Culture

हिंदी और उर्दू दो नहीं, एक ही भाषा हैं – सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

📍 मुस्लिम नाउ ब्यूरो,,नई दिल्ली

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए कहा कि उर्दू और हिंदी को दो अलग-अलग भाषाएं मानना भाषाई वास्तविकता नहीं, बल्कि राजनीतिक सुविधा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भाषा को धर्म से जोड़ना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और इसे समाज में विभाजन का कारण नहीं बनने देना चाहिए।

यह टिप्पणी महाराष्ट्र के अकोला जिले की पातुर नगर परिषद द्वारा एक नई इमारत पर मराठी के साथ उर्दू में भी साइनबोर्ड लगाने के फैसले पर आपत्ति करने वाली याचिका को खारिज करते हुए की गई।


🔴 कोर्ट ने कहा – “भाषा विचारों को जोड़ती है, तोड़ती नहीं”

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और के विनोद चंद्रन की दो सदस्यीय पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा:

“भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है जो विभिन्न विचारों और विश्वासों वाले लोगों को करीब लाती है। इसे उनके बीच विभाजन का कारण नहीं बनना चाहिए।”


🗣️ “हिंदी और उर्दू दो भाषाएं नहीं, बल्कि एक ही भाषा” – सुप्रीम कोर्ट

कोर्ट ने ज्ञानचंद्र जैन, अमृत राय, रामविलास शर्मा और मौलाना अब्दुल हक जैसे विद्वानों का हवाला देते हुए कहा कि हिंदी और उर्दू वाक्य रचना, व्याकरण और ध्वन्यात्मकता में बेहद समान हैं।

“सिर्फ लिपि का अलग होना कोई भाषा को अलग नहीं बनाता। हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है और उर्दू नस्तालीक में, लेकिन ये भाषाई भेदभाव का आधार नहीं हो सकता।”


📜 संविधान की आठवीं अनुसूची में उर्दू और मराठी दोनों समान दर्जे की भाषाएं

न्यायालय ने कहा कि मराठी और उर्दू दोनों भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाएं हैं, और 2022 के महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम में किसी भाषा के उपयोग पर रोक नहीं लगाई गई है।

“कोई भी प्रावधान उर्दू को नगर परिषद के साइनबोर्ड पर इस्तेमाल करने से नहीं रोकता, खासकर तब जब वह स्थानीय समुदाय की भाषा है।”


🕌 “भाषा धर्म नहीं होती, और न ही किसी विशेष धर्म की प्रतिनिधि”

न्यायालय ने उर्दू को धर्म विशेष से जोड़ने की मानसिकता की आलोचना करते हुए कहा:

“भाषा धर्म नहीं होती। भाषा एक समुदाय, एक क्षेत्र और एक संस्कृति की पहचान होती है – न कि किसी धर्म की।”

उर्दू को गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिंदुस्तानी संस्कृति का प्रतीक बताते हुए न्यायालय ने कहा कि यह भाषा उत्तर और मध्य भारत की मिश्रित सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती है।


📚 संविधान सभा की बहसों का संदर्भ

जस्टिस धूलिया ने संविधान सभा में भाषा के मुद्दे पर हुई चर्चाओं को याद दिलाते हुए कहा:

“जब स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय भाषा चुनने का प्रश्न उठा, तब ‘हिंदुस्तानी’ को लेकर काफी उम्मीदें थीं – जो हिंदी और उर्दू का मिश्रण था।”

उन्होंने संविधान विशेषज्ञ ग्रैनविल ऑस्टिन का हवाला दिया कि कैसे यह मुद्दा संविधान सभा में तनाव का कारण बना था, परंतु अंततः समझौते की भावना से समाधान निकाला गया।


🔎 फैसले का महत्व और असर

यह निर्णय न केवल एक स्थानीय निकाय के साइनबोर्ड विवाद को सुलझाता है, बल्कि भारत की भाषाई और सांस्कृतिक एकता पर भी गहरा संदेश देता है। सुप्रीम कोर्ट का यह रुख भाषा के माध्यम से समावेशिता, सहिष्णुता और एकता को बढ़ावा देने वाला है।


🔖 निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भाषा न तो राजनीतिक उपकरण है और न ही धार्मिक पहचान का प्रतीक। उर्दू और हिंदी को अलग-अलग मानने का आग्रह भाषिक सत्य नहीं, बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण है।

यह फैसला भारतीय समाज के उस साझा सांस्कृतिक मूल्यों को सम्मान देता है जो हिंदुस्तानी तहजीब में गहराई से रचे-बसे हैं।

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