Culture

उर्दू भाषा का बाज़ारू उत्सव: जश्न-ए-रेख्ता सवालों के घेरे में

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

उर्दू भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने के दावे के साथ शुरू किए गए आयोजन जश्न-ए-रेख्ता ने अब अपनी दिशा और मंशा पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं. उर्दू के प्रचार-प्रसार के नाम पर इस उत्सव ने एक ऐसा रूप ले लिया है, जो बाजारवाद और व्यवसायिकता से भरपूर दिखाई देता है.

उर्दू: साहित्य से बाजार तक

रेख्ता फाउंडेशन के संस्थापक संजीव सराफ का दावा है कि यह आयोजन उर्दू साहित्य को तकनीक और आधुनिकता से जोड़ने का प्रयास है. इसके तहत उन्होंने Hinduvi.com और Sufinama जैसे प्लेटफॉर्म लॉन्च किए हैं, जिनका उद्देश्य हिंदी और सूफी साहित्य को बढ़ावा देना है. लेकिन आलोचक इसे उर्दू को “सजाकर बेचने” का माध्यम मानते हैं.

उर्दू के नाम पर लाखों की टिकट बिक्री और 80 रुपये की चाय परोसने वाला यह आयोजन जश्न के बजाए एक व्यवसायिक मेल लगता है. 499 रुपये से लेकर 22,500 रुपये तक की टिकट कीमत यह बताने के लिए काफी है कि यह उत्सव अब आम जनता की पहुँच से दूर हो गया है.

भव्यता और महंगाई का मेल

जश्न-ए-रेख्ता में इस बार 200 से अधिक कलाकार भाग ले रहे हैं, जो ग़ज़ल, कव्वाली और सूफी संगीत की प्रस्तुतियां देंगे. हालांकि, यह उत्सव अब इतना महंगा हो गया है कि सिर्फ अमीर वर्ग ही इसका आनंद ले सकता है.
यह तथ्य विचारणीय है कि जहाँ एक ओर इस महोत्सव में बड़ी-बड़ी प्रस्तुतियां दी जा रही हैं, वहीं गालिब अकादमी और उर्दू की अन्य संस्थाएँ अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही हैं.

उर्दू का प्रेम या व्यवसाय?

रेख्ता फाउंडेशन का कहना है कि उनका उद्देश्य उर्दू भाषा और साहित्य को नई पीढ़ी तक पहुँचाना है. सवाल उठता है कि क्या भाषा को लोकप्रिय बनाने का यह तरीका सही है? महंगे टिकट और व्यावसायिकता से सजी यह महफिल उन लोगों के लिए भी सवाल छोड़ती है, जो उर्दू को अपने दिल से जोड़कर देखते हैं.

यह भी देखा गया है कि इस आयोजन में उर्दू से कोई विशेष जुड़ाव न रखने वाले कलाकारों को प्रमुखता दी जाती है. कैलाश खेर जैसे गायक, जिनका उर्दू से वास्ता न के बराबर है, को यहाँ मंच दिया गया, जबकि उर्दू के असली साहित्यकार और कलाकार इस आयोजन से नदारद हैं..

आयोजकों का कहना है कि भीड़ नियंत्रण के लिए टिकट प्रणाली लागू की गई है. लेकिन जब सबसे महंगे टिकट भी बिक जाते हैं और “हाउसफुल” का बोर्ड दस दिन पहले ही लग जाता है, तो यह साफ हो जाता है कि यह आयोजन अब आम जनता के लिए नहीं, बल्कि एक विशिष्ट वर्ग के लिए है.

आलोचना बनाम वास्तविकता

रेख्ता के समर्थक इसे उर्दू को आधुनिकता से जोड़ने की पहल मानते हैं, लेकिन आलोचक इसे उर्दू के बाज़ारीकरण का प्रतीक कहते हैं. उनका तर्क है कि यह आयोजन उर्दू की मूल भावना और साहित्यिक धरोहर को पीछे छोड़कर केवल चमक-दमक पर जोर दे रहा है.

पारंपरिक संस्थाओं की अनदेखी

जश्न-ए-रेख्ता के आयोजन के दौरान गालिब अकादमी और अन्य उर्दू संस्थाओं की दुर्दशा का जिक्र करना जरूरी है. ये संस्थाएँ उर्दू के प्रचार-प्रसार में लंबे समय से जुटी हैं, लेकिन इन्हें न तो आर्थिक सहायता मिलती है और न ही किसी बड़े मंच पर स्थान.

भविष्य की दिशा

जश्न-ए-रेख्ता उर्दू प्रेमियों के लिए एक प्रेरणा या एक व्यावसायिक उत्पाद, यह सवाल अब और गहराता जा रहा है. भाषा और साहित्य को जीवंत रखने के लिए क्या इसे एक बाजारू स्वरूप देना सही है?

रेख्ता फाउंडेशन के प्रयास सराहनीय हो सकते हैं, लेकिन यह भी जरूरी है कि उर्दू को उसकी असल जड़ों से जोड़ा जाए. यदि यह आयोजन उर्दू की आत्मा और उसकी वास्तविकता से दूर होता गया, तो यह भाषा के सशक्तिकरण के बजाय इसके क्षरण का कारण बन सकता है.