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वक्फ संशोधन पर डरे नीति निर्धारक, अब बहानों की पॉलिटिक्स

मुस्लिम नाउ विशेष

वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर देशभर में छिड़ी बहस अब सिर्फ संवैधानिक या धार्मिक नहीं रही, यह सत्ता और समाज के बीच भरोसे की दरार को भी सामने ला रही है। सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के बीच सरकार यानी नीति निर्धारक जिस तरह प्रतिक्रिया दे रहे हैं, वह एक डरे हुए, घिरे हुए और जवाब से बचते हुए नेतृत्व की झलक देता है।

🤔 नीति निर्धारकों की हड़बड़ाहट क्या कहती है?

जैसे कोई व्यक्ति अकेले सुनसान रास्ते में डर कर या तो गाना गाने लगता है या बेतुकी बातें करता है, ठीक वैसे ही सरकार के प्रमुख लोग भी वक्फ संशोधन मुद्दे पर बयानबाजी, भटकाव और धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेने लगे हैं।

जैसे ही वक्फ संशोधन विधेयक का विरोध पूरे देश में तेज हुआ, सत्ता पक्ष ने मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए मुस्लिम युवाओं की चाय-पंक्चर की बातें, पसमांदा मुसलमानों की दुहाई, और विपक्ष पर उल्टे सवाल उठाने शुरू कर दिए।

लेकिन जनता जानती है कि यह सब वास्तविक मुद्दों से बचने की रणनीति है।


📉 समाज की स्थिति और विफलताओं का पर्दाफाश

  • न नौकरी है, न रोजगार।
    देश के 80 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर हैं। यह केवल आर्थिक असफलता नहीं बल्कि नीतियों की नाकामी का खुला सबूत है।
  • पसमांदा की बात करने वाला, उन्हें क्या दे रहा है?
    पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण, नौकरियों में आरक्षण, बैंक कर्ज में रियायत—कुछ भी नहीं दिया गया। केवल सांकेतिक प्रतिनिधित्व देकर वाहवाही लूटी जा रही है।
  • क्या भाजपा ने कभी किसी मुसलमान को पार्टी का अध्यक्ष बनाया है?
    नहीं। इसके बावजूद, वह कांग्रेस से सवाल पूछती है कि उसने मुसलमानों को क्या दिया। यह नैतिकता का ढोंग नहीं तो और क्या है?

🔍 मुसलमानों का गुस्सा क्यों वाजिब है?

  • वक्फ अधिनियम केवल संपत्ति का मामला नहीं है, यह धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अधिकारों से जुड़ा मसला है।
  • नए कानून में कुछ पसमांदा चेहरों को शामिल कर देने से, वक्फ की असल संरचना और मुस्लिम समाज की हिस्सेदारी पर हो रहे हमलों को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता
  • तीन तलाक, CAA, राम मंदिर, UCC, मस्जिद-मदरसे पर निगरानी, नाम बदलने की राजनीति—ये सभी उसी हिंदूवादी संगठन की विचारधारा का हिस्सा हैं, जो अब वक्फ संशोधन का खुला समर्थन कर रहा है।

तो सवाल उठता है:
जो संगठन सौ वर्षों से मुस्लिम पहचान मिटाने के एजेंडे पर काम कर रहा है, वह मुस्लिम हितों का रक्षक कैसे हो सकता है?


📢 अदालत से लेकर सड़कों तक विरोध क्यों?

  • जमीअत उलमा-ए-हिंद, AIMIM, AIMPLB, कांग्रेस सांसद, आम आदमी पार्टी नेता, और कई सामाजिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को चुनौती दी है।
  • वक्फ संपत्तियों की रक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों के अधिकार और समाज में बराबरी—इन तमाम मुद्दों को संवैधानिक चुनौती के रूप में पेश किया गया है।
  • सड़कों पर युवाओं, संगठनों और आम मुसलमानों ने भी मोर्चा संभाल लिया है। एक स्पष्ट संदेश है कि यह कानून किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है।

🎭 नीति निर्धारक और दोहरे मापदंड

जब सत्ता में बैठे लोग कथनी और करनी में फर्क करते हैं, तो जनता भ्रम में नहीं रहती, बल्कि वह सवाल करना शुरू कर देती है।

  • राम मंदिर के उद्घाटन में एक दलित राष्ट्रपति को न बुलाकर,
  • दलितों के अधिकारों पर चुप्पी साधकर,
  • मुसलमानों को सिर्फ चुनावी नारों और भाषणों में घसीटकर,
    क्या सरकार वाकई सबका साथ-सबका विकास कर रही है?

या फिर, यह सब केवल ध्यान भटकाने वाली रणनीति है?


📌 निष्कर्ष: अब गाना गाने से नहीं चलेगा

नीति निर्धारकों को अब गाना गाने के बजाय जवाब देना होगा।
मुसलमान अब भ्रमित नहीं है। वक्फ अधिनियम के बहाने शुरू हुआ यह संघर्ष अब सिर्फ एक कानून का नहीं, संवैधानिक अधिकारों, धार्मिक स्वतंत्रता और राजनीतिक हिस्सेदारी का सवाल बन चुका है।

सरकार अगर वाकई पसमांदा, दलित, मुस्लिम, गरीब के लिए कुछ करना चाहती है, तो उसे व्यवहारिक नीतियां बनानी होंगी, संविधान के अनुरूप फैसले लेने होंगे, और सच्चे प्रतिनिधित्व को स्वीकार करना होगा—न कि मंच और माला के सहारे आत्मसंतुष्टि का ढोंग रचाना।

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