चुनाव 2023 : क्या सेक्युलर पार्टियों की हार के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं ?
मुस्लिम नाउ विशेष
तीन राज्यों मध्य प्रदेश, तेलंगाना और राजस्थान के चुनाव में सेक्लुयर पार्टियों को मिली हार के बाद यह साबित हो गया कि इसके लिए वह खुद जिम्मेदार हैं. इनकी नीतियां, सोच और कर्म उन्हें ले डूबे. इसलिए चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारने का अब यह बहाना नहीं चलेगा कि उनकी वजह से हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो जाता है.
भारतीय जनता पार्टी जब तक सियासत में रहेगी और आरएसएस का उसे समर्थन मिलता रहेगा, हर चुनाव में हिंदू-मुसलमान होगा. चुनाव क्या आम दिनों में भी ये वही करते हैं. मिसाल के तौर पर चुनाव परिणाम आते ही राजस्थान के हवा महल सीट से जीतने वाले प्रत्याशी सबसे पहले मुसलमानों के होटल और मीट दुकानें बंद कराने सड़कों पर निकल पड़े. सोशल मीडिया पर चल रहे वीडियो पर यकीन करें तो उनके समर्थकों ने मुसलमानों के साथ खुलेआम गाली गलौज भी की.
बीजेपी है तो यह सब मुमकिन है. ऐसा चलता रहेगा. क्या ऐसे लोगों और ऐसी नीतियों से तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को अपनी नीतियां बदल लेनी चाहिए ? मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता में इसलिए वापसी नहीं हो सकी क्यों कि कमलनाथ ने वहां हिंदू कार्ड खेलना शुरू कर दिया. कांग्रेस ने भी मध्य प्रदेश में मुसलमानों की परवाह नहीं की. तकरीबन आठ प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस प्रदेश से कांग्रेस ने केवल दो मुस्लिम उम्मीदवार उतारे और दोनों ही जीते. 10 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले राजस्थान में कांग्रेस ने 9 मुस्लिम कैंडिटेड दिए जिनमें से पांच ने चुनाव में जीत दर्ज की.
यानी राजस्थान चुनाव में 60 प्रतिशत मुस्लिम उम्मीदवारों ने बेहतर प्रदर्शन किया. इसी तरह तेलंगाना में एआईएमआईएम के 9 उम्मीदवार में से सात जीते हैं. तेलंगाना में मुस्लिम आबाद तकरीबन 13 प्रतिशत है. यानी चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों को कहीं न कहीं दूसरी कौमों का भी समर्थन प्राप्त था. फिर आम मतदाता का ध्रुवीकृत होने का कहां सवाल उठता है ? कांग्रेस तीन राज्यों में कुछ लाख वोटों से बीजेपी से पीछे रही, इसलिए वह सत्ता तक नहीं पहुंच पाई. यानी आपका संगठन, नीति कमजोर है. इसके लिए आप मुसलमानों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते.
सेक्युलर पार्टियों में कार्यकर्ता बनाने और सदस्यता अभियान चलाने का रिवाज ही खत्म हो गया. वाम दलों ने सबसे यह बीमारी आई और सत्ता से दूर हो गई. इसी रास्ते पर तमाम सेक्युलर पार्टियां हैं. ऐन चुनाव के समय उन्हें उम्मीदवार ढूंढने पड़ते हैं. पहले उन्हें तरजीह दी जाती है, जो सिटिंग एमएलए या एमपी और दूसरी पार्टियों से बगावत कर आते हैं. इसके बाद पैराशूट से उम्मीदवार मैदान में उतारा जाता है. यही काम एआईएमआईएम भी करती है. ओवैसी से पूछना चाहिए कि देशभर में सियासत करते घूमने वाले एआईएमआईएम के सदर अपने गढ़ तेलंगाना में अब तक अपना संगठन क्यों नहीं मजबूत कर पाए ?
चुनाव में केवल 9 प्रत्याशी ही क्यों उतारे ? सभी सीटों पर उम्मीदवार क्यों नहीं दिया ? समझौते वाला तर्क नहीं चलेगा. हकीकत यह है कि आपका संगठन आपके गृह प्रदेश में भी मजबूत नहीं है, इसलिए आपको गठबंधन करना पड़ता है. यदि कोई दल पांच या दस साल पहले ही इलाके का उम्मीदवार तय कर जनता की सेवा में लगा दे तो 50 से 75 प्रतिशत तक चुनाव परिणाम उसके हक में जा सकता है. मगर ऐसा कहां होता है. सेक्युलर पार्टियों में नेता तो हैं कार्यकर्ता नहीं हैं . कार्यकर्ता केवल चुनाव के समय सामने आते हैं ताकि पैसों की धार से थोड़ा वे भी स्नान कर लें. ऐसे कोई पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती है या लंबे समय तक टिक नहीं सकती. कांग्रेस और वाम दलों में कभी सदस्यता अभियान की सियासत चलती थी, तब यह पार्टियां सत्ता में रहती थीं. तब बड़ी संख्या में मुसलमान भी हिंदू बहुसंख्या वाली सीटों से चुनाव जीता करते थे.
