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Fatwa goes viral, but only from Facebook! Fundamental contradiction in the campaign to boycott Israel
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फतवा वायरल, मगर फेसबुक से! इजरायली बहिष्कार की मुहिम में बुनियादी विरोधाभास

April 14, 2025 Editor

मुहम्मद खुर्शीद अकरम सोज़

हाल ही में, पाकिस्तान के ग्रैंड मुफ्ती तकी उस्मानी सहित उपमहाद्वीप के कई प्रमुख विद्वानों और मुफ्तियों ने इजरायली उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान करते हुए एक फतवा जारी किया. इस फतवे को गाजा में जारी इजरायली अत्याचारों के परिप्रेक्ष्य में एक स्वाभाविक एवं भावनात्मक प्रतिक्रिया माना जा सकता है, तथा विश्व भर के मुसलमानों ने भी इसमें गहरी रुचि दिखाई है.

हालाँकि, इस संबंध में एक बहुत ही महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय पहलू यह है कि ऐसे फतवों को बढ़ावा देने और प्रसारित करने के लिए जिन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का उपयोग किया जा रहा है, जैसे कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ट्विटर आदि, उनका स्वामित्व और वित्तपोषण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यहूदी व्यवसायों और पूंजीपतियों द्वारा किया जाता है.यह भी कोई रहस्य नहीं है कि इन प्लेटफार्मों से उत्पन्न राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इजरायली अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और इजरायली सैन्य अभियानों का समर्थन करने के लिए उपयोग किया जाता है.

यह आश्चर्य की बात है कि जहां एक ओर इन उत्पादों के बहिष्कार का जोरदार आह्वान करते हुए फतवा जारी किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इन फतवों को फैलाने के लिए उन्हीं साधनों का उपयोग किया जाता है, जिन्हें स्पष्ट रूप से इस्लाम के प्रति प्रतिकूल घोषित किया गया है. यदि बहिष्कार अभियान को वास्तव में गंभीर और प्रभावी बनाना है, तो पहला कदम इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का बहिष्कार करना होना चाहिए, और मुफ्तियों को अपने अनुयायियों को इन सेवाओं से दूर रहने के स्पष्ट निर्देश देने चाहिए.


इसके अलावा, यदि फतवा वास्तव में पूर्ण और व्यापक होना है, तो मुफ्तियों को अपने अनुयायियों को भी निर्देश जारी करना चाहिए, जो इजरायल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों या उसके प्रॉक्सी द्वारा नियोजित हैं कि वे तुरंत इस्तीफा दे दें. इसी प्रकार, उनके प्रियजन और रिश्तेदार जो संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन या अन्य पश्चिमी देशों में रह रहे हैं, उन्हें भी इन “क्रूर और इस्लाम विरोधी” भूमि अलविदा कहकर अपने वतन लौट जाना चाहिए. इससे भी अधिक, उन युवाओं को भी वापस बुलाया जाना चाहिए जो उन्हीं पश्चिमी देशों में पढ़ रहे हैं.
यदि ये सभी कदम नहीं उठाए गए तो ये बहिष्कार फतवे महज भावनात्मक और दिखावटी कृत्य माने जाएंगे, जिनका वास्तविक उद्देश्य जनभावनाओं को खुश करना या धार्मिक प्रभाव बनाए रखना होगा, न कि कोई वास्तविक आर्थिक या राजनीतिक परिवर्तन का प्रयास.
अब समय आ गया है कि हम सभी, आम जनता और विद्वान, एकजुट होकर अपनी कथनी और करनी के बीच के विरोधाभास पर गंभीरता से विचार करें. अन्यथा, ऐसे सतही अभियान न केवल इस्लाम की गरिमा को नुकसान पहुंचाते हैं, बल्कि दुनिया की नजरों में हमारी सामूहिक बुद्धि और चेतना को भी संदिग्ध बनाते हैं.

(मुहम्मद खुर्शीद अकरम सोज़ के फेसबुक वाल से.लेख का केवल शीर्षक बदला गया है. यह लेखक के अपने विचार हैं.)

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