लोकसभा चुनाव 2024: पसमांदा के साथ संघ और बीजेपी का वादा खोकला साबित
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
आम चुनाव करीब आते ही पसमांदा की वकालत करने वाली बीजेपी और संघ की कलई खुल गई. यहां तक कि जलसा-जुलूस में पसमांदा के पिछड़ापन के लिए मुसलमानांे की कुछ जातियांे और कांग्रेस को दोष देने वाले बीजेपी नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुसलमानांे को आरक्षण देने का खुलकर दुष्प्रचार कर रहे हैं.
हद यह है कि चुनाव के अंतिम चरण में मुसलमानों और दलितों को लड़ाने के लिए बीजेपी और संघ के नेताओं की ओर से यहां तक फैलाया जा रहा है कि कांग्रेस अनुसूचित जाति और जनजाति को दी गई आरक्षण की सुविधाआंे में कटौती कर मुसलमानांे को देने जा रही है. इसके लिए कर्नाटक का उदाहरण दिया जा रहा है. दूसरी तरफ हकीकत यह है कि कांग्रेस ने कभी ऐसी कोई बात नहीं की. यहां तक कि उसके घोषणा पत्र में भी मुसलमानों को 15 प्रतिशत आरक्षण देने की कोई बात नहीं है.
कांग्रेसी नेता इस बारे में कई बार सफाई दे चुके हैं. रही बात कर्नाटक की तो वहां मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है, वह भी दलितों का कोटा काट कर नहीं. जबकि गुजरात और राजस्थान, जहां बीजेपी की सरकार है वहां कई मुस्लिम जातियों को भी इसी व्यवस्था के तहत आरक्षण मिला हुआ है और किसी को इसपर कोई ऐतराज भी नहीं है.
फिर मुसलमानों को अलग से आरक्षण देने का कहां सवाल पैदा होता है ? इसके इतर आरएसएस कार्यकारिणी के सदस्य और आरएसएस की छत्रछाया में चलने वाले मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मार्गदर्शक इंद्रेश कुमार सीना ठोंक कर कह रहे हैं कि मुस्लिम आरक्षण के हिमायती मुस्लिम वोट खरीदने की लालच में जहर बो रहे हैं. ऐसे लोग देश विभाजन के द्रोही जैसे हैं.
हाल में इंद्रेश कुमार ने नई दिल्ली में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की बैठक में कहा कि इस तरह के तुष्टिकरण के चक्कर में देश जुड़ेगा नहीं, बंट जाएगा. उनका कहना है कि धर्म और मजहब के नाम पर सन 1949 में जब संविधान निर्माण हो रहा था तब पंडित नेहरू समेत सभी लोगों ने मिल कर धर्म के नाम पर आरक्षण का विरोध किया था. इसका कारण था कि भारत देश आजादी के नाम पर बंट कर हिंदुस्तान और पाकिस्तान बन गया था. जिसके कारण 10 से12 लाख लाशें बिछीं थीं और दो ढाई करोड़ लोग उजड़े थे.
मोर्चा की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार कांग्रेस और इंडी गठबंधन पर सवाल दागते हुए कहते हैं अगर मुस्लिमों को आरक्षण दिया जाएगा तो फिर क्या बाकी समुदाय आरक्षण को लेकर आंदोलन नहीं करेंगे? उन्होंने सवाल किया कि मुस्लिमों को आरक्षण के बाद सिखों, बौद्धों, पारसियों, जैनियों, ईसाइयों एवं अन्य धर्मों के भी अनेक फिरके हैं… क्या सभी आंदोलन के लिए नहीं उठ खड़े होंगे? ऐसे में आप किसको आरक्षण देंगे और किसको नहीं देंगे? क्या इससे देश की एकता अखंडता संप्रभुता समरसता, भाईचारा नहीं बर्बाद होगी?
हालांकि, यहां बीजेपी और संघ के नेताओं से यह पूछा जा सकता है कि यदि किसी जाति समुदाय को ऊपर उठाने के लिए आरक्षण ही एक मात्र रास्ता है तो केवल हिंदू की कुछ जनजातियों एवं जातियों को ही क्यों ? पसमांदा को आरक्षण नहीं मिलेगा तो उनका उत्थान कैसे होगा ?
आम चुनाव से पहले बीजेपी और संघ की ओर से पिछड़ी जातियों के कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों को खड़ाकर ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने की कोशिश की गई थी पसमांदा का कल्याण बीजेपी के साथ रहने में ही संभव है. यहां तक कि ऐसे लोग खुले तौर पर यह कहते हुए संघ-बीजेपी की वकालत कर रहे थे कि उन्हें भी दलितों की तरह आरक्षण देकर उन्हें ऊपर उठाया जा सकता है.खासकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान तो ऐसे बुद्धिजीवियों ने खूब भ्रम फैलाया था.
