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मरती सहाफ़त के दौर में ज़फर साहब का चले जाना

-सेराज अनवर

फ़ारूक़ी तंज़ीम के मालिक,सम्पादक एमए ज़फर का इंतेक़ाल एक ऐसे दौर में हुआ है जब उर्दू सहाफ़त अपना लाजवाब रौशन तारीख़ को बरक़रार रखने के संघर्षों से गुज़र रहा है.ज़फर भैया को आज मैं इसलिए भी याद कर रहा हूं कि मालिक बहुत देखें मगर जुर्रत वाला सहाफ़ी,सम्पादक,मालिक कम देखने को मिला.हमारी सहाफ़त की शुरुआत फ़ारूक़ी तंज़ीम से हुई.तब इसका प्रकाशन रांची से था.झारखंड से पहला उर्दू अख़बार निकालने का श्रेय ज़फर साहब को ही जाता है.झारखंड में उर्दू की रवानी बिहार जैसी नहीं है.अख़बार निकालना मुश्किल डगर था.पत्रकारिता रिस्क का ही काम है.

ज़फर भैया ने यह रिस्क उठाया.उनके सफल प्रयास के बाद झारखंड से आज दर्जनों उर्दू अख़बार प्रकाशित हो रहे हैं.जिसको देखो,झारखंड की तरफ़ भाग रहा है.जिस वक़्त ज़फर भाई ने उर्दू सहाफ़त को झारखंड की पथरीली ज़मीन पर सींचने का बीड़ा उठाया उस समय इतने संसाधन नहीं थे.उर्दू के सहाफ़ी नहीं मिलते थे.उन्होंने एक-एक कर सबको जोड़ा,मज़बूत टीम बनायी और फ़ारूक़ी तंज़ीम को खड़ा कर दिया.सहाफत को इस तरह गढ़ा की झारखंड मतलब फ़ारूक़ी तंज़ीम हो गया.स्वतंत्र पत्रकारिता को उन्होंने आयाम दिया.न झुके,न डरे.एडिटोरीयल में दख़ल नहीं था.आज़ादी से लिखने की छूट थी.पहचान बनी,मांग बढ़ी तो बिहार से भी फ़ारूक़ी तंज़ीम निकलने लगा.कम दिनों में ही बिहार में भी अख़बार ने अपनी गिरफ़्त बना ली.मुझे फ़ख़्र है कि डेढ़ दशक तक एक ऐसे अख़बार(फ़ारूक़ी तंज़ीम)का रेज़िडेंट एडिटर रहा,जहां अपनी सहाफ़त को धार देने में कोई रुकावट नहीं रही.मेरा स्तम्भ’मदाख़लत’काफी मशहूर हुआ.लोग चाव लेकर पढ़ते थे.कई बार सरकार की खिंचाई कर ज़फर भैया को आज़माईश में भी डाल दिया.कभी नाराज़ नहीं हुए.रोका नहीं.कई बार मुश्किल में भी हम पड़े,साथ खड़े रहे.

एक सच्चा सम्पादक और सहाफ़ी के बतौर.मेरी लेखनी चुभने वाले लोग मुझे हटाना भी चाहते थे,ज़फर साहब अपने स्टाफ़ के साथ देने वालों में से थे.आज जब उर्दू सहाफ़त की जर्जर हालत देखता हूं तो ज़फर साहब शिद्दत से याद आते हैं.वह उर्दू सहाफ़त के नगीना थे.उनके बेगैर मेरे जैसा बिगड़ैल सहाफ़ी को आज़ादी मुमकिन नहीं थी. आज जब मुस्लिम मसअला शासकीय और संघी दबाव में अख़बारों में दम तोड़ रहा है.मदरसा अज़ीज़िया को ख़ाक करने की ख़बर को उर्दू अख़बारों में कितनी जगह मिली?इसलिए भी ज़फर साहब को तहे दिल से खिराज ए अक़ीदत कि उन्होंने सहाफ़त को सिर्फ तिजारत नहीं बनाया.कोई कोई ख़बर को लेकर लाखों का नुक़सान भी सहना पड़ा.कुछ डांट-डपट के बाद सच्ची सहाफ़त फिर दौड़ पड़ती थी.सहाफ़ियों की इज़्ज़त करते थे.

एमए ज़फर के पिता मौलाना फारूक़ उल हुसैनी बिहार जमियतुल उलेमा के संस्थापक थे.अपने लहू ए जिगर से उन्होंने जमियत को सींचा था.मौलाना महमूद मदनी के पिता मौलाना असद मदनी के समकालीन थे.जंग ए आज़ादी में उनकी अहम भूमिका थी.पहला उर्दू अख़बार उन्होंने हेमाला के नाम से निकाला था.बोधगया मठ के ख़िलाफ़ आंदोलन में भी उनको महत्वपूर्ण भूमिका थी.ज़फर साहब की उम्र 13 साल की उम्र की रही होगी की पिता इंतेक़ाल कर गए.

अख़बार सम्भालने की ज़िम्मेदार ज़फर साहब पर आ गयी.सबसे कम उम्र के सम्पादक हुए.उन्होंने फ़ारूक़ी तंज़ीम की स्थापना की.यह अख़बार पहले झारखंड से प्रकाशित हुआ.फिर पटना से भी छपने लगा.उर्दू अख़बारों में फ़ारूक़ी तंज़ीम का तेवर सबसे अलग रहा.ज़फर साहब स्वतंत्र पत्रकारिता के पक्षधर थे.मेरा फ़ारूक़ी तंज़ीम छोड़ते वक़्त वह दुःखी हो गये.उनके मशविरा से ही मैंने समय मंथन(मंथन मीडिया)की स्थापना की.उनसे रिश्ता कभी कमज़ोर नहीं हुआ.जब भी ज़रूरत हुई,एक कॉल पर हाज़िर हुआ.आज जब उर्दू पत्रकारिता अपना वक़ार खो रहा है,ऐसे में ज़फर साहब का जाना अफसोसनाक है.उर्दू सहाफत को नयी दिशा,सहाफ़ियों को लिखने की आज़ादी देने केलिए ज़फर भैया को आख़री सलाम.उर्दू सहाफ़त की आबरू बचाने के सदक़े अल्लाह आपको करवट-करवट जन्नत नसीब करे.आज रात साढ़े दस बजे रांची के डुरंडा क़ब्रिस्तान में दफ़नाये जायेंगे.
-समय मंथन