PoliticsTOP STORIES

सरकार के प्रयासों में गलतफहमी के बीज बोने वालों के खिलाफ क्यों न हो कानूनी कार्रवाई !

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस प्रयास में हैं कि किसी तरह जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिका व्यवस्था बहाल की जाए. इसके लिए हाल में उन्हांेने जम्मू कश्मीर की सियासत में सक्रिय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक की थी.

पीएम मोदी ने इसमें शामिल तमाम नेताओं को विश्वास दिलाया कि जम्मू कश्मीर को प्रदेश का दर्जा देने के लिए प्रस्तावित हदबंदी में उनकी राय को अहमियत दी जाएगी. यहां तक कि परिसीमन बोर्ड में पार्टियों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाएगा. इसके बाद से जम्मू कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति सकारात्मक माहौल बनता दिखाई दे रहा है. मगर पीएम मोदी के इस प्रयास में पलीता लगाने के लिए भी कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं. यहां तक कि मीडिया का एक वर्ग माहौल खराब करने वाली रिपोर्ट छाप रहा है. ऐसे मीडिया घरानों में से एक ‘न्यूज नेशन’ भी है. इसने ‘जेकेःनया परिसीमन हुआ तो खत्म हो जाएगा अब्दुल्ला-मुफ्ती का दबदबा’ शीर्षक से हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इसमें हिंदू मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात कही गई है.

जाहिर है ऐसी खबरों से जम्मू कश्मीर का माहौल खराब हो सकता है. पीएम मोदी के प्रयासों को भी धक्का लग सकता है. परिसीमन के क्या नतीजे निकलेंगे, यह तो उसकी रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा. बावजूद इसके रिपोर्ट में मुसलमानों को लेकर न केवल कई आपत्तिजनक बातें कही गई हैं, परिसीमन से पहले की दो समुदाय के बीच मनमुटाव पैदा करने की भी कोशिश की गई है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 और धारा 35-ए के खात्मे के बाद पहली बार पीएम नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के नेताओं की सर्वदलीय बैठक बुलाई. चर्चा है दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित सूबे को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जा सकता है.

एक कयास यह भी है कि राज्य में राजनीतिक गतिविधियां तेज कर पाकिस्तान के दुष्प्रचार को भोथरा करने के लिए भी चुनावी सरगर्मियों को लेकर कुछ संकेत बैठक में दिए जा सकते हैं. इस कयास के साथ यह चर्चा भी जुड़ी है कि केंद्र की मोदी सरकार जम्मू संभाग समेत पूरे सूबे के लिए परिसीमन की घोषणा कर सकती है.

गौरतलब है,संसद में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक के पारित होने के बाद फरवरी 2020 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था. इस आयोग को रिपोर्ट सौंपने के लिए एक साल का विस्तार दिया गया था.

हालांकि नए सिरे से परिसीमन होने से राज्य की राजनीति में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का दबदबा खत्म हो जाएगा.

नए परिसीमन से जम्मू-कश्मीर को मिल सकेगा हिंदू सीएम

रिपोर्ट में कहा गया कि परिसीमन आयोग जम्मू-कश्मीर में आबादी के लिहाज से नए सिरे से परिसीमन करेगा. यानी आबादी के हिसाब से नए सिरे से विधानसभा सीटों की संख्या तय की जाएंगी. परिसीमन का मतलब होता है सीमा का निर्धारण.

यानी किसी भी राज्य की लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को तय करने की व्यवस्था को परिसीमन कहते हैं. मुख्यतौर पर ये प्रक्रिया वोटिंग के लिए होती है. लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के निर्धारण के लिए संविधान के अनुच्छेद 82 के तहत केंद्र सरकार द्वारा हर जनगणना के बाद परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है. ऐसे में अब अगर ऐसा होता है तो फिर जम्मू क्षेत्र में ज्यादा सीटें हो जाएंगी, जहां हिंदू बहुल आबादी है. ऐसे में जम्मू-कश्मीर को अगला हिंदू मुख्यमंत्री मिल सकेगा.

परिसीमन आयोग का गठन किया था मोदी सरकार ने

जहां तक ​​लोकसभा सीटों का सवाल है, जम्मू-कश्मीर के लिए परिसीमन अन्य राज्यों के साथ हुआ, लेकिन विधानसभा सीटों का सीमांकन उस अलग संविधान के अनुसार किया गया, जो जम्मू-कश्मीर को अपनी विशेष स्थिति के आधार पर मिला था.

हालांकि अनुच्छेद 370 जिसने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया था, अब निरस्त हो गया है. इस लिहाज से नए सिरे से परिसीमन का रास्ता साफ हो चुका है. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सीटों में कोई परिसीमन नहीं हुआ था, जब 2002 और 2008 के बीच देश भर में अंतिम परिसीमन हुआ था. जम्मू-कश्मीर का अपना विशेष दर्जा खोने और केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद, संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से बनाने के लिए एक परिसीमन आयोग का गठन किया गया था.

