क्या समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास देश के लिए बड़ी समस्या पैदा करेगा ? सरकार के विरोध में गोलबंद होने लगे मुस्लिम संगठन
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
मुस्लिम संगठनों के रूख को देखकर यह सवाल गरमागरम बहस का मुद्दा बना हुआ है कि क्या केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार का नागरिक संहिता लागू का प्रयास देश के लिए बड़ी समस्या पैदा कर सकता है ? यह सवाल इस लिए भी अहम है कि सरकार के इसके प्रति दिलचस्पी दिखाने के साथ ही विरोध में तमाम मुस्लिम संगठन और उलेमा खड़े होने लगे हैं. यहां तक कि एक ही पिच में उनके बयान भी आने शुरू हो गए हैं.
इसी क्रम मंे मीडिया को दिए इंटरव्यू में उत्तर प्रदेश के मुस्लिम नेता खालिद रशीद फरंगी महली ने कहा, समान नागरिक संहिता किसी के हक में बेहतर नहीं है.उन्हें इसे लागू करने के प्रयासों की आलोचना करते हुए कहा कि यह सही नहीं है. यह मुसलमानों की समस्या नहीं है, यह सभी धर्मों से जुड़ा मामला है. हम इसका विरोध करते हैं.
इस मसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि बोर्ड समान नागरिक संहिता को अनावश्यक, अव्यवहारिक और देश के लिए बेहद हानिकारक मानता है.
सरकार से मांग की जाती है कि वह इस अनावश्यक काम में देश के संसाधनों को बर्बाद करना बंद करे. बोर्ड के प्रवक्ता डॉ. सैयद कासिम रसूल इलियास ने एक प्रेस बयान में कहा कि हमारा देश एक बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी देश है. विविधता इसकी विशेषता है. इसी नाजुकता और विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए देश के संविधान निर्माताओं ने धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 26, 25) के रूप में संरक्षित किया है. इसके अलावा, संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) और 371 (जी) उत्तर-पूर्वी राज्यों के आदिवासियों को गारंटी देते हैं कि संसद उन्हें उनके पारिवारिक कानूनों से वंचित करने वाला कोई कानून नहीं बनाएगी.
बोर्ड यह स्पष्ट करना भी जरूरी समझता है कि यह कानून शरीयत, कुरान और सुन्नत से लिया गया है, जिसमें मुसलमानों को कोई भी बदलाव करने का अधिकार नहीं है. इसी प्रकार, अन्य धार्मिक और सांस्कृतिक समूह भी अपने पारंपरिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संजोते हैं. सरकार या किसी बाहरी स्रोत द्वारा व्यक्तिगत कानूनों में कोई भी बदलाव समाज में केवल अराजकता और अशांति को जन्म देगा. किसी भी उचित सरकार से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती. जो लोग यह तर्क देते हैं कि यह एक संवैधानिक आवश्यकता है, उनके लिए बोर्ड यह स्पष्ट करना आवश्यक समझता है कि अनुच्छेद 44 भारत के संविधान के दिशानिर्देशों के अध्याय 17 में निहित है जो अनिवार्य नहीं है.
धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की स्थिति एक मौलिक मानव अधिकार है. यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि जो लोग किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून का पालन नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए देश में पहले से ही विशेष विवाह अधिनियम और विरासत अधिनियम के रूप में एक वैकल्पिक नागरिक संहिता मौजूद है. अतः ऐसे में समान नागरिक संहिता की सारी चर्चा अनावश्यक एवं निरर्थक है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुसलमानों के सभी धार्मिक संगठनों से अपील करता है कि वे विधि आयोग की प्रश्नावली का जवाब दें और आयोग को यह स्पष्ट करें कि यह अनावश्यक और हानिकारक भी है. कोई भी मुसलमान अपने मामले में समझौता नहीं कर सकता. बोर्ड देश की सभी धार्मिक और सांस्कृतिक इकाइयों, बुद्धिजीवियों, नागरिक समाज आंदोलनों और धार्मिक नेताओं से अपील करता है कि वे भी विधि आयोग की प्रश्नावली का जवाब दें और देश को इस कानून का पालन करने से रोकें.
