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नफरत का जवाब नफरत नहीं: रमजान में सौहार्द बनाए रखना ज़रूरी

मुस्लिम नाउ विशेष

हाल के दिनों में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, जहां कुछ कट्टरपंथी विचारधारा के लोग धार्मिक आधार पर बहिष्कार और विभाजन की राजनीति कर रहे हैं। खासतौर पर हिंदू-मुस्लिम व्यापारिक संबंधों को निशाना बनाया जा रहा है, जिससे सामाजिक सद्भाव और भाईचारा प्रभावित हो रहा है।

हाल ही में रमजान के दौरान, कुछ मुसलमानों द्वारा हिंदू व्यापारियों से सामान न खरीदने का आह्वान किया गया। हालांकि, मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से ने इस अपील को सिरे से खारिज कर दिया। पत्रकार वसीम अकरम त्यागी ने इस प्रवृत्ति की निंदा करते हुए इसे “बीमार मानसिकता” करार दिया और कहा कि यह समाज के लिए घातक है। उन्होंने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर लिखा:

“यह मानसिकता इस देश के मुसलमानों की दुश्मन है, सौहार्द और भाईचारे की दुश्मन है। ऐसे नफ़रती चिंटुओं का बहिष्कार करें। रमज़ान के पाक महीने में भी ऐसी घृणास्पद बातें करने वाला शख्स माहे रमज़ान की तौहीन कर रहा है। अल्लाह हिदायत दे। आमीन।”

सांप्रदायिक बहिष्कार की बढ़ती प्रवृत्ति

यह पहली बार नहीं है जब किसी धार्मिक समुदाय के व्यापारिक हितों को निशाना बनाया गया हो। पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों से ऐसी घटनाएं सामने आई हैं:

  • उत्तराखंड में मुस्लिम व्यापारियों को व्यवस्थित रूप से बाजारों से हटाया जा रहा है।
  • मथुरा-वृंदावन में होली के अवसर पर मुस्लिम व्यापारियों के प्रवेश पर रोक लगाने की मांग उठी।
  • दक्षिण भारत के कई मंदिर मेलों में मुस्लिम व्यापारियों को कारोबार करने से प्रतिबंधित किया गया।
  • दिल्ली, मुंबई, उत्तर प्रदेश और कई अन्य राज्यों में हिंदू बहुल इलाकों में मुस्लिम परिवारों के बसने का विरोध किया गया।

इस तरह की घटनाएं दोनों समुदायों के बीच अविश्वास और दूरियां बढ़ाती हैं। जब एक समुदाय के लोग बहिष्कार की नीति अपनाते हैं, तो प्रतिक्रिया में दूसरे समुदाय के कुछ तत्व भी इसी राह पर चलने लगते हैं, जिससे समाज में और अधिक विभाजन होता है।

रमजान: सौहार्द और भाईचारे का महीना

रमजान का महीना आत्मसंयम, इबादत और दान का होता है। यह वह समय होता है जब मुस्लिम समुदाय सब्र (धैर्य) और सद्भावना का संदेश देता है। ऐसे समय में किसी भी तरह का बहिष्कार या घृणा फैलाने वाली अपील इस पाक महीने की तौहीन मानी जाएगी।

भारत में लगभग 22 करोड़ मुस्लिम आबादी है और रमजान के दौरान अरबों रुपये का कारोबार होता है। गरीब से गरीब मुसलमान भी इस महीने में औसतन 5000 रुपये खर्च करता है। ऐसे में अगर मुसलमान भी बहिष्कार की राह पर चल पड़े तो इसका सीधा असर न केवल व्यापार पर पड़ेगा, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी नुकसान होगा।

क्या साजिश के तहत मुसलमानों को हाशिए पर धकेला जा रहा है?

पिछले एक दशक में मुसलमानों को सियासत से दूर रखने की रणनीति अपनाई गई है। धार्मिक और सामाजिक मुद्दों को उछालकर मुस्लिम समाज को शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक हिस्सेदारी से भटकाने का प्रयास किया जा रहा है।

  • पसमांदा और अशराफ के नाम पर मुस्लिम समाज में फूट डालने की कोशिशें तेज हुई हैं।
  • वक्फ बोर्ड, मुस्लिम पर्सनल लॉ, शरिया कानून, तलाक, मंदिर-मस्जिद विवाद जैसे मुद्दों पर मुसलमानों के विरुद्ध योजनाबद्ध अभियान चलाए जा रहे हैं।
  • सरकारी नीतियों में मुसलमानों को मजबूत प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है। कई मुस्लिम संस्थानों और मंत्रालयों की कमान अब गैर-मुसलमानों के हाथों में है।

यह सब एक बड़े सांस्कृतिक युद्ध का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसका उद्देश्य मुसलमानों को मुख्यधारा से काटना और हाशिए पर धकेलना है।

मुसलमानों के लिए आगे का रास्ता: संविधान और कानून का सहारा लें

इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी समुदाय ने नफरत के जवाब में नफरत को ही हथियार बनाया, तब-तब नुकसान उसी समुदाय का हुआ।

  • दिल्ली और संभल के दंगे इसका ताजा उदाहरण हैं, जहां दोनों ओर से नुकसान हुआ, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित वे लोग हुए जो रोज़मर्रा की मेहनत करके अपना घर चलाते हैं।
  • संविधान और कानून का पालन करना ही एकमात्र समाधान है। अगर कोई अन्याय हो रहा है, तो इसका जवाब कानूनी तरीके से और लोकतांत्रिक मंचों पर दिया जाना चाहिए।
  • सड़क पर विरोध करें, अपनी आवाज उठाएं, लेकिन हिंसा और बहिष्कार की नीति न अपनाएं।

क्या हम अफगानिस्तान-बांग्लादेश की राह पर जा रहे हैं?

अगर सांप्रदायिक नफरत इसी तरह बढ़ती रही, तो भारत को एक मजबूत लोकतंत्र से अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे हालात की ओर ले जाया जा सकता है।

भारत की पहचान गंगा-जमुनी तहजीब से है, जहां सभी धर्मों ने सदियों से मिलकर देश को आगे बढ़ाया है। अगर सांप्रदायिक बहिष्कार और घृणा की राजनीति इसी तरह चलती रही, तो इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा।

निष्कर्ष: मिल-जुलकर आगे बढ़ने की जरूरत

हमें यह समझना होगा कि सांप्रदायिकता की राजनीति सिर्फ उन लोगों को फायदा पहुंचाती है, जो समाज में नफरत फैलाकर सत्ता हासिल करना चाहते हैं। अगर मुसलमान भी बहिष्कार और नफरत की नीति अपनाने लगें, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान खुद मुस्लिम समाज को होगा।

इसलिए, हमें कानून, संविधान और लोकतांत्रिक तरीकों पर भरोसा बनाए रखना चाहिए। अपनी बात को सही मंचों पर उठाएं, विरोध करें, लेकिन नफरत के इस खेल में न फंसें। रमजान भाईचारे और मेलजोल का महीना है, इसे नफरत का नहीं, बल्कि प्रेम और सौहार्द का प्रतीक बनाएं।

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