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हबीब-उर-रहमान: सुभाष चंद्र बोस के वह कश्मीरी साथी जो स्वतंत्रता संग्राम के बाद पाकिस्तान चले गए

मुस्लिम नाउ विशेष

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिन वीरों ने अपने अद्वितीय साहस, देशभक्ति और बलिदान का परिचय दिया, उनमें से एक नाम हबीब-उर-रहमान का है. वह न केवल भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के एक साहसी अधिकारी थे, बल्कि सुभाष चंद्र बोस के सबसे विश्वासपात्र साथियों में से एक थे. उनके जीवन का प्रत्येक अध्याय भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष और त्याग की कहानी कहता है.

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

हबीब-उर-रहमान का जन्म 22 दिसंबर 1913 को ब्रिटिश भारत के जम्मू और कश्मीर के मीरपुर जिले के पंजरी गांव में हुआ था. वह एक प्रतिष्ठित मुस्लिम राजपूत परिवार से थे. उनके नाना राजा रहमदाद महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में सेवा करते थे. हबीब ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पंजरी के स्थानीय स्कूलों में पूरी की और स्नातक की डिग्री जम्मू से प्राप्त की. अपनी शिक्षा को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने देहरादून के प्रिंस ऑफ वेल्स रॉयल इंडियन मिलिट्री कॉलेज और भारतीय सैन्य अकादमी से सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया.

सैन्य जीवन की शुरुआत

15 जुलाई 1936 को हबीब-उर-रहमान ने भारतीय सेना की विशेष सूची में शामिल होकर अपनी सैन्य यात्रा शुरू की. उन्हें ड्यूक ऑफ वेलिंगटन रेजिमेंट की दूसरी बटालियन में तैनात किया गया. बाद में उनका स्थानांतरण 14वीं पंजाब रेजिमेंट की पहली बटालियन में हुआ.

उनकी उत्कृष्ट नेतृत्व क्षमता और साहस के कारण उन्हें जल्द ही लेफ्टिनेंट के पद पर पदोन्नति मिली.

द्वितीय विश्व युद्ध और सिंगापुर का आत्मसमर्पण


द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हबीब-उर-रहमान की बटालियन को मलाया के मोर्चे पर भेजा गया. वहां उन्हें सिंगापुर की रक्षा में तैनात किया गया. 15 फरवरी 1942 को जापानी सेना के तीव्र आक्रमण के कारण सिंगापुर ने आत्मसमर्पण कर दिया.
इस चुनौतीपूर्ण समय के दौरान हबीब ने अपने नेतृत्व और साहस का बेजोड़ परिचय दिया.

भारतीय राष्ट्रीय सेना और सुभाष चंद्र बोस के साथ जुड़ाव

सिंगापुर में जापानी सेना द्वारा कैद किए गए भारतीय सैनिकों के बीच सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) का गठन किया. हबीब-उर-रहमान सुभाष चंद्र बोस के सबसे भरोसेमंद साथियों में से एक बन गए और आईएनए में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

उन्होंने सैनिकों में आत्मविश्वास और स्वतंत्रता के प्रति जुनून पैदा करने का कार्य किया.हबीब-उर-रहमान को विशेष रूप से सुभाष चंद्र बोस की कथित अंतिम उड़ान के लिए याद किया जाता है.

18 अगस्त 1945 को ताइपे से टोक्यो जाते समय बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस समय हबीब-उर-रहमान भी विमान में मौजूद थे और इस घटना के साक्षी बने.

कश्मीर युद्ध और पाकिस्तान में भूमिका

1947 में भारत के विभाजन के बाद हबीब-उर-रहमान पाकिस्तान चले गए. वहां उन्होंने प्रथम कश्मीर युद्ध में भाग लिया. वह मानते थे कि महाराजा हरि सिंह कश्मीर के मुसलमानों के खिलाफ योजनाएं बना रहे हैं. इस सोच के तहत उन्होंने पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल ज़मान कियानी के साथ मिलकर विद्रोह की शुरुआत की.

सम्मान और पुरस्कार

हबीब-उर-रहमान को उनके साहस और योगदान के लिए पाकिस्तान सरकार ने कई पुरस्कारों से सम्मानित किया, जिनमें सितारा-ए-पाकिस्तान, निशान-ए-इम्तियाज, और तमगा-ए-खिदमत शामिल हैं.

व्यक्तिगत जीवन और विरासत

हबीब-उर-रहमान का विवाह बादशाह बेगम से हुआ, जिनसे उनके दो बच्चे थे। उनका पूरा जीवन अपने देश और समुदाय की सेवा के लिए समर्पित रहा.

26 दिसंबर 1978 को हबीब-उर-रहमान का निधन हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवंत है. वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपने देश के सपनों के लिए अपनी जान की बाजी लगाई. उनका जीवन इस बात की मिसाल है कि देशभक्ति और बलिदान किसी धर्म या सीमा से परे होते हैं.

हबीब-उर-रहमान का नाम भारतीय इतिहास में एक ऐसे वीर के रूप में दर्ज है, जिन्होंने स्वतंत्रता के सपने को साकार करने के लिए हर संभव प्रयास किया. उनके जीवन की कहानी हर भारतीय को प्रेरित करती है कि सच्चे देशभक्त की परिभाषा धर्म, जाति या सीमा से परे होती है. उनका साहस और समर्पण हर भारतीय के दिल में गर्व और प्रेरणा का संचार करता है.