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TheKashmirFiles : कश्मीरी पंडितों से कहीं अधिक दर्द भरी कहानी है नक्सलवाद के शिकार लोगों की

मुस्लिम नाउ स्पेशल, नई दिल्ली

बेशक हिंसा, नरसंहार, दुष्कर्म, विस्थापन, देशद्रोह किसी भी देश के लिए बड़ी समस्या है. कश्मीरी पंडितों ने यह सब कुछ सहा और आज इसपर इसलिए आंसू बहाने का समय है, क्यों कि एक फिल्मकार ने ‘ द कश्मीर फाइल्स’ नाम से फिल्म बनाकर उनके जख्मो को कुरेदने की कोशिश की है. शुक्रवार को सिनेमाघरों में आई फिल्म को लेकर इस वक्त सोशल मीडिया पर अनेक ऐसे वीडियो तैर रहे हैं, जिसमें कश्मीरी पंडित रोते-बिलखते नजर आते हैं. यहां तक कि कश्मीरी पंडितों द्वारा फिल्म बनाने वालों के हाथ-मुंह चूमते भी कई वीडियो वायरल हो रहा हैं.

इसमें दो राय नहीं कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ हुआ बुरा हुआ, मगर उनके साथ अच्छी स्थिति है कि केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार उन्हें बसाने के लिए कई तरह की कल्याणकारी योजनाओं पर अमल कर रही है. यही नहीं आतंकवाद से प्रताड़ित होकर उनके घरांे से विस्थापित किए गए कश्मीरी पंडितांे को देश के दूसरे हिस्से में भी सरकारें नौकरी से लेकर कई तरह की सहूलियतें मुहैया करा रही हैं. सबसे बड़ी बात है कि अब उनके साथ विस्थापन जैसी कोई समस्या नहीं है. यहां तक कि पिछले दो वर्षों में कश्मीरी पंडितों से कहीं ज्यादा वहां के मुसलमान आतंकवादियों के हाथों मारे गए हैं. केंद्र सरकार के दावों पर यकीन करें तो अनुच्छेद 370 हटाने के बाद आतंकवाद और आतंकवादियों से कश्मीर को मुक्त कर लिया गया है. उनके तमाम बड़े मारे गए हैं.

दूसरी तरफ कश्मीरी पंडितों से कहीं अधिक मुसीबत झेल रहे हैं नक्सलवाद से प्रभावित लोग. आज भी देश के तकरीबन 90 जिले नक्सलवाद प्रभावित हैं. नक्सलवादियों के हाथों पिछले तीन दशकों में कई लाख लोग बेघर हुए. लाखों एकड़ जमीन जमींदारों से छीन ली गई और हजारों की संख्या में देश के सुरक्षा में लगे जवान और पुलिस कर्मी शहीद हुए हैं. नक्सलियों के मौत का तांडव कम जरूर हुआ है, पर थमा नहीं है. इसके बावजूद न तो नक्सवाल के कारण उजड़े लोगों को कमशमीर पंडितों की तरह उनकी जगह बसाने की कोशिशें की जा रही हैं और न ही ऐसे लोगों के लिए अलग से कोई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं. दुखद यह भी है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र से कई बाॅलीवुड स्टार और इसमें काम करने वाले आते हैं, पर आज तक ‘ द नक्सलिज्म फाल्स’ टाइप फिल्म बनाने कोई आगे नहीं आया. बिहार के डुमरिया इलाके से बॉलीवुड और भोजपुरी फिल्मों में काम करने वाले अली खान भी नक्सलियों के कारण विस्थापित होने वालों में से एक हैं, पर उन्हांेने भी कश्मीर फाइल्स जैसी मूवी बनाने की कोशिश नहीं की है.

मूवी रिव्यूः अनुपम खेर की भावपूर्ण अदाकारी

फिल्म की बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया जाए तो इसमें वास्तविक दर्द की झलकियां देखी जा सकती हैं. अनुपम खेर द्वारा निभाया गया पुष्कर नाथ का चरित्र अदाकारी के लिहाज से बेजोड़ है. यह फिल्म वर्तमान सरकार के पसंदीदा प्रवचन को मजबूत करने के साथ,  विस्थापित पंडितों के दुःख को दूर करने में सफल रहा है.कश्मीर की त्रासदी की जड़ें बहुत गहरी हैं. मूवी में दशकों से चली आ रही हिंसा के अंतहीन चक्रों, अलगाववाद की लहरों, पाकिस्तान द्वारा वित्त पोषित आतंकवादी संगठनों की घुसपैठ, और लोगों के बीच बढ़ते असंतोष को गहराई से दिखाने की कोशिश की गई है.
विवेक रंजन अग्निहोत्री की ‘द कश्मीर फाइल्स‘ इस कथा को विस्तार देती है. शुरुआत से ही, हम जानते हैं कि फिल्म की सहानुभूति किस तरफ है, जहां तक ‘द कश्मीर फाइल्स‘ का सवाल है, यह ‘पलायन‘ नहीं था, यह एक ‘नरसंहार‘ था, जिसमें हजारों कश्मीरी हिंदुओं का कत्लेआम किया गया था. महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था. बच्चों को गोली मारी गई थी. आज भी वो परिवार शरणार्थियों की तरह रहते हैं.

फिल्म का भावनात्मक केंद्र पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) है, जो एक शिक्षक है. उसके बेटे की बेरहमी से हत्या के बाद उसके श्रीनगर घर से निकाल दिया जाता है. तीस साल बाद, उसके पोते कृष्ण (दर्शन कुमार) पुष्कर नाथ की राख  लेकर श्रीनगर वापस आता है, और अपने दादा के सबसे करीबी दोस्तों (मिथुन चक्रवर्ती, पुनीत इस्सर, अतुल श्रीवास्तव) से मिलता है. फिल्म में एक दाढ़ी वाले इस्लामिक आतंकवादी को दिखाया गया है, जिसका दिल्ली के विश्वविद्यालयों के कुछ संदिग्ध लोगों से संबंध है. ‘वामपंथी‘ प्रोफेसर (पल्लवी जोशी) ‘आजादी‘ के नारे लगाने वाले छात्रों का ‘ब्रेनवॉश‘ करती है. एक पागल टीवी पत्रकार की भूमिका निभाई है अतुल कुलकर्णी ने. फिल्म में दिखाया गया है कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद भी लोग कैसे मारे जा रहे हैं, और आज ‘वादी‘ के बारे में क्या कहा जाता है. ‘द कश्मीर फाइल्स‘ में भयानक ज्यादतियां दिखाई गई है. यह अंगारों को उकसाने वाली मूवी है.

कश्मीर में पंडितों का क्या है मामला

19 जनवरी 1990 की सर्द सुबह थी. कश्मीर की मस्जिदों से उस रोज अजान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूंजे. ‘यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा‘, ‘कश्‍मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है‘ और ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान‘ मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना. यह संदेश था कश्मीर में रहने वाले हिंदू पंडितों के लिए. ऐसी धमकियां उन्हें पिछले कुछ महीनों से मिल रही थीं.

सैकड़ों हिंदू घरों में उस दिन बेचैनी थी. सड़कों पर इस्‍लाम और पाकिस्‍तान की शान में तकरीरें हो रही थीं. हिंदुओं के खिलाफ जहर उगला जा रहा था. वो रात बड़ी भारी गुजरी, सामान बांधते-बांधते. पुश्‍तैनी घरों को छोड़कर कश्‍मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन का फैसला किया.

हिंदुओं के घरों का नामोनिशान तक मिटा दिया गया

उस रात घाटी से पंडितों का पहला जत्था निकला. मार्च और अप्रैल के दरम्यान हजारों परिवार घाटी से भागकर भारत के अन्य इलाकों में शरण लेने को मजबूर हुए. अगले कुछ महीनों में खाली पड़े घरों को जलाकर खाक कर दिया. जो घर मुस्लिम आबादी के पास थे, उन्‍हें बड़ी सावधानी से बर्बाद कर दिया गया. कश्‍मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75,343 परिवार थे. 1990 और 1992 के बीच 70,000 से ज्‍यादा परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया. एक अनुमान है कि आतंकियों ने 1990 से 2011 के बीच 399 कश्‍मीरी पंडितों की हत्‍या की. पिछले 30 सालों के दौरान घाटी में बमुश्किल 800 हिंदू परिवार बचे हैं.

अगर आंकड़ों से कश्‍मीरी पंडितों का दर्द बयां हो पाता तो समझि‍ए. 20वीं सदी की शुरुआत में लगभग 10 लाख कश्मीरी पंडित थे. आज की तारीख में 9,000 से ज्यादा नहीं हैं. 1941 में कश्मीरी हिंदुओं का आबादी में हिस्सा 15 प्रतिशत था. 1991 तक उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 0.1 प्रतिशत रह गई थी. जब किसी समुदाय की आबादी 10 लाख से घटकर 10 हजार से भी कम रह जाए तो उसके लिए एक ही शब्‍द है: नरसंहार.

पहले से ही धधकने लगी थी आग

हिंदुओं की हत्‍या का सिलसिला 1989 से ही शुरू हो चुका था. सबसे पहले पंडित टीका लाल टपलू की हत्या की गई. श्रीनगर में सरेआम टपलू को गोलियों से भून दिया गया. वह कश्‍मीरी पंडितों के बड़े नेता थे. आरोप जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकियों पर लगा मगर कभी किसी के खिलाफ मुकदमा नहीं हुआ. चार महीने बाद, 4 जनवरी 1990 को श्रीनगर से छपने वाले एक उर्दू अखबार में हिजबुल मुजाहिदीन का एक बयान छपा. हिंदुओं को घाटी छोड़ने के लिए कह दिया गया था. इस वक्त तक घाटी का माहौल बेहद खराब हो चुका था. हिंदुओं के खिलाफ भड़काऊ भाषणों की भरमार थी. उन्हें धमकियां दी जा रही थीं जो किसी खौफनाक सपने की तरह सच साबित हुईं.

पाकिस्‍तान का वक्‍त बताने लगी थीं हिंदू घरों की घड़‍ियां

दीवारों पर पोस्‍टर्स लगाए गए कि हिंदुओं कश्‍मीर छोड़ दो. हिंदू घरों पर लाल घेरा बनाया गया. उसके बाद श्रीनगर के कई इलाकों में हिंदुओं के मकान आग के हवाले कर दिए गए. हिंदू महिलाओं को तिलक लगाने पर मजबूर किया गया. उनके साथ ब्‍लात्‍कार की वारदातें आम हो गई थी. कलाशनिकोव (एके-47) लिए उपद्रवी किसी भी घर में घुस जाते और लूटपाट व अत्याचार करते. घड़ि‍यों को पाकिस्‍तान स्‍टैंडर्ड टाइम के हिसाब से सेट करवाया जाता. स्थानीय सरकार पंगु थी.

आज भी घाटी के कश्मीरी पंडित सुरक्षित नहीं

पिछले 31 साल में कश्‍मीरी पंडितों को वापस घाटी में बसाने की कई कोशिशें हुईं, मगर नतीजा सिफर रहा. 92 के बाद हालात और खराब होते गए.हिंदुओं को भी इस बात का अहसास है कि घाटी अब पहले जैसी नहीं रही. 5 अगस्त, 2019 को जब भारत सरकार ने जम्‍मू और कश्‍मीर का विशेष दर्जा खत्म किया तो कश्‍मीरी पंडित बेहद खुश थे. मगर उनकी वापसी के अरमान अब भी अरमान ही है.
कश्‍मीरी हिंदू न 1990 में घाटी के भीतर सुरक्षित थे, न आज हैं. पिछले कुछ दिनों में आतंकवादियों ने हिंदुओं और सिखों को निशाना बनाया है. श्रीनगर में एक सरकारी स्‍कूल के दो टीचर्स की हत्‍या कर दी गई.  आतंकियों ने एक स्‍ट्रीट हॉकर केा मार डाला. उसी दिन श्रीनगर में एक कारोबारी, माखनलाल बिंद्रू को गोलियों से भून दिया गया.

जानें लाल आतंक की कहानी और कुछ बड़े नक्सली हमले के बारे में

पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ नक्‍सलवाद देश के 11 राज्‍यों के 90 जिलों में फैल गया है.केंद्र और राज्‍य सरकारों के प्रयासों की वजह से पिछले सात सालों में देशभर में जवानों की शहादत में काफी कमी आई है, लेकिन अभी भी दंतेवाड़ा और गढ़चिरौली दो ऐसी जगहें हैं जो नक्‍सलियों का गढ़ बनी हुई हैं. उधर, सरकार ने संकल्‍प लिया है कि वर्ष 2023 तक ‘भारत से नक्‍सलियों का खात्‍मा‘ कर दिया जाएगा. आइए जानते हैं कि कब-कब देश में बड़े नक्‍सली हमले हुए….

देश में अब तक हुए बड़े नक्सली हमले

देश के 11 राज्‍यों छत्तीसगढ़, महाराष्‍ट्र, मध्‍य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, उत्‍तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के 90 जिलों में नक्‍सलियों का ‘रेड कॉरिडोर‘ फैला हुआ है. इन जिलों में इससे पहले भी कई बार नक्सलियों ने सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाया है.

4 अप्रैल 2019: 4 अप्रैल को बस्तर में नक्सलियों ने चार बीएसएफ जवानों की हत्या कर दी. नौ अप्रैल को दंतेवाड़ा में बीजेपी विधायक भीमा मंडावी और चार पुलिसकर्मियों की हत्‍या कर दी गई. एक मई को गढ़चिरौली में बुधवार को नक्सलियों के घात लगाकर किए गए हमले में 15 जवान शहीद हो गए.

