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वक्फ संशोधन विधेयक: ‘पसमांदा बनाम अशराफ’ की सियासत या हक़ीक़त का सामना?

वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर इन दिनों मुस्लिम समाज के भीतर एक गहरी बहस छिड़ी हुई है। सरकार दावा कर रही है कि यह विधेयक पसमांदा मुसलमानों के सशक्तिकरण की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है, वहीं इसके पक्ष में खड़े तथाकथित ‘सरकारी सूफी’ और पसमांदा प्रवक्ता इसे मुसलमानों में बराबरी लाने की पहल बता रहे हैं। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त क्या है? क्या वाकई यह विधेयक पसमांदा मुसलमानों को अधिकार दिलाने वाला है या फिर यह एक नई तरह की ‘बांटो और राज करो’ की नीति है?

इस विश्लेषण में हम वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर सरकार के इरादों, तथाकथित पसमांदा राजनीति, अशराफ बनाम अरज़ल विमर्श और मुस्लिम समुदाय की आंतरिक संरचना के हवाले से गहराई से पड़ताल करेंगे।

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वक्फ संशोधन विधेयक: क्या बदलने वाला है?

विधेयक का दावा है कि अब वक्फ संपत्तियों में पसमांदा मुसलमानों और मुस्लिम महिलाओं को ज़्यादा प्रतिनिधित्व मिलेगा। यह अपने-आप में स्वागतयोग्य बात लग सकती है, लेकिन यह सवाल बरकरार है कि क्या सरकार वाकई पसमांदाओं को अधिकार देने जा रही है या सिर्फ़ उनके नाम पर वक्फ संपत्ति की पुनः संरचना कर रही है?

यह ध्यान रखना होगा कि वक्फ संपत्तियां किसी सरकारी अनुदान से नहीं, बल्कि मुसलमानों की निजी मिल्कियत, इबादतगाहों और ऐतिहासिक योगदानों से खड़ी हुई हैं। ऐसे में सरकार यदि वक्फ को ‘सुधार’ के नाम पर नियंत्रित करना चाहती है, तो वह मुस्लिम समाज को बांटने और उनके धार्मिक संस्थानों पर हस्तक्षेप करने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है।


पसमांदा बनाम अशराफ की बहस: मुद्दे या मंसूबे?

पसमांदा आंदोलन का उद्देश्य मूलतः यह था कि मुसलमानों के भीतर जातिगत असमानताओं को समाप्त कर सबको बराबरी का दर्जा दिया जाए। यह सामाजिक न्याय का सवाल है। लेकिन हाल के वर्षों में इस आंदोलन को सरकारी नरेटिव के साथ जोड़कर इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे केवल सैयद, शेख और पठान वर्ग ने मुस्लिम संस्थानों पर एकाधिकार जमाया हो और पसमांदाओं को पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया हो।

सवाल यह है कि क्या वाकई हर संस्था में सिर्फ अशराफ वर्ग का ही वर्चस्व है? और अगर है भी, तो क्या उसे खत्म करने का तरीका सिर्फ वक्फ संशोधन जैसा कानून है या फिर शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी में ठोस आरक्षण व नीतिगत बदलाव?


वक्फ बोर्ड में पसमांदा प्रतिनिधित्व: एक छलावा?

सरकार कहती है कि अब वक्फ बोर्ड में पसमांदा और मुस्लिम महिलाओं को ‘प्राथमिकता’ दी जाएगी। लेकिन किस आधार पर? क्या यह संविधान सम्मत प्रक्रिया होगी? या फिर सिर्फ प्रतिनिधित्व के नाम पर कुछ ‘सरकारी पसंदीदा’ चेहरों को नामित किया जाएगा जो आगे चलकर अपने समाज का नहीं बल्कि सरकार का एजेंडा आगे बढ़ाएं?

इस समय देश की अधिकांश दरगाहों के मुतव्वली, पीर और गद्दीनशीं सैयद, पठान या शेख वर्ग से आते हैं। यहां तक कि जो लोग खुद को ‘सरकारी सूफी’ बताते हैं, जैसे नसीरुद्दीन चिश्ती या सलमान चिश्ती, वे भी इसी वर्ग से हैं। ऐसे में यह मानना कि नए कानून से पसमांदाओं को असली सत्ता मिलेगी, एक सियासी भ्रम से ज़्यादा कुछ नहीं लगता।


आरक्षण का मुद्दा: पसमांदाओं को असल क्या मिला?

