opinion: नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन से कौन डरता है?
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सलीम समद

हर साल फरवरी में आयोजित होने वाला बांग्लादेश का पारंपरिक पुस्तक मेला मातृभाषा बांग्ला के लिए 1952 में बलिदान देने वाले वीरों की याद में होता है। यह वही दिन है जिसे आज पूरी दुनिया अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मान्यता देती है।
लेकिन इस सांस्कृतिक आयोजन के पीछे एक चिंताजनक सच छिपा है — इस्लामी चरमपंथियों और कट्टरपंथी ताकतों की ओर से लगातार बुद्धिजीवियों, लेखकों, और नारीवादी आवाजों पर हमले।
ढाका विश्वविद्यालय के शिक्षाविद हुमायूं आज़ाद और लोकप्रिय विज्ञान लेखक अविजीत रॉय की जिहादियों द्वारा की गई हत्या इसी खतरे की भयावहता को दर्शाती है। अविजीत रॉय पर तब हमला हुआ जब वह अपनी पत्नी के साथ पुस्तक मेले से निकल रहे थे। उनकी पत्नी भी बुरी तरह घायल हुईं।
तस्लीमा नसरीन पर निशाना
इस्लाम की आलोचना करने, धर्मनिरपेक्षता, नारीवाद, और धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करने वाली लेखिका तस्लीमा नसरीन हमेशा इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर रही हैं।
पिछले पुस्तक मेले में, जब उनकी किताबें ‘अमर एकुशे बोई मेला’ में प्रदर्शित की गईं, तो मदरसों से आए उग्र भीड़ ने एक बुक स्टॉल पर हमला बोल दिया। पुलिस ने माहौल बिगड़ता देख स्टॉल को तिरपाल से ढककर बंद कर दिया और मात्र एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया।
प्रकाशक पर आरोप था कि वह नास्तिकता को बढ़ावा दे रहा है, और सोशल मीडिया पर चल रहे अभियानों ने इस घटना को और भड़काया। बांग्ला अकादमी के महानिदेशक ने कहा कि यह कदम केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए था।
सरकार और समाज की चुप्पी
पूर्व मुख्य सलाहकार प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस ने इस हमले की निंदा करते हुए कहा कि यह घटना नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। वहीं तस्लीमा ने कहा कि यह सब कट्टरपंथियों को सरकार की मौन स्वीकृति से संभव हो रहा है।
तस्लीमा नसरीन न सिर्फ एक लेखिका हैं, बल्कि चिकित्सक, मानवतावादी, और धर्मनिरपेक्ष आवाज भी हैं। उनकी किताबें लज्जा और अमर मेयेबेला बांग्लादेश में प्रतिबंधित हैं। कट्टरपंथियों ने उन्हें ईशनिंदा का दोषी ठहराया और 1993 में फतवा जारी कर उनके सिर की कीमत रखी गई।
हमलों की लंबी फेहरिस्त
1992 में ढाका के पुस्तक मेले में उनके ऊपर हमला हुआ। 2007 में हैदराबाद में आयोजित एक कार्यक्रम में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेताओं ने उन पर शारीरिक हमला किया।
मुंबई में उनकी एक पुस्तक के विमोचन पर उन्हें जिंदा जलाने की धमकी दी गई। उनका खुला व्यवहार, जैसे छोटे बाल, सिगरेट पीना और पारंपरिक पोशाक से परहेज़, रूढ़िवादी मुस्लिम समाज को चुभता है।
निर्वासन और संघर्ष
बांग्लादेश छोड़ने के बाद तस्लीमा ने स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका में समय बिताया। कुछ समय के लिए वह भारत के कोलकाता में बसीं, लेकिन वहां से भी राजनीतिक दबाव के कारण निकाला गया।
आज भी बांग्लादेश सरकार ने उनका पासपोर्ट दोबारा जारी नहीं किया है। उनकी हालत की तुलना अक्सर सलमान रुश्दी से की जाती है।
अन्य पीड़ित लेखक
दाऊद हैदर, एक लोकप्रिय युवा कवि, भी इस कट्टरपंथ का शिकार हुए। उन्हें भी ईशनिंदा के आरोप में गिरफ्तार किया गया, प्रताड़ित किया गया और बाद में निर्वासन झेलना पड़ा। उनके चचेरे भाई की हत्या भी की गई, लेकिन हमलावरों को कोई सजा नहीं मिली।
तस्लीमा की उपलब्धियाँ
तस्लीमा ने कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं, जिनमें शामिल हैं:
- आनंद पुरस्कार (भारत)
- सखारोव पुरस्कार (यूरोपीय संसद)
- कर्ट टुकहोल्स्की पुरस्कार (स्वीडिश PEN)
- फ्रांसीसी मानवाधिकार पुरस्कार
- अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी पुरस्कार
उनकी किताब लज्जा बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर एक सशक्त साहित्यिक दस्तावेज़ है, जिसने उन्हें वैश्विक पहचान दिलाई।
सवाल अब भी बाकी है
तो सवाल यह है: तस्लीमा नसरीन से इतना डर क्यों?
क्या यह डर है उनके विचारों का, या फिर समाज की उस पितृसत्तात्मक मानसिकता का, जिसे वह आईना दिखाती हैं? उनके सवालों से भागने की बजाय क्या हमें उनके लिखे गए शब्दों को समझने और बहस करने की हिम्मत नहीं करनी चाहिए?
लेखक सलीम समद, बांग्लादेश के एक पुरस्कार विजेता स्वतंत्र पत्रकार हैं।यह लेखक के अपने विचार हैंi