Culture

कन्नड़ साहित्य का ऐतिहासिक पल: बानू मुश्ताक की ‘हार्ट लैंप’ अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट

मुस्लिम नाउ ब्यूरो,नई दिल्ली

कन्नड़ साहित्य में एक नया इतिहास रचते हुए, प्रख्यात लेखिका, कार्यकर्ता और अधिवक्ता बानू मुश्ताक का लघु कथा संग्रह ‘हार्ट लैंप’ इस वर्ष के अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है। 76 वर्षीय मुश्ताक इस प्रतिष्ठित सूची में शामिल होने वाली पहली कन्नड़ लेखिका बन गई हैं।

उनकी यह उपलब्धि केवल साहित्यिक जगत के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में भी बेहद महत्वपूर्ण है। यह संग्रह दीपा भाष्थी द्वारा अंग्रेजी में अनूदित किया गया है और इसमें 12 कहानियाँ शामिल हैं, जो 1990 से 2023 के बीच लिखी गईं। उनकी कहानियाँ उन संघर्षों, असमानताओं और सामाजिक जटिलताओं को दर्शाती हैं, जिनसे आमतौर पर भारतीय समाज में महिलाएँ, विशेष रूप से मुस्लिम महिलाएँ, जूझती हैं।


बचपन से संघर्ष की कहानी

1950 के दशक में कर्नाटक के शिवमोगा में जन्मी बानू मुश्ताक का शिक्षा के प्रति झुकाव शुरू से ही स्पष्ट था। जब उनके पिता उन्हें एक ईसाई मिशनरी स्कूल में दाखिल कराने गए, तो प्रबंधन ने संकोच व्यक्त किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि वह कन्नड़ भाषा नहीं सीख पाएँगी। हालाँकि, छोटी बानू ने केवल कुछ दिनों में यह चुनौती पार कर ली और अपनी प्रतिभा साबित की।

यही संघर्ष आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बना और उन्होंने अपने लेखन में भी इसी तेवर को बनाए रखा। समाज की रूढ़ियों और पितृसत्तात्मक सोच के विरुद्ध उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की, जिससे उन्हें लेखिका, पत्रकार और कार्यकर्ता के रूप में एक मजबूत पहचान मिली।


पत्रकारिता और सामाजिक सक्रियता का सफर

1974 में उनकी पहली कहानी ‘प्रजामाथा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई और जल्द ही उन्होंने कर्नाटक के प्रमुख टैब्लॉयड ‘लंकेश पत्रिके’ में बतौर रिपोर्टर काम करना शुरू किया। यहाँ उन्होंने खोजी पत्रकारिता के ज़रिए समाज में व्याप्त अन्याय और असमानताओं पर प्रकाश डाला।

1983 में उन्होंने राजनीति में कदम रखा और हसन सिटी नगर परिषद की सदस्य बनीं। हालाँकि, 1990 में संपादक पी. लंकेश से मतभेदों के बाद उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी और अपने परिवार की आर्थिक मदद के लिए वकालत शुरू की।


‘हार्ट लैंप’ और उनकी साहित्यिक यात्रा

बानू मुश्ताक की लेखनी महिला अधिकारों, सामाजिक न्याय और अल्पसंख्यक मुद्दों पर केंद्रित रही है। उनके प्रमुख लघु कथा संग्रहों में शामिल हैं:

  • हेज्जे मूडीदा हादी (1990)
  • बेन्की माले (1999)
  • एडेया हनाटे (2004)
  • सफीरा (2006)
  • हसीना मट्टू इटारा कथेगलु (2015)
  • हेन्नू हदीना स्वयंवर (2022)

उनकी रचनाओं को अंग्रेजी, मलयालम, तमिल, पंजाबी और उर्दू में अनुवाद किया जा चुका है।


साहित्य के लिए संघर्ष और आलोचना

बानू मुश्ताक हमेशा से समाज के ठेकेदारों के निशाने पर रही हैं। वर्ष 2000 में जब उनकी एंथोलॉजी ‘बेन्की माले’ प्रकाशित हुई, तो उन्होंने एक साक्षात्कार में महिलाओं को मस्जिदों में नमाज पढ़ने का अधिकार मिलने की वकालत की। इससे कट्टरपंथी वर्ग उनके खिलाफ हो गया और उन पर जानलेवा हमला तक हुआ

हालाँकि, इन हमलों से वह पीछे नहीं हटीं। उन्होंने निडरता के साथ अपने विचार व्यक्त किए और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई जारी रखी।


अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार में नामांकन

बानू मुश्ताक की किताब ‘हार्ट लैंप’ को अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है। बुकर पुरस्कार पैनल ने उनके लेखन की प्रशंसा करते हुए कहा:

“उनकी कहानियों में जीवंत किरदार होते हैं – जुझारू बच्चे, विद्रोही दादियाँ, कठोर मौलवी, चालाक भाई, और सबसे बढ़कर माताएँ, जो अपने जीवन के लिए संघर्ष करती हैं। उनकी लेखनी मानवीय स्वभाव को बारीकी से पकड़ती है और एक समृद्ध भाषा शैली से पाठकों को गहराई तक छूती है।”


बानू मुश्ताक की कलम से…

Q: आपको लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है?
A: “मेरे लिए लिखना सांस लेने जैसा है। मैं अपने आसपास जो कुछ भी देखती और महसूस करती हूँ, उसे कहानियों में ढाल देती हूँ। जब मैं किसी अन्याय को देखती हूँ, तो चुप नहीं बैठ सकती – मेरा लेखन ही मेरा प्रतिरोध है।”

Q: आपके विचारों और लेखन से कई लोग नाराज़ हुए, आप इससे कैसे निपटती हैं?
A: “मुझे 2000 में बहुत कठिन दौर से गुजरना पड़ा। जब मुझे जान से मारने की धमकियाँ मिलीं, तो लगा कि मैं हार जाऊँगी। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं चुप हो गई, तो कई अन्य महिलाओं की आवाज़ भी दबा दी जाएगी। इसलिए मैंने लिखना जारी रखा।”


काबिल ए गौर

बानू मुश्ताक की जीवन यात्रा संघर्ष, प्रतिबद्धता और सामाजिक बदलाव की प्रेरणा से भरी हुई है। उनकी लेखनी कन्नड़ साहित्य में नई ऊर्जा लेकर आई है और उन्होंने महिलाओं, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ को बुलंद किया है।

‘हार्ट लैंप’ का अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार में नामांकित होना सिर्फ एक साहित्यिक उपलब्धि नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम भी है।

क्या बानू मुश्ताक इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को जीत पाएंगी? यह जानने के लिए हमारे साथ बने रहें!