13 मार्च 2018: छत्‍तीसगढ़ के सुकमा जिले में सीआरपीएफ की 212वीं बटालियन के जवानों पर हमला हुआ था. लगाकर किए गए इस नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 9 जवान शहीद हुए थे. मई 2018 में छत्‍तीसगढ़ आर्म्‍ड फोर्स के सात जवान दंतेवाड़ा में मारे गए. जून 2018 झारखंड जगुआर फोर्स के छह जवान शहीद हो गए. जुलाई 2018 में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में बीएसएफ के जवानों पर हमला किया था, इस हमले में बीएसएफ के 2 जवान शहीद हुए थे. 23 सितंबर 2018 को टीडीपी एमएलए किदारी सर्वेश्वर राव और पूर्व विधायक सिवेरी की विशाखापट्टनम में नक्सलियों ने गोली मारकर हत्या कर दी. 30 अक्‍टूबर को दंतेवाड़ा में दूरदर्शन के एक कैमरामैन और दो पुलिसकर्मियों की हत्‍या कर दी गई.

25 मई 2013: छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में एक हजार से ज्यादा नक्सलियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर दिया.इस हादसे में कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा और नंदकुमार पटेल समेत 25 लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए.

6 अप्रैल 2010:दंतेवाड़ा जिले के चिंतलनार जंगल में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 75 जवानों सहित 76 लोगों की हत्या कर दी.

4 अप्रैल 2010:ओडिशा के कोरापुट जिले में पुलिस की एक बस पर हमला, विशेष कार्य दल के 10 जवान मरे, 16 घायल.

23 मार्च 2010: बिहार के गया जिले में रेलवे लाइन पर विस्फोट करके भुवनेश्वर-नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस को पटरी से उतारा. इसी दिन ओडिशा की रेलवे पटरी पर हमला करके हावड़ा-मुंबई लाइन क्षतिग्रस्त की.

15 फरवरी 2010: पश्चिम बंगाल के सिल्दा में करीब 100 नक्सलियों ने पुलिस कैंप पर हमला करके 24 जवानों की हत्या की, हथियार लूटे.

8 अक्टूबर 2009: महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में लाहिड़ी पुलिस थाने पर हमला करके 17 पुलिसवालों की हत्या की.

हर साल जारी है हिंसा

अगर नक्‍सली हमले में लोगों के हताहत होने के आंकड़े की बात करें तो वर्ष 2010 में 1194 लोग मारे गए. वर्ष 2011 में 606 लोग मारे गए. इसी तरह से वर्ष 2012 में 374, वर्ष 2013 418, वर्ष 2014 में 349, वर्ष 2015 में 255, वर्ष 2016 में 432, वर्ष 2017 में 335, वर्ष 2018 में 412, वर्ष 2019 में अब तक 92 लोग मारे जा चुके हैं. मारे गए लोगों आम नागरिक, सुरक्षाकर्मी और नक्सली शामिल हैं. वहीं अगर गढ़चिरौली की बात करें तो वर्ष 2010 में 43, वर्ष 2011 में 65, वर्ष 2012 में 36, वर्ष 2013 में 43, वर्ष 2014 में 30, वर्ष 2015 में 16, वर्ष 2016 में 22, वर्ष 2017 में 24, 2018 में 58 जवान शहीद हो गए हैं. 2019 में अब तक 20 लोग हिंसा में मारे गए हैं.

नक्सली इलाके में कश्मीर से भी बुरी हालत

आज भी नक्सल प्रभावित इलाके में कोई आसानी से आ-जा नहीं सकता. लूट, घरों को बम से उड़ाने की हजारों कहानियां इन इलाकों में तैर रही हैं. एक जमाने में बिहार नक्सलियों एवं इनका जवाब देने के लिए खड़ी की गई निजी सेनाओं के भिड़ंत में अनेक सामूहिक नरसंहार हुए थे. नक्सली जमींदारों के हाथ, पैर, नाक, कान यहां तक कि गर्दन तक काट देते थे. बलात्कार और लेवी वसूलने जैसी कहानियां नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भरी पड़ी हैं. कई परिवारों की महिलाएं नक्सलियों के डर से उनकी टोली में शामिल हो गईं. मगर कोई नक्सलियों के कारण उजड़े लोगों की उस तरह आज तक नहीं सुनी गई, जैसे  कश्मीरी पंडितांे की सुनी जाती है. वैसे इसमें दो राय नहीं कि कश्मीर के मामले में कश्मीर पंडित चाहे देश-विदेश के किसी भी कोने में क्यों न हों, संपर्क में अवश्य रहते हैं. कश्मीर से जुड़ा कोई भी मामला सामने आता है, एक सुर में सभी बोल पड़ते हैं. द कश्मीर फाइल्स की उनके बीच खूब मौखिक ब्रांडिंग हुई है.