भौगोलिक बंटवारा

रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू और कश्मीर के भौगोलिक नक्शे के मुताबिक राज्य का 58 प्रतिशत भू-भाग लद्दाख है. बौद्ध बहुल इस क्षेत्र में आतंकवाद का कोई नामलेवा नहीं है. इसके बाद राज्य में 26 प्रतिशत भू-भाग जम्मू का है, जो कि हिंदू बहुल है. यहां भी आतंकवाद की भागीदारी इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ दें तो लगभग शून्य ही है.

अब बचती है कश्मीर घाटी, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी हिस्सा है. यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र है. इस भौगोलिक नक्शे के अनुसार यदि जम्मू और लद्दाख को मिला दिया जाए तो जम्मू-कश्मीर का 84 प्रतिशत क्षेत्र हिंदू और बौद्ध बहुल हो जाता है. इस आधार पर महज 16 प्रतिशत क्षेत्र ही मुस्लिम बहुल बचेगा. यहां यह गौर करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि 84 फीसद हिंदू-बौद्ध आबादी होने के बावजूद राज्य की राजनीति पर अब तक 16 प्रतिशत यानी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं का ही कब्जा है. अगर देखें तो आतंकवाद प्रभावित घाटी में 10 जिले आते हैं.

इनमें से 4 जिले ही ऐसे हैं, जहां अलगाववादी और आतंकवादी काफी सक्रिय हैं. ये जिले हैं शोपियां, पुलवामा, कुलगांव और अनंतनाग. अगर इन चार जिलों को अलग कर दिया जाए तो संपूर्ण घाटी और जम्मू आतंकवाद और अलगाववाद से मुक्त है. हालांकि मुस्लिम वर्चस्व वाली राजनीति से लगता यही है कि पूरा का पूरा जम्मू-कश्मीर राज्य आतंकवाद से ग्रस्त है.

जनसंख्या में राजनीतिक भेदभाव

न्यूज नेशन की रिपोर्ट कहती है, जनसंख्या गणना 2011 के मुताबिक जम्मू-कश्मीर की कुल जनसंख्या 1.25 करोड़ है. 2001 में हुई जनगणना के लिहाज से दस सालों में 24 लाख की आबादी बढ़ी है. 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य में 12,541,302 की कुल जनसंख्या में 6,640,662 पुरुष और 5,900,640 महिलाएं हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में कश्मीर घाटी और जम्मू के बीच मतदाताओं की संख्‍या में कुछ लाख का ही फर्क था. गौर करने वाली बात यह है कि कश्मीर और लद्दाख को मिलाकर जब जम्मू में ज्यादा वोटर थे तो फिर भी कश्मीर के हिस्से में ज्यादा विधानसभा सीटें क्यों हैं?

दरअसल, परिसीमन का आधार ही जनसंख्‍या होता है. ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्र में ज्यादा विधानसभा सीटें होना चाहिए थीं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में ऐसा नहीं है. संविधान में प्रत्येक 10 वर्ष में परिसीमन का प्रावधान है, लेकिन राजनीति के चलते इस राज्य में ऐसा हो नहीं सका. यही वजह है कि राज्य की राजनीति में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार ही बारी-बारी काबिज होती आई है.

बहुमत का सरलीकरण

जम्मू और कश्मीर में कुल 111 विधानसभा सीटें हैं. फिर भी विधानसभा में कुल 87 सीटों पर चुनाव होता है, जिसमें से 46 सीटें कश्मीर में, 37 सीटें जम्मू में और 4 सीटें लद्दाख में हैं. 24 सीटें वह हैं जो पाक अधिकृत जम्मू और कश्मीर में हैं, जहां चुनाव नहीं होता है. वर्तमान में 87 विधानसभा सीटों में से बहुमत के लिए 44 सीटों की जरूरत होती है.

कश्मीर में 46 सीटें हैं जहां से ही बहुमत पूर्ण हो जाता है. संविधान के अनुच्छेद 47 के मुताबिक 24 सीटें खाली रखी जाती हैं. जम्मूवासी चाहते हैं कि ये 24 सीटें जम्मू में जोड़ दी जाएं. गौरतलब है कि 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी यहां से कुल 37 में से 25 सीटें जीत चुकी है.

शेख अब्दुल्ला की राजनीति

1947 में जन्मू और कश्मीर का भारत में कानूनी रूप से विलय हुआ था. उस समय जम्मू और कश्मीर में महाराजा हरिसिंह का शासन था. दूसरी ओर कश्मीर घाटी में मुस्लिमों के बीच उस वक्त शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता थी, जबकि महाराजा हरिसिंह की जम्मू और लद्दाख में लोकप्रियता थी.

इसके बावजूद शेख अब्दुल्ला को जवाहरलाल नेहरू का वरदहस्त प्राप्त होने से पंडित नेहरू ने राजा हरिसिंह की जगह शेख अब्दुल्ला को जम्मू और कश्मीर का प्रधानमंत्री बना दिया. प्रधानमंत्री बनने के बाद 1948 में शेख अब्दुल्ला ने राजा हरिसिंह की शक्तियों को समाप्त कर दिया. इसके बाद मनमानी करते हुए शेख अब्दुल्ला ने 1951 में जम्मू और कश्मीर विधानसभा गठन की प्रक्रिया शुरू होते ही कश्मीर घाटी को 43 विधानसभा सीटें, जम्मू को 30 विधानसभा सीटें और लद्दाख को सिर्फ 2 विधानसभा सीटें दीं.

इस तरह से जनसंख्या में अनुपात ज्यादा होने के बावजूद कश्मीर को जम्मू से 13 विधानसभा सीटें ज्यादा मिली. 1995 तक जम्मू और कश्मीर में यही स्थिति रही.

राजनीति में कश्मीर का दबदबा

रिपोर्ट के अनुसार, 1993 में जम्मू और कश्मीर के परि‍सीमन के लिए एक आयोग गठित किया गया. 1995 में परिसीमन की रिपोर्ट को लागू किया गया. पहले जम्मू और कश्मीर की विधानसभा में कुल 75 सीटें हुआ करती थीं, लेकिन परिसीमन के बाद 12 सीटें और बढ़ा दी गईं. इस तरह अब विधानसभा में कुल मिलकर 87 सीटें हो गईं.

इनमें कश्मीर के खाते में 46, जम्मू के खाते में 37 और लद्दाख के खाते में 4 सीटें आईं. तब भी कश्मीर घाटी को जम्मू से ज्यादा सीटें मिलीं. इस तरह देखा जाए तो जम्मू और कश्मीर की राजनीति में आज तक कश्मीर का ही दबदबा बना हुआ है. विधानसभा में कश्मीर की विधानसभा सीटें जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं. ऐसे में सरकार कश्मीर से और कश्मीर की ही बनती है जम्मू से या जम्मू की नहीं.

सरल शब्दों में कहें तो जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद (महबूबा मुफ्ती) के परिवार का ही दबदबा है. दोनों परिवार बारी-बारी जम्मू और कश्मीर पर विधानसभा के इसी गणित के आधार पर राज करते रहे हैं. इस राज को आगे भी जारी रखने के लिए ये दोनों ही परिवार नहीं चाहते थे कि कभी परिसीमन हो. इसीलिए दोनों ही दस वर्ष में राज्य में परिसीमन कराने के प्रावधान को टालते आए हैं.

अब्दुल्ला सरकार की साजिश

एक खतरनाक साजिश के तहत 2002 में नेशनल कांफ्रेंस की अब्दुल्ला सरकार ने विधानसभा में एक कानून लाकर परिसीमन को वर्ष 2026 तक रोक दिया. इसके लिए अब्दुल्ला सरकार ने जम्मू एंड कश्मीर रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1957 और जम्मू और कश्मीर के संविधान के सेक्शन 42 (3) में बदलाव किया था.

सेक्शन 42 (3) के बदलाव के तहत 2026 के बाद जब तक जनसंख्या के सही आंकड़े सामने नहीं आते तब तक विधानसभा की सीटों में बदलाव करने पर रोक रहेगी. वर्ष 2026 के बाद जनगणना के आंकड़े वर्ष 2031 में आएंगे. इस लिहाज से देखें तो जम्मू और कश्मीर की विधानसभा के विधेयक के अनुसार 2031 तक परिसीमन टल चुका है. परिसीमन में सबसे बड़ी रुकावट फारूक अब्दुल्ला सरकार का यह विधेयक ही है. इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिसे खारिज कर दिया गया.

बीजेपी की है यह सोच

इसीलिए बीजेपी परिसीमन की बात करती है. हालिया स्थिति में विधानसभा में जम्मू की भागीदारी कम होने से जम्मू और लद्दाख के हितों को ताक में रख दिया जाता है. जो भी नियम, कानून या योजना बनती है वह कश्मीर की जनता के लिए बनती है और ऐसे में जम्मू की आवाज को सुनने वाला कोई नहीं है.

अब यदि नया परिसीमन होता है तो जम्मू और लद्दाख की विधानसभा सीटें बढ़ जाएंगी और अगर ये बढ़ गईं तो विधानसभा में जम्मू और लद्दाख का भी वर्चस्व रहेगा. ऐसे में अब्दुल्ला और मुफ्‍ती परिवार की राजनीति लगभग खत्म हो जाएगी. साथ ही अलगाववादी शक्तियां भी कमजोर हो जाएंगी और जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रवादी शक्तियां बढ़ जाएंगी.

इस सच्चाई को समझते हुए भी महबूबा मुफ्ती या फारुक-उमर अब्दुल्ला परिसीमन का विरोध कर रहे हैं. इसके विपरीत बीजेपी परिसीमन करा विधानसभा सीटों के आधार पर इन दोनों ही परिवारों को जम्मू-कश्मीर की राजनीति में हाशिये पर धकेल देना चाहती है.