जब मुसलमानों ने नहीं मनाया गर्व का जश्न: ब्रह्मोस, कलाम और कर्नल सोफिया की बहादुरी
मुस्लिम नाउ विशेष रिपोर्ट
क्या भारत के मुसलमानों को वक्त रहते प्रतिक्रिया देना नहीं आता? या फिर वे अब भी तारीफ़ करने में हिचकते हैं, खासकर तब जब तारीफ़ अपने किसी साथी की हो? या कहीं ऐसा तो नहीं कि मुस्लिम रहनुमा इस बात से डरते हैं कि किसी मुस्लिम की सार्वजनिक प्रशंसा उन्हें ‘इस्लाम-विरोधी’ दिखा सकती है? ये सवाल जरूरी हैं, क्योंकि जब दुनिया के एक बड़े हिस्से में यह सोच बन चुकी है कि मुसलमान सिर्फ हिंसा और कट्टरता की पहचान हैं, तो ऐसे वक्त में क्या यह और ज़रूरी नहीं हो जाता कि मुसलमान अपने सकारात्मक योगदान को भी बुलंद आवाज़ में पेश करें?
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ऑपरेशन सिंदूर के दो ‘मुस्लिम गौरव’ क्षण
7 से 10 मई 2025 तक चले ऑपरेशन सिंदूर के दौरान दो ऐसे मौके सामने आए जो भारतीय मुसलमानों के लिए फख्र और उत्सव के अवसर थे:

- पहली बार किसी भारतीय महिला अफसर—कर्नल सोफिया कुरैशी—ने सैन्य कार्रवाई की उच्च स्तरीय ब्रिफिंग का नेतृत्व किया। वो भी पाकिस्तान के खिलाफ।
- ऑपरेशन में भारत की सबसे घातक मिसाइल ‘ब्रह्मोस’ का इस्तेमाल हुआ, जिसे विकसित करने में सबसे अग्रणी योगदान डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का रहा।
मगर अफ़सोस कि इन दोनों घटनाओं को मुस्लिम समाज और उसके रहनुमाओं ने नज़रअंदाज़ कर दिया।
ओवैसी जैसे नेताओं की सीमित प्रतिक्रिया
AIMIM के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने सिर्फ ‘हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ कहकर अपनी प्रतिक्रिया समाप्त कर दी। न कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस, न कोई सार्वजनिक सभा। अगर ये किसी दूसरे समुदाय से जुड़ी उपलब्धि होती तो शायद जश्न और जलसे की बारिश हो जाती।

ब्रह्मोस: डॉ. कलाम के विज़न की उड़ान
ब्रह्मोस सिर्फ एक मिसाइल नहीं है, ये भारत की वैज्ञानिक क्षमता, रणनीतिक सोच और आत्मनिर्भरता की प्रतीक है। डॉ. कलाम ने 1993 में रूस के अधूरे सुपरसोनिक इंजन को देखकर इसे भारत में विकसित करने की ठानी थी। 1998 में भारत-रूस के बीच हुए समझौते के तहत ब्रह्मोस एयरोस्पेस की नींव रखी गई। 2001 में इसका पहला परीक्षण हुआ।
यह मिसाइल ज़मीन, समुद्र और हवा से दागी जा सकती है और इसकी गति 2.8 मैक (ध्वनि की गति से लगभग तीन गुना) है। इसकी एक खास बात ये है कि इसे भारतीय वायुसेना के सुखोई-30 MKI फाइटर जेट से भी लॉन्च किया जा सकता है। हैरानी की बात यह कि जहां रूस की कंपनी ने इसके लिए ₹1300 करोड़ का खर्च बताया था, वहीं भारत की HAL ने वही काम ₹88 करोड़ में कर दिखाया।
डॉ. कलाम का आत्मनिर्भर भारत विज़न
डॉ. कलाम ने IGMDP (Integrated Guided Missile Development Programme) के ज़रिए ही इस दिशा में पहला कदम रखा था। उन्होंने सस्ते और असरदार स्वदेशी हथियार विकसित करने की बात कही थी ताकि भारत रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके।
आज मोदी सरकार भी उसी दिशा में चल रही है, लेकिन मुस्लिम समुदाय डॉ. कलाम की इस विरासत को उत्सव के रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाया। न कोई मुस्लिम संस्था, न कोई दारुल उलूम, न कोई मदरसा, और न कोई सोशल आर्गेनाइजेशन इस सफलता को सेलिब्रेट करता दिखा।

भारत का बढ़ता रक्षा निर्यात और ब्रह्मोस की वैश्विक मांग
2022 में भारत ने फिलीपींस को $375 मिलियन में ब्रह्मोस मिसाइलें बेचीं। अप्रैल 2025 में दूसरी खेप भी पहुंचा दी गई। अर्जेंटीना समेत कई देशों ने इस मिसाइल प्रणाली में रुचि दिखाई है। भारत अब रक्षा निर्यातक देश की छवि में उभर रहा है।
मुस्लिम समाज के लिए यह आत्मनिरीक्षण का वक्त
जब देश-दुनिया में मुसलमानों को आतंकवाद और कट्टरता के फ्रेम में देखा जाता है, तो क्या यह जरूरी नहीं कि कर्नल सोफिया और डॉ. कलाम जैसे नामों को गर्व से पेश किया जाए? क्या मुस्लिम समाज को ऐसे मौकों पर चुप नहीं रहना चाहिए, बल्कि इस पर सार्वजनिक जश्न मनाना चाहिए?

निष्कर्ष
मुस्लिम समाज को यह समझना होगा कि केवल अत्याचार के विरोध में सड़कों पर उतरने से पहचान नहीं बनती। पहचान बनती है गर्व के क्षणों को गर्व से जीने में, और अपने नायकों को सलाम करने में। कर्नल सोफिया और डॉ. कलाम जैसे लोग केवल मुसलमानों के नहीं, पूरे भारत के सितारे हैं। लेकिन अगर मुस्लिम समाज भी इन्हें अपने ताज का हिस्सा नहीं बनाएगा, तो फिर कौन बनाएगा?