बीजेपी नेताओं से पूछा जा सकता है कि अगर पसमांदा को आरक्षण नहीं दे सकते तो उनके पास कौन तरीके हैं जिससे उनका आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक उत्थान संभव है. यदि है तो उन्होंने अब तक इसका खुलासा क्यों नहीं किया ? इसके अलावा जिन्हें आरक्षण मिल रहा है, उनका उत्थान भी ऐसे ही फाॅर्मूले से अब तक क्यों नहीं किया गया ? बीजेपी नेता सीना ठोंक कर देश के जिन 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की बात कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश दलित और आदिवासी हैं. उन्हें पिछले चार साल से ‘भिखारी’बनाकर रखने की बजाए, अपने पैरों पर खड़ा करने लायक क्यों नहीं बनाया गया ?
दरअसल, सभी सियासी पार्टियों को दलित, पसमांदा के नाम पर वोट तो चाहिए, पर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए किसी के पास कोई उपाए नहीं है. संविधान बनने के बाद से जिन्हें आरक्षण मिला हुआ है क्या वे अब तक अपने पैरों पर खड़े हो पाए हैं ? यदि नहीं तो फिर पसमांदा का कल्याण ‘मनसलवात’ से होगा ?
संघ और बीजेपी के इसी दोहरापन के चलते लोकसभा चुनाव के दौरान कहीं भी पसमांदा इसके साथ खड़ा नहीं दिखा. यहां तक कि वे मुस्लिम बुद्धिजीवी जो पसमांदा के कल्याण के लिए बीजेपी से उम्मीद लगाए बैठे थे और खुले तौर पर न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर इसकी वकालत कर रहे थे, मौन धारण किए हुए हैं. देश का मुसलमान ही नहीं दलित तबका भी यह समझ चुका है कि आरक्षण के नाम पर उनके बीच फूट डालने की कोशिश चल रही है, ताकि उसके नाम पर लोकसभा की कुछ सीटें आ जाएं और सत्ता के करीब पहुंच जाएं.
पिछले दस साल से बीजेपी सत्ता में है, क्या वह बता सकती है कि सिवाए 80 करोड़ गरीब, दबी-कुचली जनता को मुफ्त राशन देने के उन्हें उपर उठाने के लिए कौन-कौन से ठोस प्रयास किए हैं. ग्रामीण इलाके में रहने वाले ज्यादातर दलित और आदिवासी काश्तकारी से जुड़े हैं. इन दस वर्षों में केंद्र सरकार का रवैया ऐसा रहा है कि किसानांे को बार बार सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करना पड़ा. ऐसे में पसमांदा ही नहीं दलित भी बीजेपी-संघ की सच्चाई समझ चुके हैं. होना वही है जो पुरानी व्यवस्था चली आ रही है, इसलिए वे किसी के बहकावे में आकर वोट डालने वाले नहीं.
मुख्य बिंदु:
- पसमांदा मुसलमानों की निराशा: बीजेपी और संघ के दोहरे मापदंड के कारण पसमांदा मुसलमानों में निराशा बढ़ी.
- चुनावी दुष्प्रचार: चुनाव के अंतिम चरण में मुसलमानों और दलितों को लड़ाने का प्रयास, कांग्रेस पर आरक्षण कटौती का झूठा आरोप.
- कांग्रेस का रुख: कांग्रेस ने कभी मुस्लिमों को 15 प्रतिशत आरक्षण देने की बात नहीं कही, कर्नाटक में चार प्रतिशत आरक्षण दलितों का कोटा काटकर नहीं दिया गया.
- संघ के बयान: इंद्रेश कुमार ने कहा मुस्लिम आरक्षण देश की एकता के लिए खतरा, धार्मिक आधार पर आरक्षण का विरोध.
- बीजेपी का दोहरापन: संघ और बीजेपी ने पहले पसमांदा के कल्याण का वादा किया, अब आरक्षण का विरोध कर रहे हैं.
- वोट बैंक राजनीति: सभी पार्टियां वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं, पसमांदा और दलितों के उत्थान के लिए ठोस उपाय नहीं.
- मुफ्त राशन योजना: बीजेपी ने 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन दिया, लेकिन सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए ठोस कदम नहीं उठाए.
- किसान आंदोलन: केंद्र सरकार के रवैये के कारण किसान और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए.