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कोरोना में मुसलमानों की बदली तस्वीरों ने कई मिथ्य तोड़े

बेशक इस्लाम का यह सबक है कि किसी की मदद करें तो एक हाथ से देते वक्त दूसरे हाथ को पता नहीं लगने दें. मगर मस्लेहतन कभी-कभी ऐसे कामों का दूसरों को पता लगने देना चाहिए. इसके दो कारण हैं. एक तो आपके परोपकारी काम को देखकर दूसरे प्रेरित होंगे और वे भी मदद के लिए आगे आएंगे. दूसरा, यह भ्रम तोड़ना बेहद जरूरी है कि देश-दुनिया में जहां भी आपदा आती है मुसलमान लोगों की मदद केलिए आगे नहीं आते. अलग बात है कि मुसलमान इस्लाम के बताए राह पर चलते हुए मदद पहुंचाने वाले कामों का आम तौर से ढिंढोरा नहीं पीटते.

मगर कोरोना ने इन धारनाओं को न केवल तोड़ा है, सारी दुनिया ने हिंदुस्तानी मुसलमानों को दूसरों की रिकार्ड तोड़ मदद करते देखा भी है. अपनी जान की परवाह किए बगैर उन शवों को शमशान और कब्रिस्तान पहुुंचाया, जिनके अपने उन्हें कोरोना से मौत के बाद अस्पताल और सड़कों पर छोड़कर भाग गए. परंपरागत तरीके से शवों का अंतिम संस्कार करने की बजाए जानवरों को नोचकर खाने के लिए नदी में फेंक दिया. मगर मुसलमानों ने ऐसा नहीं होने दिया. ऐसी सूचनाओं पर चौकस नजर आए. पूरे सम्मान से कोरोना से मरने वालों को श्मशान, कब्रिस्तान पहुंचाया.

ऑक्सीजन लंगर से पहले बांटे सिलेंडर

दिल्ली के एक धर्मस्थल से ऑक्सीजन लंगर लगाने की बातों को खबू हवा दी गई, जबकि इससे पहले मुंबई के कुछ मुसलमान अपने स्कूटर पर ऑक्सीजन सिलेंडर लाद कर कोरोना मरीजों को घर पहुंचाते रहे. नागपुर के एक मुसलमान ने तो मुसीबत की घड़ी में अपने पैसे से खरीद कर शहर के सरकारी अस्पताल को एक करोड़ रूपये की आॅक्सीजन पहुंचाया.

भारत के मुसलमान यहीं नहीं रुके. उन्होंने धर्म, जाति के खांचे से बाहर निकल कर अपनी मस्जिदों के दरवाजे मानवता की सेवा के लिए खोल दिए. ऐसा एक दो मस्जिदों में नहीं अधिकांश मस्जिदों में हुआ.

कोरोना की दूसरी लजर जब अपने पूरे शबाब पर थी कुछ मस्जिदों में कोविड आइसोलेशन सेंटर स्थापित कर दिए गए. किसी में ऑक्सीजन बैंक खोला गया. किसी ने राशन बांटे तो किसी ने खाना.

मस्जिदों की सकारात्मक भूमिका ने चौंकाया

कोरोना महामारी के दौरान मस्जिदों की भूमिका ने सभी को चौंका दिया. संकटग्रस्त लोगों की मदद के लिए मस्जिदों को विभिन्न तरीकों से राहत केंद्रों के रूप में इस्तेमाल किया गया, जिसकी आज सराहना करते लोग नहीं थक रहे हैं.

एक न्यूज पोर्टल की रिपोर्ट में कहा गया है कि निस्संदेह, इस्लाम में मस्जिदों की यह भूमिका नई नहीं है. मुसलमानों ने देश को उसी चरित्र के साथ मस्जिदें भेंट की, जिसे सबने देखा और सराहा. देश के प्रमुख इस्लामी विद्वान और बुद्धिजीवी इसे एक सकारात्मक संकेत मानते हैं.

हालांकि, उनका मानना है कि इस तरह की चीजें पहले भी होती रही हैं, लेकिन सोशल मीडिया की गैरमौजूदगी की वजह से इस ओर ध्यान नहीं दिया गया.

 
खतरे में भी जोश बरकरार

सर्वविदित है कि कोरोना महामारी के दौरान निराशा और मृत्यु के युद्ध के दौरान दुनिया ने मानव सेवा की ऐसी किरण देखीं. जिसने जीवन के अंधकार को कम कर दिया. साथ ही उन्होंने साहस और जोश से ऐसा जज्बा पैदा किया कि लोग अपना दर्द भूल गए. दूसरों की मदद को आगे आए. किसी ने किसी का न धर्म देखा, न जाति पूछी, इसलिए यह सिलसिला भविष्य में भी जारी रहना चाहिए.

इस संदर्भ में न्यूज पोर्टल से बातचीत करते हुए प्रख्यात इस्लामी विद्वान प्रोफेसर अख्तर उल वासे कहते हैं, चौंकिए मत, लेकिन यह सच है. नए युग में दुनिया एक वैश्विक गांव है. इस्लाम का जो मॉडल इस दुनिया में काम करेगा वही भारतीय मुसलमानों का आदर्श होगा, क्योंकि इस देश में धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक एकरूपता का इतिहास रहा है. यही हमारी ताकत भी है.
 
प्रो अख्तरुल वासे कहते हैं, “इस्लाम में पहला इबादत स्थल मस्जिद नबवी, मस्जिद और दरसगाह भी थी. इस्लाम के पैगंबर इस मस्जिद में बैठकर मामलों का फैसला करते थे. लोगों का मार्गदर्शन करते थे. यह स्पष्ट है कि मस्जिदें सिर्फ पांच घंटे की नमाज के लिए नहीं होतीं. यह अभी भी बड़ी मस्जिदों में हो रहा है जो नमाज और दरसगाह दोनों हैं. नमाज के लिए दो घंटे, फिर 22 घंटे के लिए मस्जिदें खाली रहती हैं. बस ध्यान रहे कि मस्जिद की पवित्रता में आंच न आए. इबादत में कोई रुकावट न हो. अगर ऐसा नहीं होता, तो यह अभी भी मस्जिदों से जुड़ने का एक तरीका है.‘‘

प्रो. अख्तर ने कहा कि बेशक अरब जगत की एक पुरानी सभ्यता थी और तुर्की में भी इसका इस्तेमाल किया गया, लेकिन आप यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि यह भारतीय मुसलमानों का मॉडल होगा जो दुनिया में प्रचलित होगा.

इस्लाम की जड़ में है मानव सेवा

भारतीय मुसलमान सबसे अलग-थलग हैं. मुसलमानों ने 900 वर्षों तक शासन किया लेकिन अल्पमत में रहे, जिसका अर्थ है कि मुसलमानों ने अपने व्यवहार में धार्मिक उत्पीड़न को शामिल नहीं किया.

दिल्ली फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफ्ती मोहम्मद मुकर्रम अहमद ने इस बारे में कहा कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर मस्जिद में इबादत के अलावा एक कमरा होना संभव नहीं, जहां से ऐसी कल्याणकारी गतिविधियां संचालित की जा सके, लेकिन मस्जिद की पवित्रता का ध्यान रखना होगा. एक जरूरी बात यह है कि आप इसके लिए मस्जिद के फंड का इस्तेमाल करें.

उनका कहना है कि इस्लाम में सामाजिक कार्यों का बहुत महत्व है. नमाजियों को उनके लाभ के बारे में बताना इमाम का कर्तव्य है. मौलाना मुफ्ती मुकर्रम अहमद का कहना है कि मस्जिदों का जीवित रहना मुश्किल हो रहा है, जिससे इमारतों का रखरखाव दुश्वार है. फतेहपुरी मस्जिद का भवन बड़ा है, लेकिन जीर्ण-शीर्ण हालत में है. वक्फ बोर्ड जब वेतन नहीं दे रहा तो मरम्मत कहां से होगा ? इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि
किसी भी हाल में मस्जिद की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए सामाजिक कार्य हो, लेकिन कुछ दूरी पर हो मस्जिद से अलग कमरे में या उसके परिसर के किसी भी हिस्से से जो अलग-थलग हो.

बिना भेदभाव के मानव सेवा

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फरंगी का कहना है कि भारत में मुसलमानों ने जिस तरह से कोरोना महामारी के दौरान मस्जिदों का इस्तेमाल किया, उसका कोई उदाहरण नहीं. एक बात स्पष्ट है: मस्जिदों की भूमिका नमाज तक सीमित नहीं. यहां से होने वाली अंधाधुंध मदद ने सभी को तारीफ करने पर मजबूर किया. हालांकि, इस्लामी आधार पर यह कोई नया काम नहीं है, लेकिन इस प्रवृत्ति को बनाए रखा जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, मस्जिदों के इमाम लोगों की उत्कृष्ट सेवा का उदाहरण बन सकते हैं. मानव सेवा बिना किसी भेदभाव के इस्लामी शिक्षा है. हमने लखनऊ के इस्लामिक सेंटर में ऐसा अभ्यास किया जो बहुत सफल रहा. जहां के शहर के बड़े डॉक्टर अपनी सेवाएं प्रदान करते रहे हैं. यह हर मस्जिद में संभव नही, लेकिन इस तरह के धर्मार्थ कार्यों के लिए बड़ी मस्जिदों का उपयोग किया जा सकता है.