इस मसले पर समाजवादी पार्टी के सांसद डॉ. एसटी हसन ने कहा कि समान नागरिक संहिता कानून बीजेपी की चुनावी रणनीति है. बीजेपी समाज में दूरियां बढ़ाने के लिए यह कानून लाना चाहती है, लेकिन हम मुसलमान शरिया कानून का पालन करेंगे. ऐसे कानून को स्वीकार नहीं करेंगे.
अपने बयान में सपा सांसद ने आगे कहा कि आखिर समान नागरिक संहिता कानून लाने की जरूरत क्यों पड़ी. इसका मुख्य कारण 2024 का चुनाव है. बीजेपी ये सब हिंदू और मुसलमानों के बीच दूरियां बढ़ाने के लिए कर रही है. 1400 साल से भी पहले से मुस्लिम शरिया कानून के मुताबिक, लड़कियों को पैतृक संपत्ति में उनका अधिकार दिया जाता है.
एक मुसलमान पवित्र कुरान के आदेश पर शरीयत के अनुसार कार्य करता है. कोई भी मुसलमान इससे समझौता नहीं करेगा. उन्होंने सवाल उठाया कि शरीयत से दूसरे लोगों को क्या दिक्कत है. दूसरी शादी भी मजबूरी में की जाती है. अगर किसी की पत्नी बीमार पड़ जाती है या उसके बच्चे नहीं हो रहे हैं तो ऐसी स्थिति में पहली पत्नी की इजाजत ली जाती है. इसमें एक रहस्य छिपा है.
उन्हांेने कहा कि आजकल सरकार ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दे दी है. क्या यह भारतीय संस्कृति है ? जिसका आदेश कुरान ने दिया है. मुसलमान इसी पर विश्वास करेंगे. इस मामले में किसी मौलाना की सलाह भी काम नहीं आएगी. वक्फ संपत्तियों का यही हाल है. संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में यह भी देखना होता है कि कोई कानून कब बनाया जाता है.
दावा: हर कोई चाहता है सरल कानून, समिति को मिल रहे सुझाव
उधर, उत्तराखंड सरकार ने दावा किया है कि हिंदू हो या मुस्लिम, हर धर्म समुदाय के लोग देश के तलाक कानूनों से आजादी चाहते हैं. सभी धर्मों के लोगों का मानना है कि देश में तलाक की प्रक्रिया बहुत सख्त है. यदि एक पक्ष ऐसा नहीं चाहता है तो दूसरे पक्ष के लिए तलाक लेना लगभग असंभव हो जाता है. ऐसे में लोगों को लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं. कई बार तो इन स्थितियों में और भी खतरनाक नतीजे सामने आते हैं, जहां पति या पत्नी अपने जीवन साथी से छुटकारा पाने के लिए गैरकानूनी हथकंडे तक अपना लेते हैं. संभवतः उनके पास उस स्थिति का परिणाम है कि पुरुष और महिलाएं समान रूप से पति और पत्नी को तलाक के लिए समान अवसर प्रदान करने के लिए देश में एक समान नागरिक संहिता चाहते हैं. समिति को बड़ी संख्या में ऐसे प्रस्ताव मिले हैं, जहां लोग तलाक की कानूनी प्रक्रिया को सरल बनाने की मांग कर रहे हैं.
लोगों ने यूसीसी कमेटी को सुझाव दिया है कि पति-पत्नी के बीच तलाक के मामले में पक्षकारों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए. तलाक के मामले में, पति-पत्नी को अपने बच्चों पर समान अधिकार होना चाहिए. यदि पति-पत्नी के बीच संबंध अब व्यवहार्य स्थिति में नहीं है, तो उन्हें अस्थायी प्रक्रिया के तहत अलग होने का अधिकार दिया जाना चाहिए.
उत्तराखंड सरकार ने राज्य के लिए समान नागरिक संहिता लाने के लिए एक समिति का गठन किया है. सूत्रों के मुताबिक, यूसीसी पर समिति को अब तक करीब 2.5 लाख सुझाव मिल चुके हैं. उत्तराखंड में लगभग 20 लाख परिवार हैं. ऐसा अनुमान है कि राज्य की 10 प्रतिशत से अधिक आबादी ने यूसीसी के लिए अपने सुझाव समिति के साथ साझा किए. प्रत्येक प्रस्ताव अलग-अलग परिवारों से आया था.