अभी बीजेपी एकमात्र पार्टी है जिसके यहां संगठन और सदस्यता पर जोर है. चुनाव परिणाम आते ही आने वाले चुनाव की तैयारी में जुट जाती है. परिणाम चाहे जैसा भी हो इसके प्रधान नरेंद्र मोदी बिना इस बात की परवाह किए कि वह किसी सियासी दल के सामान्य लीडर नहीं, देश के प्रधानमंत्री हैं बीजेपी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं से मिलने पहुंच जाते हैं. कांग्रेस के लीडर क्या ऐसा करते हंै. चुनाव परिणाम चाहे उसके हक में हो अथवा नहीं, क्या उसे अपने कार्यकर्ताओं के बीच आकर चुनाव परिणाम नहीं स्वीकारना चाहिए , उनका हौसला नहीं बढ़ाना चाहिए ?
सेक्युलर पार्टियों को बीजेपी से एक बात और सीखनी चाहिए. इसने देश के कलंक को ही जीत का बड़ा आधार बना लिया है. सरकार खुद मानती है कि एक सौ 40 करोड़ की आबादी वाले भारत में 80 से 85 करोड़ ऐसे लोग हैं जिनके पास दो जून की रोटी नहीं. कोविड की समस्या के दो साल बाद भी यह वर्ग इस गर्त से नहीं निकल पाया है. उनके पास रोजी-रोजगार नहीं. उन्हें जिंदा रखने के लिए बीजेपी की केंद्र सरकार को चावल, दाल, आंटा, तेल, नमक और बैंक खातों में पैसे डालने पड़ते हैं. यह बेहद शर्म की बात है. हम सपना विश्व गुरु बनने का देख रहे हैं और देश की आधी से अधिक आबादी भुखमरी में जी रही है. ऐसी कल्याणकारी योजना का लाभ उठाने वाले ही अभी बीजेपी की जीत का मुख्य आधार हैं.
विपक्षी दल अभी तक इसे ही मुद्दा नहीं बना पाई. यह अपने आप मंे बड़ा सवाल है. बीजेपी की जीत के प्रमुख रूप से दो आधार हैं. एक हिंदुत्व जो वह खुलकर करती है और दूसरा गरीबी में जीते लोग. केवल हिंदुत्व से घर-गृहस्थी नहीं चलती. यह देश की आम जनता जानती है. यहां तक कि इसके पैरवी कार भी यह मानते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस या किसी भी सेक्युलर दल ने अपने सत्ता वाले राज्य में ऐसी कोई मिसाल पेश की जिसे दिखाकर अन्य राज्यों में भी सत्ता हथिया सके ? राहुल गांधी को अभी तक यही समझ में नहीं आया है कि बीजेपी समर्थकों के लिए नरेंद्र मोदी रोल मॉडल हैं. बीजेपी समर्थक टीवी एंकर सुधीर चैधरी मोदी की तुलना सलमान, शाहरुख, दिलीप कुमार से करते हैं. इसके बावजूद ऐन चुनाव के मौके पर राहुल गांधी मोदी के खिलाफ ऐसा कुछ बोल जाते हैं, जिसकी वजह से मोदी को वोट न देने वाला भी वोट दे देता है.
सो कॉल्ड पार्टी के लोग मुसलमानों को टिकट नाकारते हुए कहते हैं, यदि ज्यादा मुसलमान उम्मीदवार होंगे तो ध्रुवीकरण होगा. BJP/RSS के लोग तुष्टीकरण का आरोप लगाएंगे. मध्य प्रदेश में तो सिर्फ दो मुसलमानों को टिकट मिली थी. फिर हार क्यों हुई?
— Abdur Rahman (@AbdurRahman_IPS) December 3, 2023
इसका मतलब है ये डर काल्पनिक है. कॉंग्रेस को इस…
महराष्ट्र के पूर्व आईपीएस अब्दुर रहमान कहते हैं, ‘‘ इसलिए मुसलमानांे को टिकट न देने का बहाना छोड़िए. सेक्युलर पार्टियां अपने कर्मों से हो रही हैं. इसमें मुसलमानों का कोई दोष नहीं.’’ बीजेपी मुसलमानों को टिकट नहीं देती. इस चुनाव में भी नहीं दिया. पसमांदा मुसलमानों की सियासत बीजेपी करती है. मंच से मोदी उनकी हक में बातें करते हैं. फिर भी उन्होंने चुनाव में किसी पसमांदा को टिकट देकर मिसाल पेश करने की जरूरत महसूस नहीं की. क्यों कि बीजेपी को मुसलमानों का वोट नहीं चाहिए. इसलिए बेकार की बातें छोड़िए. बीजेपी का विकल्प खुद को साबित कीजिए. मुसलमानों को चुनाव में उतारीए. इससे पहले उन्हें क्षेत्र में दो-तीन साल काम करने का मौका दीजिए. जीत अपने आप मिलेगी. देश धर्मनिरपेक्ष लोगों की वजह से चल रहा है. अन्यथा इसका एक और टुकड़ा करने का सपना देखने वाले इधर भी हैं और उधर भी.