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इज़रायल की खुफिया ताकत या डर की राजनीति? मोसाद, हमास और ईरान संघर्ष का सच

मुस्लिम नाउ विशेष

इज़रायल की ड्रिप एरिगेशन तकनीक वाकई में एक क्रांतिकारी सोच है—रेगिस्तान जैसी शुष्क ज़मीन में भी मामूली पानी से खेती करना इस तकनीक की खासियत है। लेखक इसके लिए इज़रायल की सराहना करता है, लेकिन तकनीकी उपलब्धियों के पीछे छिपी इसकी सुरक्षा मानसिकता और खुफिया रणनीति पर गंभीर सवाल भी खड़े करता है।

इज़रायल को लेकर आम धारणा है कि यह एक छोटा मगर घबराया हुआ देश है, जो हर वक्त किसी अनदेखे खतरे से डरता रहता है। यह डर ही उसकी सैन्य और खुफिया नीतियों का मूल आधार है। यही वजह है कि वह अपने आसपास के देशों—सीरिया, लेबनान, ईरान, ग़ाज़ा—पर बार-बार हमले करता रहता है। इनमें से अधिकांश देश न तो आर्थिक रूप से सशक्त हैं, न ही सैन्य रूप से आधुनिक। इन पर इज़रायल की आक्रामकता उसकी असुरक्षा को ही दर्शाती है।

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‘आतंकवाद’ की चादर ओढ़ाकर नैतिकता का व्यापार

ताकतवर देश अक्सर अपने विरोधियों को ‘आतंकवादी’ घोषित कर देते हैं ताकि दुनियाभर में उनके खिलाफ नैतिक समर्थन हासिल किया जा सके। अफगानिस्तान इसका उदाहरण है—तालिबान को आतंकवादी कहकर रूस और अमेरिका ने लंबी जंग लड़ी, लेकिन अंत में मुंह की खाकर दोनों देशों को वहां से निकलना पड़ा। और अब वही ताकतें तालिबान से समझौता करने को बेताब हैं।

1948 से लगातार डर और दमन की मानसिकता

इज़रायल 1948 से ही इस मानसिकता के तहत काम करता रहा है कि उसके आस-पास कोई भी देश मज़बूत न हो पाए। वह अपने पड़ोसियों को हर कीमत पर कमजोर बनाए रखना चाहता है। इसके लिए वह खुफिया नेटवर्क का सहारा लेता है—जासूस भेजता है, लोगों को पैसे या डर के दम पर अपने पक्ष में करता है और फिर हत्या करवा देता है। रॉ का पूर्व एजेंट लक्की बिष्ट कहते हैं कि “जासूस कोई जिन्न नहीं होता, वह अपने क्षेत्र के ही लोगों को भय और लालच से अपने पक्ष में कर लेता है।” पटना के चर्चित शिक्षक खान सर भी इज़रायल की हरकतों पर तंज कसते हुए कहते हैं—“यह कोई बहादुरी नहीं है, बिहार में तो रोज़ 6-7 मर्डर वैसे ही हो जाते हैं।”

मोसाद, जो इज़रायल की खुफिया एजेंसी है, उसकी दुनिया भर में ख्याति है। लेकिन जब आप उसकी गतिविधियों को करीब से देखेंगे, तो पाएंगे कि ये अधिकतर डर, ब्लैकमेलिंग और धोखे पर आधारित होती हैं। चाहे किसी देश में किसी व्यक्ति को पैसे या डर से अपने पक्ष में करना हो या फिर तकनीकी उपकरणों में विस्फोटक चिप लगाकर हमला करना—ये सब कोई साहसिक कार्रवाइयां नहीं, बल्कि कमजोरी छिपाने के हथकंडे हैं।

लेबनान में हाल की घटना इसका उदाहरण है। इज़रायल ने वहां पेजर, मोबाइल और वॉकी-टॉकी जैसे उपकरणों में विस्फोटक चिप फिट करवा दिए और फिर रिमोट से उन पर ब्लास्ट कर दिया। इससे दहशत फैल गई, लेकिन यह कोई रणनीतिक उपलब्धि नहीं थी। यह हरकत वैश्विक तकनीकी भरोसे को ही खतरे में डालती है।

हमास के 7 अक्टूबर हमले को ही लीजिए—जब इज़रायल की सुरक्षा पूरी तरह विफल रही। हमास ने न सिर्फ उसकी सीमा भेद दी, बल्कि 1200 से अधिक लोगों को मार डाला और कई को बंदी बना लिया। मोसाद जैसे संगठन को भनक तक नहीं लगी। इस विफलता के बाद ग़ाज़ा पर बर्बर हमले किए गए, जिसमें हज़ारों निर्दोष नागरिक मारे गए। इसके बावजूद इज़रायल अब तक अपने सारे बंदियों को छुड़ा नहीं पाया है। सुरंगों में सीमेंट भरना उसकी रणनीतिक हार का संकेत है।

ईरान के हालिया हमले में तो इज़रायल की और भी फज़ीहत हुई। तेहरान ने सीधा तेल अवीव स्थित मोसाद के मुख्यालय पर हमला कर दिया, और इज़रायल की मिसाइल डिफेंस प्रणाली उसे रोक नहीं सकी। राजधानी तक में तबाही है, लोग बंकरों में रहने को मजबूर हैं, और इज़रायल अब अमेरिका की शरण में जाकर धमकी दिलवा रहा है कि अगर ईरान नहीं रुका तो अमेरिका युद्ध में कूदेगा। सवाल उठता है, अगर इज़रायल इतना ही ताकतवर है तो अमेरिका से गिड़गिड़ाने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है?

यह सब तब हो रहा है जब अधिकतर मुस्लिम देश मौन हैं या केवल बयानबाज़ी तक सीमित हैं। तुर्किये और सऊदी अरब जैसे देश इज़रायल के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बोलते ज़रूर हैं, लेकिन भीतर ही भीतर उसके साथ खड़े दिखाई देते हैं। तुर्किये की दोहरी नीति तो उस वक़्त पूरी तरह उजागर हो गई, जब ईरान के हमलों के बीच इज़रायल ने अपने सारे यात्री विमानों को तुर्किये में शरण दे दी।

इस पूरे परिदृश्य में इज़रायल की छवि एक ऐसी शक्ति की बनती है जो तकनीक में तेज़, लेकिन मानसिक रूप से बेहद असुरक्षित है। वह अपने से कमजोर देशों पर हमला करके अपने डर को छुपाने की कोशिश करता है। उसका खुफिया तंत्र जितना प्रचारित है, हकीकत में उतना ही भ्रमित और नाकाम भी है। इज़रायल की युद्ध नीति और उसकी सैन्य सोच, भय और रणनीतिक धोखेबाज़ी से भरी हुई है—जिसका खामियाज़ा बेगुनाहों को भुगतना पड़ रहा है।

— मुस्लिम नाउ विश्लेषण डेस्क

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