मदरसा सर्वेक्षणः जिनके घर शीशे के हों, दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेका करते !
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो नई दिल्ली
असम की प्रदेश सरकार जहां आतंकवाद के नाम पर मदरसों के खिलाफ कार्रवाई पर आमादा है, वहीं उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सहित भारतीय जनता पार्टी शासित प्रदेशों में मदरसों के सर्वेक्षण की कार्रवाई शुरू कर दी गई है. हालांकि अभी तक उनकी ओर से इस सर्वेक्षण के पीछे के उद्देश्य का खुलासा नहीं किया गया है. मध्य प्रदेश की शिक्षा मंत्री की मानें तो गैर पंजीकृत कई मदरसे एक छोटे से कमरे में चल रहे हैं. ऐसे मदरसों में बच्चों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है. मगर यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या प्रदेश सरकारें नैतिक स्तर पर मदरसों का सर्वेक्षण कराने की हकदार हैं. जिनके प्रदेशों में एक कमरे की बाल बाड़ियों में बच्चे ठूंस ठूंस के भरे हों, स्कूल भवन के अभाव में बच्चे जाड़ा, गर्मी और बरसात में खुले आकाश के नीचे पढ़ने को विवश हों, जिनके स्कूलों में टीचर, खेल के मैदान और शौचालय नहीं है, वह मदरसों का सर्वेक्षण करा कर क्या इसकी स्थिति सुधार सकते हैं ? जमीयत उलेमा ए हिंद के प्रमुख मौलाना मदनी ने सवाल उठाया है कि पहले सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारी जाए और यह बताया जाए कि सर्वेक्षण कराने के बाद मदरसों को क्या मिलने वाला है ? उसके बाद हमें सर्वेक्षण कराने से ऐतराज नहीं !
बदहाली के शिकार हैं सरकारी स्कूल
डीडब्लयूडी मीडिया ऑउट लेट के प्रभाकर मणि तिवारी और शिवप्रसाद जोशी ने सरकारी स्कूल की बदहाली पर रिपोर्ट प्रकाशित की है, जो बताती है कि मदरसों की बदहाली और शिक्षा के नाम पर ढोंग करने वाली प्रदेश सरकारें खुद अपने सरकारी स्कूल की स्थिति नहीं संभाल पा रही हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि स्कूल शिक्षा विभाग की रिपोर्ट से पता चलता है कि कोई दशक पहले शिक्षा का अधिकार कानून के लागू होने के बावजूद सरकारी स्कूलों की हालत इतनी दयनीय क्यों है और लाखों छात्र बीच में ही स्कूल क्यों छोड़ रहे हैं.
रिपोर्ट क्या कहती है
मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति ने बीते साल संसद में जो रिपोर्ट पेश की है वह देश में सरकारी स्कूलों की दयनीय हालत की हकीकत पेश करती है. इसमें कहा गया है कि देश के लगभग आधे सरकारी स्कूलों में न तो बिजली है और न ही छात्रों के लिए खेल-कूद का मैदान. समिति ने स्कूल शिक्षा विभाग के लिए बजट प्रावधानों की 27 फीसदी कटौती पर भी गहरी चिंता जताई है. स्कूली शिक्षा विभाग ने सरकार से 82,570 करोड़ रुपये मांगे थे. लेकिन उसे महज 59,845 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए. सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों के हवाले रिपोर्ट में कहा गया है कि महज 56 फीसदी स्कूलों में ही बिजली है. मध्य प्रदेश और मणिपुर की हालत तो सबसे बदतर है. इन दोनों राज्यों में महज 20 फीसदी सरकारी स्कूलों तक ही बिजली पहुंच सकी है. ओडीशा व जम्मू-कश्मीर के मामले में तो यह आंकड़ा 30 फीसदी से भी कम है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 57 फीसदी से भी कम स्कूलों में छात्रों के लिए खेल-कूद का मैदान है. रिपोर्ट के मुताबिक आज भी देश मे एक लाख से ज्यादा सरकारी स्कूल ऐसे है जो अकेले शिक्षक के दम पर चल रहें है. देश का कोई ऐसा राज्य नही है जहां इकलौते शिक्षक वाले ऐसे स्कूल न हो. यहां तक की राजधानी दिल्ली मे भी ऐसे 13 स्कूल है. इन स्कूलों में इकलौते शिक्षक के सहारे पढ़ाई-लिखाई के स्तर का अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं है.
रिपोर्ट में सरकारी स्कूलों के आधारभूत ढांचे पर भी चिंता जताई गई है. इसमें सरकार की खिंचाई करते हुए कहा गया है कि हाल के वर्षों में हायर सेकेंडरी स्कूलों की इमारत को बेहतर बनाने, नए कमरे, पुस्तकालय और प्रयोगशालाएं बनाने की प्रगति बेहद धीमी है. समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2019-20 के लिए अनुमोदित 2,613 परियोजनाओं में से चालू वित्त वर्ष के पहले नौ महीनों के दौरान महज तीन परियोजनाएं ही पूरी हो सकी है. रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि इन परियोजनाओं में ऐसी देरी से सरकारी स्कूलों से छात्रों के मोहभंग की गति और तेज हो सकती है.
समिति ने कहा है कि 31 दिसंबर, 2019 तक किसी भी सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल में एक भी नई कक्षा नहीं बनाई जा सकी है.यह हालत तब तरह है जबकि वर्ष 2019-20 के लिए 1,021 नई कक्षाओं के निर्माण को मंजूरी दी गई थी. इसी तरह 1,343 प्रयोगशालाओं के अनुमोदन के बावजूद अब तक महज तीन की ही स्थापना हो सकी है. पुस्तकालयों के मामले में तो तस्वीर और बदतर है. 135 पुस्तकालयों और कला-संस्कृति कक्षों के निर्माण का अनुमोदन होने के बावजजूद अब तक एक का भी काम पूरा नहीं हुआ है. लगभग 40 फीसदी स्कूलों में चारदीवारी नहीं होने की वजह से छात्रों की सुरक्षा पर सवालिया निशान लग रहे हैं. रिपोर्ट में सरकार को इन स्कूलों में चारदीवारी बनाने और तमाम स्कूलों में बिजली पहुंचाने की सलाह दी गई है.
इससे पहले एनुअल स्टेट्स आफ एजुकेशन रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 55.8 फीसदी छात्र दूसरी कक्षा की पुस्तकें तक नहीं पढ़ सकते. इसी तरह आठवीं के 70 फीसदी छात्र ठीक से गुणा-भाग नहीं कर सकते. इससे इन स्कूलों में शिक्षा के स्तर का पता चलता है. वैसे, केंद्र की तमाम सरकारें शिक्षा के अधिकार पर जोर देती रही हैं. इस कानून में साफ गया है कि सरकारी और निजी स्कूलों मे हर 30-35 बच्चों पर एक शिक्षक होना चाहिए. हलाकि सरकारी आंकड़ो के मुताबिक देश मे छात्र-शिक्षक अनुपात का औसत बीते एक दशक के दौरान काफी सुधरा है. लेकिन अहम सवाल यह है कि जब देश के लगभग 13 लाख मे से एक लाख सरकारी स्कूल इकलौते शिक्षक के भरोसे चल रहे हों तो यह अनुपात बेमतलब ही है.
शिक्षाविदों का कहना है कि तमाम सरकारें शिक्षा के कानून अधिनियम का हवाला देकर सरकारी स्कूलों के मुद्दे पर चुप्पी साध लेती हैं. अब तक किसी ने भी इन स्कूलों में आधारभूत सुविधाओं की बेहतरी या शिक्षा का स्तर सुधारने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है. एक शिक्षाविद् प्रोफेसर रमापद कर्मकार कहते हैं, सरकारी स्कूलों में आधारभूत ढांचे और शिक्षकों का भारी अभाव है. महज मिड डे मील के जरिए छात्रों में पढ़ाई-लिखाई के प्रति दिलचस्पी नहीं पैदा की जा सकती. लेकिन किसी भी सरकार ने इस पपर ध्यान नहीं दिया है.” वह कहते हैं कि जब तक सरकारी स्कूलों में आधारभूत सुविधाएं जुटाने और शिक्षकों के खाली पदों को भरने की दिशा में ठोस पहल नही होती, हालत दयनीय ही बनी रहेगी. यही वजह है कि निजी स्कूलों में छात्रों की भीड़ लगातार बढ़ रही है.
ग्रामीण भारत में सरकारी स्कूल शिक्षा का अहम जरिया हैंग्रामीण भारत में सरकारी स्कूल शिक्षा का अहम जरिया हैं
भारत के कुल 15 लाख से कुछ अधिक स्कूलों में से 68 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं लेकिन वहां शिक्षकों की घोर कमी बनी हुई है. इन स्कूलों में 50 प्रतिशत से भी कम शिक्षक तैनात हैं. जबकि नई शिक्षा नीति में छात्र और शिक्षक का अनुपात 30रू 1 रखने को कहा गया है. स्कूली शिक्षा पर केंद्र सरकार की एक ताजा रिपोर्ट में ये बताया गया है. इन स्कूलों में से 30 प्रतिशत स्कूलों के पास कंप्यूटर चलाने वाला या उसकी जानकारी रखने वाला शिक्षक भी नहीं है जबकि डिजिटलीकरण और ऑनलाइन एजुकेशन जैसी बातें इधर शिक्षा ईकोसिस्टम में केंद्रीय जगह बनाती जा रही हैं. सरकारी स्कूलों की बदहाली देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक स्थिति और जीडीपी के लिहाज से भी चिंताजनक है.
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट
2019-20 के लिए यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (यूडीआईएसई़) की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का अनुपात काफी कम है. केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की ओर से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में 15 लाख से कुछ अधिक स्कूल हैं जिनमें से 10 लाख 32 हजार स्कूलों को केंद्र और राज्य सरकारें चलाती हैं. 84,362 स्कूल सरकार से सहायता प्राप्त है, तीन लाख 37 हजार गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल हैं और 53,277 स्कूलों को अन्य संगठन और संस्थान चलाते हैं.
