जेआईएच: नए कानून न्यायपालिका पर अधिभार और नागरिक स्वतंत्रता को कमजोर करेंगे
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो,नई दिल्ली
जमाअत-ए-इस्लामी हिंद (जेआईएच) ने भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में होने वाले बदलावों पर चिंता व्यक्त की है, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को जुलाई 2024 से नव पारित भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) कानूनों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है.
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खबर की खास बातें
- आपराधिक न्याय प्रणाली में बदलाव: भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) से प्रतिस्थापित किया गया.
- न्यायपालिका पर अधिभार: जेआईएच के अनुसार, दो समानांतर आपराधिक न्याय प्रणालियों से न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और न्याय मिलने में देरी होगी.
- उचित चर्चा का अभाव: प्रोफेसर सलीम इंजीनियर का कहना है कि नए कानूनों को बिना उचित चर्चा के संसद में पारित किया गया.
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर: बीएनएस की धारा 152 को राजद्रोह कानून के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करेगी.
- पुलिस की जवाबदेही: नए कानूनों में पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने का प्रावधान नहीं है, जिससे भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का खतरा बढ़ेगा.
- डिजिटल न्याय प्रणाली: 2027 तक न्याय प्रणाली को डिजिटल बनाने का प्रयास सराहनीय है, लेकिन यह गरीब और हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए भेदभावपूर्ण हो सकता है.
खबर विस्तार से
एक बयान में जेआईएच के उपाध्यक्ष प्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने कहा, “हम नए आपराधिक कानूनों के पारित होने से भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में होने वाले बदलावों से चिंतित हैं. जुलाई 2024 से 1 जुलाई से पहले और बाद में दर्ज मामले अलग-अलग कानूनों के अंतर्गत आएंगे.
दो समानांतर आपराधिक न्याय प्रणालियां अस्तित्व में आएंगी, जिससे कानूनी प्रक्रिया और जटिल हो जाएगी.पहले से ही कार्यभार से दबी न्यायपालिका पर अधिभार होगा. इससे भ्रम की स्थिति पैदा होगी. न्याय मिलने में देरी होगी.जमाअत-ए-इस्लामी हिंद का मानना है कि आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम में साधारण संशोधन, पूरे कानून को फिर से लिखने की तुलना में अधिक उपयुक्त होता.”
जमाअत उपाध्यक्ष ने कहा, “इन नए कानूनों में कई समस्याएं हैं. सबसे पहले, इन्हें संसद में उचित चर्चा के बिना दिसंबर 2023 में पारित कर दिया गया, जबकि कई विपक्षी सदस्यों को निलंबित कर दिया गया था.हम अपनी कानूनी प्रणाली को उपनिवेश मुक्त करने के किसी भी वास्तविक प्रयास का समर्थन करते हैं, लेकिन पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाए बिना वास्तविक उपनिवेश मुक्ति संभव नहीं है.
उदाहरण के लिए, भले ही सरकार पुराने राजद्रोह कानून को खत्म करने का दावा करती है, लेकिन एक नई, अधिक कठोर धारा (बीएनएस की धारा 152) पेश की गई है. पुराने राजद्रोह कानून की तरह, यह नई धारा भी सुरक्षा चिंताओं की आड़ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति को प्रभावित करेगी. इसमें झूठे मामले दर्ज करने के लिए पुलिस अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने का कोई प्रावधान नहीं है.
नये कानून के तहत पुलिस को 3 से 7 वर्ष के कारावास की सजा वाले अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करने का अधिकार दिया गया है. इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा और वंचित वर्गों के लिए एफआईआर दर्ज कराना कठिन हो जाएगा. पुलिस अब 60 से 90 दिनों की अवधि के दौरान किसी भी समय 15 दिनों तक की हिरासत का अनुरोध कर सकती है.
इससे लम्बे समय तक हिरासत में रहना पड़ सकता है . सत्ता का दुरुपयोग हो सकता है, जिससे नागरिक स्वतंत्रता कमजोर हो सकती है.हालांकि 2027 तक न्याय प्रणाली (एफआईआर, निर्णय आदि) को डिजिटल बनाने के प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन यह उन गरीब और हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए भेदभावपूर्ण होगा, जिनके पास टेक्नोलॉजी और इंटरनेट तक पहुंच नहीं है.”