पसमांदा समाज लंबे समय से दलितों की तरह आरक्षण की मांग करता रहा है। लेकिन बीजेपी सरकार ने बार-बार यह कह कर हाथ झाड़ लिया है कि वह धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दे सकती। ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि:

“अगर पसमांदाओं को शिक्षा, नौकरियों, और राजनीति में कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला, तो वक्फ में एक-दो पद देकर कौन-सा बदलाव आएगा?”

यह एक बुनियादी सवाल है, जिसे तथाकथित पसमांदा प्रतिनिधि जानबूझकर नहीं उठाते। या तो वे इस मुद्दे को समझते नहीं, या फिर उन्हें किसी रणनीतिक भूमिका में ही रखा गया है कि वे केवल ‘दूसरे मुसलमानों’ को निशाने पर रखें और सरकार को सवालों से बरी करें।


राजनीतिक प्रतिनिधित्व: किसे मिला, किसे नहीं?

आज तक केंद्र सरकार ने किसी पसमांदा मुसलमान को राज्यसभा में नहीं भेजा। यहां तक कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय में भी कोई मुसलमान मंत्री नहीं है। तो फिर यह कैसे माना जाए कि यह सरकार पसमांदा हितैषी है?

क्या सिर्फ भाषणों, लेखों और मीडिया में बयान देकर सरकार पसमांदाओं की तक़दीर बदल देगी?


दंगों और हिंसा की सियासत: ज़मीनी सच्चाई क्या कहती है?

कुछ पसमांदा प्रवक्ता यह भी कहते हैं कि जब दंगे होते हैं तो ‘अशराफ’ वर्ग अपने ड्राइंग रूम में बैठा रहता है और पसमांदा सड़क पर मरता है। यह बयान भी आधी सच्चाई पर आधारित है।

हालिया नागपुर हिंसा को देखें, तो वहां जिन मुस्लिम इलाकों में पुलिस कार्रवाई हुई, वहां के लोग पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े थे। यानी दंगे की चपेट में सबसे पहले आता है वही, जिसके पास बचाव का कोई साधन नहीं होता। इसमें जाति नहीं, बल्कि वर्ग और संसाधनों की भूमिका ज़्यादा अहम है।


निष्कर्ष: ‘सुधार’ के नाम पर राजनीतिक शतरंज

आज के डिजिटल युग में बातें छिपती नहीं हैं। जब सब कुछ रिकॉर्ड होता है, जनता पढ़ती और समझती है, तो फिर यह मान लेना कि कोई भी ‘पसमांदा’ शब्द का प्रयोग करके अपने लिए सियासी जमीन तैयार कर लेगा, एक बड़ी भूल है।

वक्फ संशोधन विधेयक के बहाने सरकार मुस्लिम समाज के आंतरिक ढांचे में हस्तक्षेप की कोशिश कर रही है, और इस एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कुछ ऐसे चेहरे सामने आ रहे हैं, जो खुद को ‘पसमांदा नेता’ बताकर समुदाय को भीतर से बांटने का काम कर रहे हैं।

असल पसमांदा सशक्तिकरण तब होगा जब उन्हें –

  • शिक्षा,
  • सरकारी नौकरियों,
  • राजनीतिक प्रतिनिधित्व,
  • और वक्फ के साथ-साथ अन्य संस्थानों में हिस्सा, सम्मान और अधिकार मिलेगा।

सिर्फ भाषणों और ‘सुधारों’ के नाम पर मुसलमानों को आपस में लड़ाना, न तो किसी का भला करेगा और न ही सच्चे सामाजिक न्याय की ओर ले जाएगा।


लेखक टिप्पणी:
अब वह समय नहीं रहा जब किसी को सिर्फ ‘पसमांदा’ या ‘अशराफ’ बताकर उनके विचारों को नियंत्रित किया जा सके। अब सवाल उठेंगे, जवाब मांगे जाएंगे और सच्चाई की मांग की जाएगी। ‘वक्फ’ की सियासत से ज़्यादा ज़रूरी है मुसलमानों की साझा भलाई – और वह किसी भी ‘जाति’ के आधार पर नहीं, बल्कि इंसाफ़ और बराबरी से आएगी।

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