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Bord Exams : ज़िन्दगी पर भारी पड़ते अंक

-फ़िरदौस ख़ान

समाज में शिक्षा को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. शिक्षा ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है और उसके जीवन को पूर्णता प्रदान करती है. आज हर क्षेत्र में शिक्षा का महत्व बढ़ा है. लेकिन इसी के साथ शिक्षा के नाम पर बच्चों से उनका बचपन छीना जा रहा है, उनकी ख़ुशियां छीनी जा रही हैं, हद तो ये है कि उनकी ज़िन्दगी भी छीन ली जाती है. हर साल परीक्षा के नतीजे आने के बाद न जाने कितने बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं.

हाल में उत्तर प्रदेश में माध्यमिक परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद छात्रों की आत्महत्या की दुखद ख़बरें सुनने को मिल रही हैं. ख़बरों के मुताबिक़ सिधौली इलाक़े के गांव दौलतपुर में छात्र अरवेश कुमार ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. वह दूसरी बार इंटर में फ़ेल हो गया था और वह इस वजह से बहुत परेशान था.
मिर्ज़ापुर क़स्बे में अश्वनी प्रताप ने एक विषय में फ़ेल हो जाने पर फांसी लगाकर जान दे दी. बलिया में अजय पांडेय ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. अफ़ज़लगढ़ में फ़ेल हो जाने पर एक छात्रा ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली. ये सब मामले बीते मंगलवार के हैं.

बात सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि परीक्षा के नतीजे आने के बाद अमूमन देश के हर राज्य से छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की ख़बरें आती हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट की मानें तो छात्रों द्वारा आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2021 में 13089 छात्रों ने आत्महत्या की थी. इनमें 10732 छात्र नाबालिग़ थे. आत्महत्या करने वालों में 864 छात्र फ़ेल होने की वजह से परेशान थे. साल 2020 में 12526 छात्रों ने आत्महत्या की थी, जबकि साल 2019 में 10335, साल 2018 में 10159 और साल 2017 में 9905 छात्रों ने अपनी जान दी.

इसमें कोई शक नहीं है कि आत्महत्या की कोशिशों की तादाद इससे कहीं ज़्यादा हो सकती है. हालांकि शिक्षा में सुधार लाने के लिए देश में समय-समय पर अनेक समितियों और आयोगों का गठन किया गया. उन्होंने अपनी रिपोर्ट्स भी सरकार को पेश की थीं, लेकिन उन पर ख़ास अमल नहीं हो पाया था. लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लिया है. पाठ्यक्रम को रोचक बनाया जा रहा है. इसके अलावा मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की क़वायद भी जारी है. उत्तर प्रदेश सरकार विद्यालयों में अनुभूति पाठ्यक्रम लागू कर रही है. मध्य प्रदेश में हिन्दी भाषा में चिकित्सा की पढ़ाई शुरू हो चुकी है.

दरअसल विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में न होने की वजह से भी बच्चों को भारी दिक़्क़त का सामना करना पड़ता है. बच्चे अपनी मातृभाषा में ही ज्ञान को अच्छी तरह समझ सकते हैं, जबकि दूसरी भाषा में दिए गए ज्ञान को वे रटते हैं. दरअसल, विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने वाले लोग अपने समाज और अपनी संस्कृति से ज़्यादा गहराई से नहीं जुड़ पाते. अपनी विरासत से विमुख होकर उनका व्यक्तित्व कुंठित होकर रह जाता है. इसलिए विकसित देशों में प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा मातृभाषा में दी जाती है, जबकि हमारे देश में उच्च शिक्षा की तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेज़ी का वर्चस्व होने की वजह से अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेज़ी शिक्षा दिलाने को ज़रूरी समझते हैं. पब्लिक स्कूल लोगों की इसी अंग्रेज़ी परस्त मानसिकता का फ़ायदा उठाकर चांदी कूट रहे हैं.

अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाई-लिखाई में ही व्यस्त देखना चाहते हैं. इसलिए आज गली-कूचों तक में कोचिंग सेंटर कुकुरमुत्ते की तरह फैल गए हैं. अध्यापक बच्चों पर ट्यूशन रखने के लिए दबाव डालते हैं. जो छात्र उनसे ट्यूशन लेते हैं, उन्हें ज़्यादा तरजीह दी जाती है. उनकी तारीफ़ की जाती है, लेकिन जो छात्र ट्यूशन नहीं लेते, उन्हें प्रताड़ित किया जाता है, उनकी उपेक्षा की जाती है. स्कूल की आंतरिक परीक्षाओं में ट्यूशन लेने वाले छात्रों की मदद की जाती है, जिनसे उनके अंक अच्छे आते हैं. इस भेदभाव की वजह से बच्चे ट्यूशन लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं. अध्यापकों की अपनी दलील होती है. उनकी शिकायत रहती है कि स्कूल प्रबंधकों द्वारा उन पर अच्छे नतीजे लाने का दबाव रहता है और बच्चों के अभिभावक भी ऐसा ही चाहते हैं. वहीं अभिभावक भी ट्यूशन के हिमायती हैं. लेकिन पढ़ाई के दिमाग़ी बोझ की वजह से बच्चे मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं. इससे उनके मस्तिष्क और शरीर पर बुरा असर पड़ता है और उनका नैसर्गिक विकास रुक जाता है. बच्चों पर ज़्यादा अंक लाने का इतना मानसिक दबाव बन जाता है कि उम्मीद से कम अंक मिलने पर वे मौत को गले लगा लेते हैं.

हालांकि बच्चों की इन्हीं समस्याओं के मद्देनज़र सरकार ने कई अहम क़दम जा रहे हैं. कुछ साल पहले मध्य प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा मंडल ने हेल्पलाइन शुरू की हुई है, जहां छात्र और उनके अभिभावक सलाह ले सकते हैं. सरकार ने छात्रों की आत्महत्या रोकने के लिए एक कमेटी गठित की थी. सरकार की ‘रुक जाना नहीं’ योजना के तहत फ़ेल हुए बच्चे सिर्फ़ उसी विषय की परीक्षा देकर आगे बढ़ सकते हैं, जिसमें वे फ़ेल हुए हैं. इससे पहले किसी विषय में फ़ेल होने पर बच्चों को उन विषयों की परीक्षा भी दोबारा देनी होती थी, जिसमें वे पास हुए हैं.

बच्चों की दिनचर्या घर से स्कूल और स्कूल से ट्यूशन सेंटर तक सिमट कर रह गई है. ऐसे में उन्हें खेलने-कूदने का वक़्त भी नहीं मिल पाता. वे कक्षा कार्य और गृहकार्य में ही जुटे रहते हैं. इससे बच्चों के समग्र और व्यवहारिक ज्ञान के विकास में रुकावट आती है. प्रतिस्पर्धा की दुहाई देकर कभी सामान्य ज्ञान, तो कभी नैतिक शिक्षा और कंप्यूटर के नाम पर पाठ्यक्रम की किताबों में इज़ाफ़ा करके बच्चों के नाज़ुक कंधों पर बस्ते का भारी बोझ लादा जा रहा है. शिक्षा का मतलब बहुत ज़्यादा अंक लाना या सिर्फ़ नौकरी पाना ही नहीं होता. शिक्षा का संबंध व्यक्ति के संपूर्ण विकास से होता है, उसके समग्र विकास से होता है. अभिभावकों को अपने बच्चों पर न तो अपनी आकांक्षाएं थोपनी चाहिए और न ही उन पर प्रतिस्पर्धा का दबाव डालना चाहिए.

बच्चों के व्यक्तित्व के नैसर्गिक विकास के लिए आज न सिर्फ़ पढ़ाई का बोझ कम करने की ज़रूरत है, बल्कि बच्चों को खेलने-कूदने के लिए पर्याप्त समय भी दिया जाना चाहिए. सभी सरकारी और ग़ैर सरकारी स्कूलों में एक समान पाठ्यक्रम लागू किया जाना चाहिए. किताबें आकर्षक और सुरुचिपूर्ण हों और बच्चों को विषय का ठोस व्यवहारिक ज्ञान देना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए. बच्चों पर विदेशी भाषा न थोपकर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए, ताकि उन पर ग़ैर ज़रूरी बोझ न पड़े और वे तनाव रहित रहें.

हमें यह समझना होगा कि अंक बच्चों की ज़िन्दगी से ज़्यादा नहीं हैं. कम अंक लाने वाले बच्चों ने भी आगे चलकर विभिन्न क्षेत्रों में कामयाबी अर्जित की है.
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)