इंदिरा गांधी ने वरिष्ठ पत्रकार कुरबान अली पर क्यों दर्ज कराया राजद्रोह का मुकद्दमा ?
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
1983 में वरिष्ठ पत्रकार कुरबान अली पर चल रहा राजद्रोह का मुकद्द्मा आखिरकार दिल्ली हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया. तब कोर्ट ने माना कि प्रधानमंत्री या उनकी सरकार की नीतियों की आलोचना करना राजद्रोह नहीं हो सकता.
हुआ यूं कि तत्तकालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अक्टूबर 1983 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में पहली बार हिन्दू कार्ड खेलते हुए सूबे का माहौल खराब कर दिया. इन चुनावों में इंदिरा गांधी ने राज्य में सांप्रदायिक रूप से आक्रामक चुनावी अभियान चलाया और शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेन्स सरकार द्वारा पारित पुनर्स्थापना बिल के खिलाफ खूब सियासी जहर उगला. इस से जम्मू क्षेत्र में मुस्लिम आक्रमण का हौवा खड़ा हो गया. उस बिल में 1954 से पहले पाकिस्तान चले गए राज्य के निवासियों को राज्य में लौटने, अपनी संपत्तियोंको पुनः प्राप्त करने और पुनर्वास का अधिकार दिया गया था.
इंदिरा गांधी ने इसकी तीखी आलोचना की थी.इन विधानसभा चुनावों में फारुक अब्दुल्ला की पार्टी को 75 में से 46 सीटों पर जीत मिली. 1977 के मुकाबले उसे सिर्फ एक सीट का नुकसान हुआ. इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस को पिछले चुनाव के मुकाबले 15 सीटें ज्यादा मिलीं यानी कुल 26 सीटों पर जीत मिली. इन्हीं चुनावों के दौरान बीबीसी के पूर्व पत्रकार कुरबान अली ने उस वक्त के एक उर्दू साप्ताहिक हुजूम में इंदिरा गांधी की सांप्रदायिकता पर एक लेख लिखा था और बताया था कि कैसे इंदिरा गांधी ने जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के दौरान सांप्रदायिकता फैलाई और धार्मिक आधार पर वोट मांगे. इस आलेख से दिल्ली में बैठी कांग्रेस सरकार और खासकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इतनी नाराज हुईंकि उन्होंने कुरबान अली और हूजूम साप्ताहिक जावेद हबीब के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करवा दिया.
1999 में दिल्ली की एक ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में (कुरबान अली की रिपोर्ट पर) उन्हें और संपादक जावेद हबीब को राजद्रोह का दोषी करार देते हुए तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाइ.इसके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील दायर करके हुजूम सप्ताहिक की ओर से तर्क दिया गया कि प्रधानमंत्री या उनकी सरकार की नीतियों की आलोचना करना राजद्रोह नहीं हो सकता. अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना करने वाला लेख निष्पक्ष था. इससे पहले सत्र अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह लेख जानबूझकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने और कानून द्वारा स्थापित तत्कालीन सरकार के प्रति असंतोष भड़काने के इरादे से लिखा गया था.
हालांकि बाद में, दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस ढींगरा ने लेखक और प्रकाशक के खिलाफ निचली अदालत के फैसले को इस आधार पर खारिज कर दिया कि प्रधानमंत्री या उनके कार्यों के खिलाफ राय रखना या सरकार के कार्यों की आलोचना करना या सरकार में उच्च पदों पर बैठे नेताओं के भाषणों और कार्यों से यह निष्कर्ष निकालना कि वह एक विशेष समुदाय के खिलाफ है और कुछ अन्य राजनीतिक नेताओं से सांठगांठ है, को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है.