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जम्मू-कश्मीर में जलवायु संकट: ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़ा खतरा, पारंपरिक जीवनशैली पर संकट

विशेष संवाददाता, श्रीनगर

जम्मू-कश्मीर जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर प्रभावों का सामना कर रहा है. बीते कुछ वर्षों में मौसम में तेजी से बदलाव देखा गया है, जिससे न केवल क्षेत्र का पारिस्थितिक संतुलन प्रभावित हुआ है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था, कृषि और जल संसाधनों पर भी अभूतपूर्व संकट गहरा गया है. बढ़ते तापमान, कम होती बर्फबारी और बदलते मानसून पैटर्न के कारण इस क्षेत्र की पारंपरिक जलवायु प्रणाली पूरी तरह से बाधित हो चुकी है.

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारण

विशेषज्ञों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में जलवायु परिवर्तन के पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं, जिनमें सबसे प्रमुख हैं:

  1. वनों की कटाई – वनों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा का स्तर प्रभावित हुआ है और मिट्टी का क्षरण तेजी से बढ़ा है.
  2. अनियमित शहरीकरण – शहरी क्षेत्रों का अव्यवस्थित विस्तार और निर्माण कार्यों के लिए पहाड़ों की खुदाई से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है.
  3. ग्लेशियरों का पिघलना – बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र के प्रमुख ग्लेशियर असामान्य गति से पिघल रहे हैं, जिससे जल संकट उत्पन्न हो सकता है.
  4. आर्द्रभूमि और झीलों का सिकुड़ना – झेलम और डल झील जैसी जल निकायों का आकार घट रहा है, जिससे पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हो रहा है.

गंभीर प्रभाव: खेती, जल स्रोत और पर्यटन पर संकट

इस जलवायु संकट का प्रभाव जम्मू-कश्मीर की पारंपरिक जीवनशैली और अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है.

  • कृषि संकट – पहले जहां धान और मक्का की खेती नियमित बारिश पर निर्भर थी, अब जल की कमी और अनिश्चित वर्षा चक्र से किसान परेशान हैं. सेब और अखरोट जैसी नकदी फसलों की उत्पादकता भी प्रभावित हुई है.
  • जल संकट – ग्लेशियरों के पिघलने से झेलम और चिनाब जैसी नदियों का जल स्तर अस्थिर हो गया है. भविष्य में यह पानी की कमी का बड़ा कारण बन सकता है।
  • पर्यटन उद्योग प्रभावित – बर्फबारी में गिरावट से गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम जैसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों पर कम पर्यटक आ रहे हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को झटका लग रहा है.

ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़ रहा खतरा

शोधकर्ताओं के अनुसार, कश्मीर के कुछ प्रमुख ग्लेशियर – कोलाहोई, थाजीवास और काजिनाग – बीते 50 वर्षों में अपने मूल आकार का 20-30% हिस्सा खो चुके हैं। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अगर यह प्रवृत्ति जारी रही, तो अगले कुछ दशकों में हिमालयी जल स्रोतों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.

संभावित समाधान: पारंपरिक और आधुनिक उपायों का समावेश जरूरी

इस संकट से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है।

  1. पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणाली को पुनर्जीवित करना
    • कोहल सिंचाई प्रणाली जैसे स्थानीय जल संसाधन प्रबंधन तकनीकों को पुनर्जीवित करना जरूरी है, ताकि खेती योग्य भूमि को जल आपूर्ति सुचारू रूप से मिलती रहे।.
    • आर्द्रभूमियों की रक्षा के लिए सख्त पर्यावरणीय नियम लागू करने होंगे.
  2. टिकाऊ शहरी नियोजन
    • कश्मीर घाटी में अनियमित निर्माण कार्यों पर रोक लगानी होगी और पर्यावरण के अनुकूल बुनियादी ढांचा विकसित करना होगा.
    • सड़कों और आवासीय परियोजनाओं के लिए हरे-भरे क्षेत्रों को उजाड़ने की प्रवृत्ति पर लगाम लगानी होगी.
  3. वन पुनर्वास कार्यक्रम लागू करना
    • सरकारी स्तर पर बड़े पैमाने पर वनीकरण कार्यक्रम चलाना होगा, ताकि कार्बन संतुलन बनाए रखा जा सके और मिट्टी का क्षरण रोका जा सके.
    • स्थानीय लोगों को जलवायु संरक्षण अभियानों से जोड़ना जरूरी है.
  4. ग्लेशियर संरक्षण नीति
    • वैज्ञानिकों और स्थानीय प्रशासन को मिलकर ग्लेशियर संरक्षण योजनाएं बनानी होंगी.
    • हिमालयी क्षेत्रों में अनियंत्रित पर्यटन गतिविधियों को नियंत्रित करना होगा.

निष्कर्ष

जम्मू-कश्मीर की जलवायु में आ रहे बदलाव अब महज एक वैज्ञानिक चिंता का विषय नहीं रह गए हैं, बल्कि यह लाखों लोगों की आजीविका, पारंपरिक जीवनशैली और क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन के लिए एक गंभीर संकट बन चुके हैं।.अब वक्त आ गया है कि सरकार, वैज्ञानिक समुदाय और स्थानीय लोग मिलकर इस चुनौती का सामना करें, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह क्षेत्र सुरक्षित और टिकाऊ बना रहे.