ति: यदि कोई व्यक्ति सफ़र में हो और रोज़ा रखना कठिन हो, तो उसे यात्रा पूरी होने के बाद उन दिनों की क़ज़ा करनी चाहिए।
  3. कमजोर और असमर्थ लोग: जो लोग अत्यधिक बुज़ुर्ग हैं, या किसी शारीरिक असमर्थता के कारण रोज़ा नहीं रख सकते, उन्हें रोज़े के बदले किसी गरीब को भोजन कराने का आदेश दिया गया है।

क़ुरआन की आयत (2:185) में कहा गया है: “रमज़ान का महीना वह है, जिसमें क़ुरआन अवतरित किया गया, जो लोगों के लिए मार्गदर्शन और सत्य को स्पष्ट करने वाली निशानी है। अतः जो कोई भी इस महीने को पाए, उसे रोज़ा रखना चाहिए। और जो बीमार या सफर में हो, उसे बाद में उतने ही दिनों के रोज़े रखने चाहिए। अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी चाहता है, कठिनाई नहीं चाहता।” (कुरआन 2:185)

रोज़े का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य इस्लाम के शुरुआती दौर में रोज़ा एक स्वैच्छिक उपवास था, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए रख सकता था। लेकिन जब मुसलमान मदीना पहुँचे, तो उन्होंने यहूदियों को आशूरा (मुहर्रम की 10वीं तारीख) का उपवास रखते देखा। यहूदियों ने बताया कि यह उपवास मूसा (अ.स.) और उनकी क़ौम की फिरऔन से मुक्ति की याद में रखा जाता है। इस पर पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) ने मुसलमानों को भी इस दिन रोज़ा रखने का आदेश दिया, लेकिन यह अनिवार्य नहीं था।

दूसरी हिजरी (इस्लामी कैलेंडर के दूसरे वर्ष) में उपर्युक्त कुरआनी आयत के अवतरण के बाद, रमज़ान के पूरे महीने के रोज़े अनिवार्य कर दिए गए।

रोज़े के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक लाभ

  1. आध्यात्मिक लाभ: रोज़ा इंसान को खुद पर नियंत्रण रखना सिखाता है। यह केवल भूखा और प्यासा रहने का नाम नहीं है, बल्कि अपनी इच्छाओं को काबू में रखना और नैतिकता को सर्वोपरि रखना है। यह व्यक्ति को तक़वा (ईश्वर से डर और उसके आदेशों का पालन) की ओर प्रेरित करता है।
  2. वैज्ञानिक लाभ: रोज़ा सेहत के लिए भी लाभदायक है। यह शरीर को डिटॉक्स करता है, पाचन तंत्र को आराम देता है और कोशिकाओं को पुनर्जीवित करता है।
  3. मानसिक लाभ: उपवास से मस्तिष्क में शांति बनी रहती है, नकारात्मक विचार कम होते हैं और व्यक्ति अधिक आत्म-अनुशासित बनता है।
  4. सामाजिक लाभ: रोज़े से अमीर-गरीब के बीच की खाई कम होती है। जो लोग हर रोज़ भरपेट भोजन करते हैं, वे उपवास के दौरान भूख-प्यास का अनुभव करके गरीबों की पीड़ा को समझ सकते हैं। इससे समाज में सहानुभूति और भाईचारे की भावना बढ़ती है।

रोज़ा इस्लाम का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिसे कुरआन में स्पष्ट रूप से अनिवार्य किया गया है। यह केवल एक धार्मिक कर्तव्य ही नहीं, बल्कि व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास का साधन भी है। कुरआन की सूरह अल-बक़रा में रोज़े के महत्व, नियम और छूट के बारे में विस्तार से बताया गया है।

रोज़ा हमें संयम, ईश्वर की याद, सहानुभूति और आत्मशुद्धि की सीख देता है। आज के समय में, जब लोग भौतिकतावाद में उलझे हुए हैं, रोज़ा आत्मा की शुद्धि और समाज में समानता की भावना विकसित करने का एक बेहतरीन माध्यम है। रमज़ान का पवित्र महीना हमें यह अवसर प्रदान करता है कि हम अपने जीवन को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध करें और अपने कर्मों को सुधारें।