देश के तमाम स्कूलों में करीब 97 लाख टीचर नियुक्त हैं. इनमें से 49 लाख से कुछ अधिक शिक्षक सरकारी स्कूलों में, आठ लाख सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में, 36 लाख निजी स्कूलों में और शेष अन्य स्कूलों में कार्यरत हैं. देश के कुल स्कूलों में से 22.38 प्रतिशत स्कूल निजी गैर सहायता प्राप्त हैं तो 68.48 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं. 37.18 प्रतिशत अध्यापक, निजी स्कूलों मे तैनात हैं. लेकिन सरकारी स्कूलों में आधी संख्या में शिक्षक नियुक्त हैं, 50 प्रतिशत पद खाली हैं. देश में सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल साढ़े पांच फीसदी हैं और वहां करीब साढ़े आठ फीसदी शिक्षक हैं, जबकि अन्य स्कूलों में 3.36 प्रतिशत शिक्षकों की तैनाती है.
छात्र शिक्षक अनुपात अकेली समस्या नहीं
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) 30रू1 रखने का जिक्र किया गया है यानी हर तीस शिक्षार्थियों के लिए एक शिक्षक. प्राइमरी कक्षाओं में 30 से ऊपर की पीटीआर वाले राज्य दिल्ली और झारखंड हैं. अपर प्राइमेरी लेवल में सभी राज्यों का पीटीआर 30 से नीचे हैं. लेकिन सेकंडरी और हायर सेकंडरी कक्षाओं में ये स्थिति उतनी अच्छी नहीं हैं. बिहार में प्राइमरी कक्षा में पीटीआर 55.4 का है तो सेकेंडरी में 51.8 का. हायर सेकेंडरी में ओडीशा का पीटीआर चिंताजनक रूप से 66.1 का है.
पीटीआर की दयनीय स्थिति के अलावा इस विभागीय रिपोर्ट से ये भी पता चलता है कि कुल स्कूलों में से 30 प्रतिशत स्कूलों में ही कम से कम एक टीचर को ही कम्प्यूटर चलाना और क्लास में उसका इस्तेमाल करना आता है. ध्यान रहे कि कोविड-19 के संकट में ऑनलाइन पढ़ाई पर जोर है और बच्चे करीब दो साल से स्कूल की चारदीवारी में नहीं दाखिल हो पाए हैं. वे या तो घर से पढ़ने को विवश हैं और सरकारी स्कूलों की हालत तो ये रिपोर्ट बता ही रही है. बेशक कई घरों में कम्प्यूटर, लैपटॉप, इंटरनेट कनेक्शन, स्मार्टफोन आदि का अभाव है लेकिन ये भी सच्चाई है कि बहुत से स्कूलों में सुविधाएं नहीं हैं और बहुत से स्कूली शिक्षक कम्प्यूटर नहीं जानते. ये भी सही है कि किसी एक चीज की कमी या किल्लत की आड़ में भी ऑनलाइन सीखने सिखाने की जद्दोजहद के कन्नी काटने की प्रवृत्तियां भी दिखती हैं.
सरकारी स्कूलों की जर्जरता का जिम्मेदार कौन
और इन तमाम मुद्दों के साथ ये भी उतना ही सही है कि निजी स्कूलों के पास बेहतर सुविधाएं, उपकरण और संसाधनों के अलावा अनुभवी और प्रशिक्षित टीचर हैं वहीं सरकारी स्कूलों में हालात 21वीं सदी के दो दशक बाद भी नहीं सुधर पाए हैं और वे बुनियादी संसाधनों से लेकर शिक्षकों की कमी तक- समस्याओं के बोझ तले दबे हुए हैं. समस्या छात्र शिक्षक अनुपात की तो है ही- पद खाली पड़े हुए हैं और टीचर या तो हैं नहीं और अगर हैं भी तो जहां उन्हें होना चाहिए वहां नहीं हैं. इसके अलावा पाठ्यक्रमों की विसंगति तो पूरे देश में एक विकराल समस्या के रूप में उभर कर आई है.
2016 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार देश में एक लाख स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक तैनात है. इसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के हाल सबसे बुरे बताए गए थे. नई रिपोर्ट एक तरह से पुराने हालात को ही बयान करती है. वैसे सार्वभौम प्राइमरी शिक्षा के सहस्राब्दी लक्ष्य पर यूनेस्को की 2015 की रिपोर्ट ने भारत के प्रदर्शन पर संतोष जताया था. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता और वयस्क शिक्षा के हालात अब भी दयनीय हैं. करीब 21 साल पहले 164 देशों ने सबके लिए शिक्षा के आह्वान के साथ इस लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लिया था. लेकिन एक तिहाई देश ही इस लक्ष्य को पूरा कर पाए हैं.
नोटः डीडब्ल्यूडी की रिपोर्ट पर आधारित