काम से अमिताभ बच्चन भी प्रभावित

न केवल मुंबई में बल्कि महाराष्ट्र में भी कोरोना महामारी के दौरान बहुत से कल्याणकारी कार्य हुए और यह चल रहा है. सोशल मीडिया पर अब इस बारे में बहुत कुछ देखा जा रहा है. हालांकि अभी भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपनी सेवाओं को हाईलाइट करना पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि इस्लाम का संदेश है कि अगर आप एक हाथ से मदद करें तो दूसरे हाथ को पता न चले. यह कहना है मुंबई अंजुमन-ए-इस्लाम के अध्यक्ष डॉ. जहीर काजी का.

उन्होंने कहा केवल मस्जिदें ही क्यों? हमने बंद शिक्षण संस्थानों का भी पूरा उपयोग किया. मुंबई में हमने कोरोना के खिलाफ जंग में अहम भूमिका निभाई. हमने जो कोड सेंटर बनाए उसमें अमिताभ बच्चन ने दो ‘वेंटिलेटर‘ भी दिए थे.

भविष्य में भी सेवा कार्य जारी रहे

मुंबई जामा मस्जिद ने बहुत काम किया है, अस्पताल, कब्रिस्तान और श्मशान घाट के बीच एम्बुलेंस सेवाएं चलाई हैं. ऑक्सीजन बैंक चल रहा है. महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में ऐसा हो रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह प्रक्रिया भविष्य में किसी अन्य रूप में भी जारी रहनी चाहिए. ऐसे कार्यों से सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा मिलता है.

 उनका कहना है कि इस संकट की घड़ी में हमने न्यू पनवेल में अपने तकनीकी परिसर को हर दिन 8,000 लोगों को भोजन कराने का केंद्र बनाया था. एक स्कूल से राशन वितरित किया गया और एक अन्य स्कूल में टीकाकरण की व्यवस्था की गई. यह बहुत अच्छा होगा कि भविष्य में भी यह धर्मार्थ जारी रहे.

सोशल मीडिया से काम को पहचान मिली

मस्जिदों की भूमिका हमेशा एक ही रही है, पुनर्वास के लिए हमेशा अल्लाह के घर का इस्तेमाल किया गया. यह हर युग में हुआ है. अंतर्राष्ट्रीय सूफी कारवां के प्रमुख और इस्लामी विद्वान मौलाना मुफ्ती मंजूर जिया ने यह बातें कहीं. उन्होंने बताया कि मस्जिदों मंे इबादत से हमें अल्लाह से जोड़ती है और इंसानों की सेवा करती है. सामाजिक और कल्याणकारी कार्य सबसे महत्वपूर्ण हैं. यही वह गुण है जो हमें समाज से जोड़ता है.

यह पहली बार नहीं है कि मस्जिदों द्वारा यह काम किया जा रहा है, पूर्व में सहायता दी गई है, लेकिन तब सोशल मीडिया का समय नहीं था. अब जो हो रहा है वह दुनिया के सामने  है. बेशक मस्जिदों का उपयोग कल्याण के लिए किया जा सकता है लेकिन इसके लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसकी पवित्रता भंग न हो.

पैगंबर के समय भी मस्जिदों से मानव सेवा

कोरोना महामारी के दौरान मस्जिदों का कल्याण इस्लाम का एक मूल सिद्धांत है. अल्लाह ने मनुष्य को उपकार के रूप में भेजा है. उसने किसी के धर्म की परवाह किए बिना जीवन को सबसे कीमती घोषित किया है. यह बात मुंबई की एक प्रमुख सामाजिक स्वयंसेवक और इंडिया इंटरनेशनल विमेंस अलायंस की संस्थापक, आजमी नाहिद ने कही. उनका कहना है कि जहां तक मस्जिद की बात है तो इससे ज्यादा प्रतिष्ठित जगह और कोई हो ही नहीं सकती. इस्लाम के पैगंबर के समय में जब महामारी फैली तो बीमारों को मस्जिदों में रखा जाता था और इलाज की व्यवस्था की जाती थी. यह सारा काम बिना किसी भेदभाव के किया गया. इस महामारी के दौरान मुसलमानों ने पूरे दिल और आत्मा से सेवाएं दी है.

कोरोना में कई भ्रम टूटे

इस मुद्दे पर तमाम मजहबी रहनुमाओं से बातचीत से पता चला कि बहुत दिनों के बाद मस्जिदों की मानव सेवा वाली जो तस्वीर समाज के सामने आई है उसे आगे भी बरकरार रखना जरूरी है. वह इस लिए भी कि इस भ्रम को तोड़ना बहुत जरूरी है कि कुछ खास समुदाय और संगठन ही मानव सेवा को समर्पित हैं. भारत के मुसलमान उनसे बीस ही हैं, उन्नीस न कभी थे और न कभी रहेंगे. इस्लाम के मूल मंत्र में वासुदेव कुटुंब है. खाने से पहले जब पड़ोसी के बारे में पता लगाने की बात कही जाती है तो इसका अर्थ है कि सच्चा मुसलमान पड़ोसी तो क्या जहां तक उसकी पहुंच होगी, किसी को भूखा साने नहीं देगा.