दिल्ली चुनाव 2025: मुस्लिम वोट बैंक पर निगाहें, क्या इस बार बदलेगा सियासी समीकरण?
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो | नई दिल्ली
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 का परिणाम न केवल सत्ता की राजनीति बल्कि सामाजिक और सांप्रदायिक समीकरणों के लिहाज से भी बेहद महत्वपूर्ण होने जा रहा है. खासतौर पर मुस्लिम समुदाय का रुख इस बार चर्चा का विषय बना हुआ है. पिछले कुछ चुनावों की तरह क्या इस बार भी मुस्लिम मतदाता एकतरफा वोट करेंगे, या फिर समुदाय के भीतर मौजूद मतभेद भाजपा विरोधी वोटों के बंटवारे का कारण बनेंगे?
इस चुनाव का सबसे संवेदनशील पहलू यह भी रहा कि 2020 के CAA-NRC विरोध और दिल्ली दंगों के बाद मुस्लिम समाज में बीजेपी के खिलाफ पहले से ज्यादा गुस्सा देखने को मिला। कई मुस्लिम परिवारों का मानना है कि पिछले चुनाव के बाद से उन्हें निशाना बनाया गया, उनके नेताओं को जेलों में डाल दिया गया और उनकी सुरक्षा पर सवालिया निशान लग गए. यही वजह रही कि इस बार दिल्ली के मुस्लिम मतदाताओं ने चुनाव को सिर्फ एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक स्थिति को दोबारा परिभाषित करने का जरिया माना.
मुस्लिम बहुल सीटों पर टक्कर और सियासी समीकरण
दिल्ली की राजनीति में करीब 15-18% मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं. ओखला, मुस्तफाबाद, सीलमपुर, मटियामहल, बल्लीमारान, बाबरपुर और चांदनी चौक जैसी सीटें मुस्लिम वोट बैंक का गढ़ मानी जाती हैं। इन सीटों पर नतीजे यह तय करेंगे कि दिल्ली में भाजपा विरोधी गठबंधन की रणनीति सफल रही या नहीं.
इस चुनाव में AIMIM की एंट्री ने भी मुस्लिम वोट बैंक के समीकरण को जटिल बना दिया. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने दो सीटों—ओखला और मुस्तफाबाद—पर अपने उम्मीदवार उतारे, जिनमें से दोनों ही प्रत्याशी 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े रहे हैं. ओखला में AIMIM के शिफा-उर-रहमान को मैदान में उतारा गया, जो दंगों के मामले में UAPA के तहत आरोपी हैं. वहीं, मुस्तफाबाद में ताहिर हुसैन को टिकट मिला, जो हिंसा भड़काने के आरोपों में जेल में रह चुके हैं.
क्या मुस्लिम वोट बंटेगा या एकतरफा जाएगा?
दिल्ली चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को लेकर तीन तरह की रणनीतियां देखी गईं—
- AAP के साथ खड़ा रहना – बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाता इस विचार के थे कि केवल AAP ही भाजपा को हराने की स्थिति में है. अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने फ्री बिजली-पानी, शिक्षा और मोहल्ला क्लीनिक जैसी योजनाओं से जनता का भरोसा हासिल किया है. भले ही 2020 के दंगों के दौरान AAP सरकार की भूमिका पर सवाल उठे हों, लेकिन समुदाय के एक वर्ग ने इसे भाजपा के खिलाफ “कमजोर लेकिन सबसे अच्छा विकल्प” माना.
- कांग्रेस की ओर झुकाव – मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा तबका ऐसा भी था जो मानता है कि कांग्रेस ने बीते कुछ वर्षों में अल्पसंख्यकों के मुद्दों को सबसे मजबूती से उठाया है. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का चुनावी प्रचार भी इस समुदाय को रिझाने की रणनीति का हिस्सा रहा. हालांकि, यह रणनीति कितनी कारगर साबित हुई, यह नतीजों के बाद ही पता चलेगा.
- AIMIM को सहानुभूति वोट – ओवैसी की पार्टी ने इस चुनाव में उन प्रत्याशियों को उतारा जो खुद दंगों के आरोपों में जेल जा चुके हैं. समुदाय के कुछ हिस्सों में इस बात को लेकर सहानुभूति दिखी कि जो लोग संघर्ष कर रहे हैं, वे ही उनकी सच्ची आवाज बन सकते हैं. हालांकि, इस समर्थन का कितना फायदा AIMIM को मिलेगा, यह नतीजे ही बताएंगे.
मुस्तफाबाद और ओखला: सियासत का नया अखाड़ा
ओखला सीट पर चुनावी मुकाबला सबसे दिलचस्प रहा। यहां AAP के मौजूदा विधायक अमानतुल्लाह खान, भाजपा के मनीष चौधरी और कांग्रेस की अरीबा खान के बीच त्रिकोणीय संघर्ष देखने को मिला। ओवैसी की एंट्री ने मुकाबले को और पेचीदा बना दिया.
मुस्तफाबाद में भी कुछ ऐसा ही रहा. 2020 में इस सीट से हाजी यूनुस ने जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार उन्हें टिकट नहीं मिला. इसकी जगह AAP ने आदिल अहमद खान को उतारा, जबकि भाजपा ने मोहन सिंह बिष्ट, कांग्रेस ने अली मेहदी और AIMIM ने ताहिर हुसैन को मैदान में उतारा.
मुस्लिम मतदाताओं की दुविधा
दिल्ली के मुस्लिम मतदाताओं में इस बार चुनाव को लेकर असमंजस साफ दिखा.
23 वर्षीय मुर्तुजा नैयर ने कहा, “मेरा दिल कांग्रेस के लिए कहता है, लेकिन दिमाग AAP के लिए। कांग्रेस हमारी बात करती है, लेकिन वोट बंटने का खतरा है.”
इसी तरह, ओखला के मोहम्मद इरफान का कहना था, “अगर हम कांग्रेस या AIMIM को वोट देंगे, तो भाजपा को फायदा होगा.”
वहीं, मोहम्मद अकबर जैसे लोग इस बार “हिंदुत्व के खिलाफ सख्त रुख” अपनाने वाले दल को ही वोट देने के पक्ष में थे. उन्होंने कहा, “हमें डराया जाता है कि भाजपा न आ जाए, लेकिन अगर हम अपनी आवाज उठाने वालों को वोट नहीं देंगे तो कब देंगे?”
नतीजे और आगे की राजनीति
अब सवाल यह है कि क्या इस बार मुस्लिम वोट एकतरफा रहेगा या बंट जाएगा? यह चुनाव न केवल भाजपा बनाम AAP की लड़ाई है, बल्कि कांग्रेस और AIMIM के प्रदर्शन को भी परखेगा.
यदि आम आदमी पार्टी फिर से सरकार बनाती है, तो यह स्पष्ट संकेत होगा कि दिल्ली का मुस्लिम वोट बैंक भाजपा को हराने के लिए फिर से AAP के साथ खड़ा रहा, लेकिन यदि कांग्रेस या AIMIM को उल्लेखनीय सफलता मिलती है, तो यह संकेत होगा कि मुस्लिम समुदाय अब नए विकल्पों की तलाश कर रहा है.
जो भी नतीजे हों, इतना तय है कि दिल्ली के मुस्लिम मतदाता इस बार सिर्फ मतदान नहीं कर रहे थे, वे अपनी राजनीतिक स्थिति को पुनर्परिभाषित कर रहे थे. आने वाले सालों में यह बदलाव भारतीय राजनीति में क्या नया मोड़ लाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा.