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जंतर-मंतर पर मुसलमानों का ऐतिहासिक जमावड़ा, सांस्कृतिक हमलों पर बढ़ती चिंताएं

मुस्लिम नाउ विशेष

भारत में इस्लाम, मुसलमानों, उनकी तहज़ीब, विरासत और इतिहास पर लगातार हो रहे हमले अब गहरी छाप छोड़ने लगे हैं। इसी पृष्ठभूमि में, पिछले बारह वर्षों में पहली बार, देश के मुसलमान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर 13 मार्च को एकत्र होने जा रहे हैं। यह प्रदर्शन, मुस्लिम समुदाय की बढ़ती चिंताओं और उनके अधिकारों की सुरक्षा को लेकर एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।

इस विरोध प्रदर्शन के प्रचार के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने सोशल मीडिया पर वीडियो के माध्यम से एक बयान दिया है। उनके बयान से यह प्रतीत होता है कि भारत में मुसलमानों के लिए हालात बेहद कठिन हो चुके हैं। उन्होंने मदरसों, मस्जिदों और वक्फ से जुड़े मुद्दों को उठाते हुए कहा कि मुसलमान पहली बार इतने बड़े संकट का सामना कर रहे हैं।

क्या वाकई मुसलमान डरे हुए हैं?

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमें यह देखना होगा कि हालात इस मोड़ तक कैसे पहुंचे। यह सब अचानक नहीं हुआ। बीते वर्षों में कई अहम फैसले और घटनाएं हुईं, जिन्होंने इस स्थिति को जन्म दिया। जब तीन तलाक, अयोध्या विवाद और अन्य संवेदनशील मुद्दों पर फैसले आ रहे थे, तब इन मुद्दों पर प्रभावशाली मुस्लिम नेता और संगठन चुप्पी साधे रहे। CAA-NRC विरोध प्रदर्शनों के दौरान जब मुसलमानों के घर गिराए जा रहे थे और लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा था, तब भी यही लोग जंतर-मंतर पर नजर नहीं आए। लेकिन अब, जब मदरसों और वक्फ संपत्तियों पर कार्रवाई हो रही है, तब ये लोग मुसलमानों से सड़कों पर उतरने की अपील कर रहे हैं।

मुसलमानों के विरुद्ध सांस्कृतिक युद्ध?

यह केवल राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि एक गहरे सांस्कृतिक संघर्ष की ओर इशारा करता है। यह संघर्ष केवल कानूनों और नीतियों तक सीमित नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों, प्रतीकों और परंपराओं को भी निशाना बनाया जा रहा है। उत्तराखंड और संभल जैसी जगहों पर हालिया घटनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम विरासत और सांस्कृतिक प्रतीकों को योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया जा रहा है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या जंतर-मंतर पर प्रदर्शन से मुसलमानों की समस्याएं हल हो जाएंगी? यदि जनगणना में मुस्लिम समुदाय की बातों को दरकिनार कर दिया जाता है, तो ऐसे प्रदर्शनों का प्रभाव सीमित हो सकता है। इसके बजाय, इस्लामिक संस्थानों और समुदाय के भीतर आत्ममंथन की जरूरत है। क्या हमारे धार्मिक और सामाजिक संगठन अपने असली उद्देश्य से भटक चुके हैं? क्या उनमें ऐसे लोग शामिल हो गए हैं, जो मुस्लिम समुदाय के वास्तविक हितों की रक्षा नहीं कर रहे? यह सोचने का समय है कि किसे नेतृत्व सौंपा जाए और कौन वास्तव में समुदाय को आगे ले जाने का इरादा रखता है।

समाधान की दिशा में अगला कदम

भारत में अब भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो शांति और आपसी सम्मान में विश्वास रखते हैं। उनके साथ संवाद बढ़ाने और सहयोग का रास्ता तलाशने की जरूरत है। सांस्कृतिक संघर्ष को रोकने और मुस्लिम विरासत की सुरक्षा के लिए रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। केवल विरोध प्रदर्शन पर्याप्त नहीं होंगे, बल्कि व्यापक स्तर पर सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है।

जंतर-मंतर पर इकट्ठा होना एक प्रतीकात्मक कदम हो सकता है, लेकिन असली बदलाव तभी आएगा जब मुस्लिम समुदाय अपने भीतर आत्ममंथन करेगा, सही नेतृत्व को आगे लाएगा और व्यापक समाज के साथ संवाद स्थापित करेगा। यह समय केवल विरोध करने का नहीं, बल्कि ठोस रणनीति अपनाने का है।