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Freedom Fighters of India भूल गए गया (बिहार) के शाह वजीहुद्दीन मिन्हाजी को


15 नवंबर को था उनका जन्म दिन

सन् 1947 से पहले, जब पूरा भारत अंग्रेजों के उत्पीड़न का शिकार था. देश वासियों के पास बगावत के सिवाए कोई चारा नहीं था. तब एक व्यक्ति ऐसा भी था जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. उसके बगावती तेवर से परेशान होकर अंग्रेजों को उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने वाले को हजारों रूपये ईनाम देने की घोषणा करनी पड़ी थी.
  अंग्रेज कमांडर उन्हें उनके असली नाम से नहीं जानते थे. इस स्वतंत्रता सेनानी का नाम था शाह वजीहुद्दीन मिन्हाजी. 1942 में, शाह उमैर साहब के नेतृत्व में फिरंगियों से लोहा लेने वाली टीम के डॉ सैयद शाह वजीहुद्दीन मिन्हाजी‘ अगली पंक्ति के नेता थे. उन्होंने बिहार के अरवल में विद्रोह का झंडा बुलंद कर रखा था.


लड़कपन के दिनों में कूद पड़े आंदोलन में

मिन्हाजी की बहादुरी के चर्चे हर जगह थे. उनका जन्म बिहार के गया जिले में 15 नवंबर 1907 को हुआ था. उन्होंने मौलवी मूसा रजा से फारसी एवं मदरसा सहसराम से फारसी की तालीम ली थी. 1920 में इस्लामिया हाई इंग्लिश स्कूल में दाख़िला लिया. तब खिलाफत तहरीक और असहयोग आंदोलन चल रहा था, इस लिए उन्होंने भी अपने स्कूल का बहिष्कार कर दिया. परिणामस्वरूप उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया. 1921 में गया में ‘‘गांधी नेशनल स्कूल की नींव रखी गई थी। उस स्कूल में तीसरी कक्षा से बच्चों को चरखा चलाना और कपड़े बुनना सिखाया जाता था. उनके पिता के खलील दास, काजी अहमद , किशन प्रसाद साहब जैसे कई इंकलाबी दोस्त थे. 1922 की है, गया की बार लाइब्रेरी में उन्हें गिरफ्तार किया गया. उन्हें अदालत में पेश करने पर न्यायाधीश उनकी दलील से बहुत प्रभावित हुए. तब उनकी उम्र मात्र 15 वर्ष थी. जज ने उन्हें बरी कर दिया.

शिक्षा में हाथ था तंग, पर थे जोश से भरे  

बिहार के गया में 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, खिलाफत समिति, अकाली दल और अखिल भारतीय जमीयत उलमा  वार्षिक अधिवेषण बड़ी धूम-धाम से आयोजित किया गया था. उसमें शाह वजीहुद्दीन मिन्हाजी ने अहम भूमिका निभाई थी. कार्यकर्ता के तौर पर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए. उसी समय कांग्रेस के ‘देश बंधु‘ और ‘‘महात्मा गांधी‘‘ को लेकर धड़ेबंदी शुरू हो गई. इस का असार ‘गांधी स्कूल‘ पर भी पड़ा और स्थापना के कुछ महीने बाद ही बंद कर दिया गया. उसके बाद उनके पिता ने उन्हें पढ़ने केलिए 1924 में कलकत्ता भेजा, पर बीमारी की वजह से एक साल बाद ही वापस आ गए. उनका लंबे समय तक गया में इलाज चला, जिसमें उनके वालिद की सारी जमा-पूंजी खत्म हो गई. 1930 से उन्होंने फिर पढ़ाई शुरू की. 1931 की परीक्षा में टॉप किया, लेकिन विश्वविद्यालय परीक्षा में असफल रहे. 1931 में उन्हें जमीयतुल तलबा गया का सदर नियुक्त किया गया.

गया के लोग ही भूल गए मिन्हाजी को

1931 में अंग्रेज सरकार के खिलाफ गया शहर के जामा मस्जिद में दी गई उनकी तकरीर काफी जोशीली थी, जिससे युवा वर्ग काफी प्रभावित हुए थे. उस वक्त उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. तब उम्र सिर्फ 24 साल थी. उसके बाद उनके पिता ने उन्हें मुज़फ़्फ़रपुर भेज दिया, पर तीन महीने बाद ही लौट आए. फिर पटना जाकर इत्तेहाद सम्मेलन में शामिल हुए. वहां से कलकत्ता चले गए. तब उनके पास जिस्म पर कपड़े के अलावा कुछ नहीं था. वहां वह फिल्म कंपनी के एजेंट बने. महीने केे 60 रुपये पगार मिलते थे. उन्होंने देश आंदोलन के दौरान ढाका, मुर्शिदाबाद, मिदनापुर, परगना, रंगपुर, असम का भी दौरा किया. दुखद बात यह है कि गया शहर की इस चर्चित शख्सियत की वहां कोई न निशानी है न ही ही उन्हें कोई याद करता है. अभी गया में देश के प्रथम शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद का बड़े धूम-धाम से जन्मदिन मनाया गया, पर किसी संस्थान ने मिन्हाजी के जन्मदिन पर कोई कार्यक्रम नहीं किया.

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संपादक