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Bakrid विरोधियों को समझाएं कुर्बानी का अर्थ शास्त्र, Importance of Eid ul-Adha

देश की नीतियों से न केवल पशुओं की खाल का अर्थ शास्त्र  पटरी से उतर गया,चमड़ा और जूता उद्योग भी डिरेल हो चुका है

बक़रीद यानी ‘ईद-उल-अजहा‘ आते ही विरोधियों का एक दल सक्रिय हो जाता है। हर साल का यह ड्रामा है। उनकी ओर से मुखलाफत में मुसलमानों के इस त्योहार को लेकर ऐसी घटिया दलीलें दी जाती हैं कि उनकी समझ पर तरस आता है।सभ्य समाज भी शर्मशार हुए बिना नहीं रहता। इस कड़ी में अब दिल्ली से लगते उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद के लोनी से भारतीय जनता पार्टी के विधायक नंदकिशोर गुर्जर का बयान आया है, जो न केवल विवादास्पद है, उनकी सोंच और मंशा पर भी सवाल उठाता है।

विधायक नंदकिशोर गुर्जर कहते हैं, सावन का महीना है। उनके चुनाव क्षेत्र में शराब व मांस की बिक्री नहीं होने दी जाएगी। लोनी ने कोरोना को हरायाा है। मांस खाने से बीमारी बढ़ेगी। शराब के सेवन से प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होगी। मुसलमानों को बक़रीद पर कुर्बानी #Qurbani देनी है तो अपने बेटों की दें। अब उनके बयान की समीक्षा करें। विधायक को अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों की सेहत की चिंता है तो अब तक वह कितने शराब खाने बंद करवा चुके हैं।क्या लोनी की सारी शराब की दुकानें पर ताला लटक रहा है ? शराब की बिक्री लॉकडाउन में तब शुरू करा दी गई थी जब देश में कोरोना के लाख मरीज भी नहीं थे। अब संक्रमितों की संख्या पंद्रह लाख के पार पहुंच गई है। प्रतिदिन करीब पचास हजार मामले सामने आ रहे हैं। शराब पीने से प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है तो विधायक ने बक़रीद से पहले कहां और कितनी बार आवाजें उठाईं ? इसी तरह कोई सभ्य व्यक्ति पशुओं की जगह इंसान की कुर्बानी को सही ठहरा सकता है ? विधायक पशुओं के जीवन और इलाके की सेहत को लेकर चिंतित हैं तो वे सावन महीने की दुहाई क्यों दे रहे ? एक संप्रदाय के लिए हिंदी का यह महीना विशेष अहमियत रखता है। भगवान शिव से जुड़ा है यह महीना। उनके मानने वाले सावन में माँस-मछली से दूर रहते हैं। विधायक सावन को अहमियत दे रहे हैं तो फिर माँस खाने से बीमारी बढ़ने और शराब के सेवन से प्रतिरोधक क्षमता घटने की आड़ क्यों ले रहे ? सीधे क्यों नहीं कहते कि सावन में मुसलमान कुर्बानी नहीं दे सकते!

इंसान से कीमती जानवर
 ऐसा ही विवादास्पद बयान मध्यप्रदेश की महू से बीजेपी विधायक उषा ठाकुर भी पांच वर्ष पहले दे चुकी हैं। बकरीद पर उन्होंने कुर्बानी का विरोध करते हुए कहा था कि पशुओं की बलि देने वालों को अपने बेटों की कुर्बानी देनी चाहिए। एक तरफ मोहतरमा जीव हत्या न करने की नसीहत दे रही थीं। दूसरी तरफ इंसाफ की कुर्बानी की वकालत कर रही थीं। यानी उनकी नजरों में इंसान से कहीं ज्यादा अहमितय पशुओं की है।Importance of Eid ul-Adha मजे की बात है कि दोनों बीजेपी विधायक हज़रत इब्राहीम से जुड़ी कहानी का हवाला देते दिखाई दिए। बावजूद इसके उन्हें बुनियादी जानकारी भी नहीं कि अल्लाह ने इंसानी जिंदगी की कीमत समझते हुए ही कुर्बानी स्थल पर फरिश्तों के माध्यम से एक चौपाए की कुर्बानी दिलाई थी। ऐसा नहीं होता तो प्रत्येक बक़रीद पर पूरी दुनिया में कतल-ए-आम मचा रहता।


ईमानदार पहल की जरूरत
  बहरहाल, यह पहला मौका नहीं। कुर्बानी का त्योहार  देश-दुनिया में जीव हत्या रोकने के नाम पर नौटंकी करने वालों का बेहतर असवर बन गया है। जबकि पूरे साल उनका कहीं अता-पता नहीं होता। वे  सक्रिय रहते तो आज पशुओं के सड़कों पर आवारा घूमने की नौबत नहीं आती और न ही प्रत्येक वर्ष गोशालाओं में भूख से लाखों गोवंश मरते। इस समय जीव हत्या रोकने के नाम पर एक गिरोह गुजरात के अहमदाबाद में सक्रिय है। सड़कों पर प्रदर्शन कर रहा है। कुछ दिनों पहले जीवों के अधिकारों की सुरक्षा में  सक्रिय अंतरराष्ट्रीय संगठन पेटा ने जब रक्षाबंधन पर बकरी की हत्या को लेकर  सवाल उठाए तो ऐसा ही गैंग इसकी आड़ में बक़रीद के त्योहार के विरूद्ध सक्रिय हो उठा।

pic social media


पशु खालों का अर्थशास्त्र

why is Bakra Eid celebrated, ऐसे लोगों के लिए यह जानकारी अहम है कि प्रत्येक वर्ष कुर्बानी के गोश्त से करोड़ों निर्धनों के कुछ महीन के खाने का जुगाड़ हो जाता है। युगांडा, तंज़ानिया सहित उन देशों में जहां लोग भूखे मर रहे हैं। निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं। उनके लिए कुर्बानी का मीट बहुत ज्यादा अहमियत रखता है। देश-दुनिया के हजारों अनाथालय कुर्बानी के त्योहार के भरोसे चलते हैं। कुर्बानी देने वालों के हिस्से तो पशु के मास का मात्र एक भाग आता है। बाकी सारा गरीबों और नाते-रिश्तेदारों में बांट दिया जाता है। इस दौरान जानवरों के खालों का भी अपना अर्थ शास्त्र है। हालांकि, अपने देश की नीतियों ने न केवल इस अर्थ शास्त्र को पटरी से उतार दिया। इसके चलते देश का चमड़ा और जूता उद्योग भी डिरेल हो चुका है।
-उषा ठाकुर का फुटेज

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