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दिलीप मंडल की तर्कहीन बयानबाजी

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

वरिष्ठ पत्रकार और कथित बुद्धिजीवी दिलीप मंडल एक बार फिर अपने विवादास्पद बयानों के कारण चर्चा में हैं. इस बार उनका निशाना बने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, लेकिन उन्होंने राजनीतिक बहस को तार्किक आधार पर रखने के बजाय धर्म विशेष पर प्रश्न उठाने का रास्ता चुना.

मंडल का बयान राजनीतिक से अधिक धार्मिक एंगल लिए हुए नजर आता है. उन्होंने अपने एक्स (पूर्व में ट्विटर) हैंडल से खड़गे को संबोधित करते हुए लिखा:

“यदि आप वास्तव में नास्तिक और तर्कवादी हैं, तो आप कहेंगे, ‘गंगा में डुबकी लगाने, हज करने और शैतान को पत्थर मारने, अजमेर में चादर चढ़ाने, नमाज पढ़ने या चर्च में मोमबत्ती जलाने से गरीबी नहीं मिटेगी.’”

उन्होंने आगे कहा कि सच्चे तर्कवाद में सभी धर्मों पर समान रूप से सवाल उठाने का साहस होना चाहिए और यह तर्कवाद केवल भारतीय परंपराओं का मजाक उड़ाने तक सीमित नहीं होना चाहिए.

खड़गे के बयान का असली संदर्भ क्या था?

दरअसल, मल्लिकार्जुन खड़गे ने हाल ही में एक बयान दिया था, जिसमें उन्होंने गरीबी, राजनीति और कुंभ मेले को जोड़ते हुए कुछ बातें कहीं. खड़गे के बयान को राजनीतिक दृष्टि से देखा जा सकता है, लेकिन यह किसी धर्म विशेष के खिलाफ नहीं था. उनके बयान का मूल उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर ध्यान आकर्षित करना था, न कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना.

परंतु दिलीप मंडल ने खड़गे की आलोचना करने के बजाय बहस को धार्मिक मोड़ दे दिया और हिंदू-मुस्लिम पर केंद्रित कर दिया.

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क्या दिलीप मंडल की बयानबाजी तर्कसंगत है?

मंडल ने खड़गे को घेरने के चक्कर में हिंदू धार्मिक परंपराओं के साथ इस्लाम और ईसाई धर्म की प्रथाओं पर भी सवाल उठा दिए. इस बयान पर सवाल उठता है:

  1. क्या किसी मौलवी, मौलाना या पादरी ने कुंभ को लेकर कोई टिप्पणी की थी?नहीं
  2. क्या किसी धार्मिक नेता ने हिंदू धर्म की आस्थाओं को निशाना बनाया था?नहीं
  3. फिर दिलीप मंडल ने मुस्लिम और ईसाई धर्म को खींचकर विवाद क्यों खड़ा किया?

अगर खड़गे ने कुंभ मेले के संदर्भ में कोई बयान दिया, तो जवाब भी उसी संदर्भ में दिया जाना चाहिए था. लेकिन दिलीप मंडल ने अपनी तथाकथित तर्कशीलता को धार्मिक कटाक्ष में बदल दिया.

क्या यह असली तर्कवाद है या पूर्वाग्रह?

मंडल के तर्क की पक्षपाती प्रकृति साफ दिखाई देती है. वे यह आरोप लगाते हैं कि भारतीय तर्कवाद केवल हिंदू परंपराओं को निशाना बनाता है और इस्लाम तथा ईसाई धर्म से जुड़े मुद्दों पर चुप रहता है. लेकिन सवाल यह भी उठता है कि उन्होंने खुद इस्लाम और ईसाई धर्म की परंपराओं पर सवाल उठाकर क्या हासिल करना चाहा?

अगर वे खुद को निष्पक्ष तर्कवादी मानते हैं, तो क्या उन्हें अन्य धर्मों की मान्यताओं पर टिप्पणी करने से पहले उचित अध्ययन नहीं करना चाहिए था?

धर्मों का आपसी सम्मान बनाम तर्कवादी कटाक्ष

हर धर्म दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना सिखाता है. हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या कोई भी धर्म एक-दूसरे की इज्जत करने की सीख देता है. ऐसे में मंडल की बयानबाजी सवाल खड़े करती है कि क्या वे वास्तव में धार्मिक आलोचना कर रहे हैं, या केवल एक खास मानसिकता से प्रेरित होकर विवाद खड़ा कर रहे हैं?

गौतम बुद्ध की मूर्तियां स्थापित करने या बाबासाहेब अंबेडकर की पूजा करने को लेकर किसी भी धर्म ने आपत्ति नहीं जताई, तो फिर दिलीप मंडल ने इस्लाम और ईसाई धर्म की धार्मिक परंपराओं पर सवाल क्यों खड़े किए?

क्या खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का हक रखते हैं दिलीप मंडल?

इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि दिलीप मंडल ने खड़गे की आलोचना करने के बजाय धर्म विशेष पर हमला करने का रास्ता चुना. यह न केवल उनकी बौद्धिक दिवालियापन को दर्शाता है, बल्कि यह भी साबित करता है कि वे तर्कशीलता के बजाय पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं.

मंडल खुद को बुद्धिजीवी बताते हैं, लेकिन उनकी बयानबाजी बुद्धिजीविता से अधिक एक खास एजेंडे का हिस्सा लगती है. उनके बयान न केवल सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ सकते हैं, बल्कि धार्मिक ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा दे सकते हैं.

खड़गे का बयान राजनीतिक संदर्भ में था, लेकिन दिलीप मंडल ने इसे धार्मिक विवाद में तब्दील करने की कोशिश की. उनकी यह सोच तर्कवाद और निष्पक्षता से अधिक पक्षपात से प्रेरित नजर आती है. किसी भी धर्म की मान्यताओं का सम्मान किया जाना चाहिए और अनावश्यक रूप से धार्मिक भावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाया जाना चाहिए.

आखिरकार, सवाल यही उठता है कि क्या दिलीप मंडल वाकई तर्कवादी हैं या वे केवल अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए तर्कवाद का इस्तेमाल कर रहे हैं?

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