मीडिया आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है? समीर सिद्दीकी की चेतावनी और मीडिया की गिरती विश्वसनीयता पर सवाल
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मुस्लिम नाउ विशेष
हाल ही में पहलगाम में हुए भयावह आतंकी हमले और उसके बाद भारत सरकार द्वारा चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, भारत और पाकिस्तान के मीडिया की भूमिका एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गई है। जिस तरह से दोनों देशों की मीडिया ने इस संवेदनशील मामले को कवर किया, वह केवल सूचना देने से अधिक, भावनाएं भड़काने और ध्रुवीकरण फैलाने जैसा प्रतीत हुआ। इस पूरे घटनाक्रम ने एक पुराने, लेकिन अब और भी प्रासंगिक हो चुके सवाल को फिर से जन्म दिया है — क्या मीडिया खुद आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है?

इस बहस को फिर से ज़ोर देने का काम किया है यूपीएससी अभ्यर्थियों को कोचिंग देने वाले शिक्षक और सोशल कमेंटेटर समीर अहमद सिद्दीकी ने। अपने हालिया व्लॉग में समीर सिद्दीकी ने बेहद तार्किक ढंग से यह साबित करने की कोशिश की है कि मीडिया, विशेष रूप से इंटरनेट युग के बाद का मीडिया, आतंकवाद की प्रणालीगत मदद कर रहा है — चाहे वह जानबूझकर हो या अंजाने में।
“मीडिया ही आतंकवाद की ऑक्सीजन है” — समीर अहमद सिद्दीकी का तर्क
समीर अहमद सिद्दीकी कहते हैं:
“आतंकवादियों को किसी को मारने में उतनी दिलचस्पी नहीं होती, जितनी इस बात में कि उस हमले की फुटेज कितनी बार देखी गई, कितने लोगों के मन में डर बैठा, और कितनों के ज़हन में नफरत भरी गई।”
यह विचार केवल उनका निजी मत नहीं है, बल्कि वह इसे कई वैश्विक शोधों और पुस्तकों के हवाले से पुष्ट करते हैं। उन्होंने विशेष रूप से वाल्टर लैक्वेयर की मशहूर किताब “एज ऑफ टेररिज्म” का उल्लेख किया, जिसमें लिखा है:
“मीडिया आतंकवाद की सबसे अच्छी दोस्त है।”

उसी किताब में एक और उल्लेखनीय वाक्य है:
“आतंकवाद का काम तब तक अधूरा है, जब तक कि कोई मीडिया उसे लोगों तक न पहुंचा दे।”
इसी संदर्भ में ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के विचार भी सामने लाए गए हैं, जो कहती थीं:
“मीडिया इज़ द ऑक्सीजन ऑफ टेररिज्म”
(मीडिया ही आतंकवाद की सांसें हैं)
UPSC पाठ्यक्रम में भी शामिल है — “मीडिया और आतंकवाद के बीच संबंध”
समीर अपने व्लॉग में यह भी बताते हैं कि यूपीएससी के सामान्य अध्ययन के पेपर-3 में “लिंकएज बिटवीन मीडिया एंड टेररिज्म” एक प्रमुख टॉपिक है, जो इस विषय की गंभीरता को दर्शाता है।
समीर ने एक और किताब “Mass-Mediated Terrorism” का हवाला देते हुए कहा:

“मीडिया कोई निष्क्रिय उपकरण नहीं है जो सिर्फ खबरें दिखाता है। वह खुद एक सक्रिय खिलाड़ी है जो आतंकवाद को फैलाने में भागीदार बन जाता है।”
इंटरनेट के बाद मीडिया की स्वतंत्रता पर संकट और पार्टियों का एजेंडा
समीर सिद्दीकी एक और चिंताजनक पहलू की ओर इशारा करते हैं — इंटरनेट आने के बाद से जब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विज्ञापन राजस्व घटने लगा, तो कुछ मीडिया हाउस राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे को आगे बढ़ाने के सौदे में शामिल हो गए।
“मीडिया को अब ‘पेड’ होना बंद हो गया है। अब कुछ राजनीतिक दल अपने राजनीतिक एजेंडे को मीडिया से इस शर्त पर प्रचारित करवा रहे हैं कि उन्हें आर्थिक मदद दी जाएगी।”

समीर का यह आरोप न सिर्फ झकझोरने वाला है, बल्कि मीडिया की आज की सच्चाई को भी उजागर करता है।
चुनाव, विचारधारा और धार्मिक उन्माद
समीर यह भी कहते हैं कि:
“अब चुनाव विकास के मुद्दों पर नहीं, बल्कि विचारधारा और ध्रुवीकरण पर जीते जाते हैं।”
यह बात तब और स्पष्ट होती है जब हम देख रहे हैं कि चुनावों से ठीक पहले मीडिया चैनलों पर हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, भारत-पाकिस्तान जैसे उग्र मुद्दे एकाएक ज़ोर पकड़ लेते हैं।
वह कहते हैं कि देश का बड़ा नेता भी अब यह कहने से नहीं चूकता कि:
- हिंदू महिलाओं के मंगलसूत्र खतरे में हैं,
- मुसलमान ‘बाहरी’ हैं,
- और मुसलमानों की जनसंख्या से बहुसंख्यक खतरे में हैं।
मीडिया और आतंकवाद का खतरनाक गठजोड़
समीर की बातों में सबसे अहम चेतावनी यह है कि आतंकवादी संगठनों का असली उद्देश्य केवल शारीरिक नुकसान पहुंचाना नहीं है, बल्कि वे चाहते हैं कि:
- लोग नफरत से भर जाएं,
- समाज ध्रुवीकृत हो,
- और आम लोग एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगें।
इस उद्देश्य को पूरा करने में मीडिया जब उत्तेजक हेडलाइन, डिबेट शो और भड़काऊ रिपोर्टिंग करता है, तो वह आतंकवादियों के एजेंडे को परोक्ष रूप से आगे बढ़ाता है।
निष्कर्ष: जब मीडिया खुद ही हथियार बन जाए
समीर अहमद सिद्दीकी की इस बहस ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम जिस मीडिया पर भरोसा करते हैं, वह अब सूचना का साधन कम और विचारधारा का हथियार ज्यादा बन चुका है?
यदि मीडिया का यही रुख जारी रहा, तो आतंकवादी अपने लक्ष्य बिना बंदूक उठाए भी हासिल करते रहेंगे — डर, भ्रम और नफरत के ज़रिए।
अब समय आ गया है कि मीडिया की भूमिका पर समाज, सरकार और शिक्षा जगत मिलकर गंभीरता से चिंतन करें, ताकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ सांप्रदायिकता का वाहक न बन जाए।
लेख आधारित है समीर अहमद सिद्दीकी के व्लॉग एवं संदर्भित पुस्तकों पर।