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मोदी-सलमान मुलाकात : सऊदी अरब की प्राथमिकता सिर्फ व्यापार और रणनीति

मुस्लिम नाउ ब्यूरो,,नई दिल्ली

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया इंटरव्यू में सऊदी अरब को भारत का रणनीतिक साझेदार बताते हुए जिन मुद्दों को प्रमुखता दी, उनसे यह साफ हो गया कि भारत-सऊदी अरब संबंधों की दिशा अब पूरी तरह आर्थिक, सामरिक और भू-राजनीतिक लक्ष्यों की ओर मुड़ चुकी है। अरब न्यूज को दिए गए इस इंटरव्यू में भारत के 20 करोड़ मुसलमानों, वक्फ संपत्तियों, या अल्पसंख्यक अधिकारों पर कोई चर्चा नहीं हुई। यह खामोशी बहुत कुछ कहती है।

व्यापार और रक्षा, पर मुसलमानों का जिक्र नहीं

मोदी ने इंटरव्यू में सऊदी अरब को भारत का “सबसे भरोसेमंद रणनीतिक सहयोगी” बताया और तेल, ऊर्जा, निवेश, तकनीक, रक्षा और स्पेस जैसे क्षेत्रों में साझेदारी की सराहना की। लेकिन यह चौंकाने वाला है कि जब बात ‘सबसे बड़े मुस्लिम देश’ से हो रही हो, तब भारत के मुसलमानों की स्थिति पर कोई सवाल या जवाब नहीं आता।

‘विजन 2030’ और मुस्लिम उम्मा की अनदेखी

मोदी ने सऊदी के ‘विजन 2030’ को खुले तौर पर समर्थन दिया, जो कि एक प्रगतिशील लेकिन धार्मिक रूप से संवेदनशील योजना है। सऊदी अरब में सिनेमाघर खोलने, महिलाओं को बिना पुरुष अभिभावक के चलने की इजाजत, और शराब की सीमित अनुमति जैसे कदम उठाए जा रहे हैं। लेकिन यह सारा कुछ मुस्लिम दुनिया को आगे बढ़ाने से ज्यादा पश्चिम को आकर्षित करने की रणनीति दिखता है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या यह वही देश है जो हर मंच पर उम्मत की बात करता था?

भारतीय मुसलमानों की उम्मीदें टूटीं

भारत में कई मुसलमानों को यह उम्मीद थी कि क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अपने दौरे में मुस्लिम समुदाय के मुद्दों, वक्फ संपत्तियों पर सरकारी दखल और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे सवाल उठाएंगे। लेकिन ना सिर्फ सऊदी अरब ने इस दिशा में कोई बयान दिया, बल्कि भारत सरकार ने भी यह संकेत नहीं दिया कि ऐसे मुद्दे किसी एजेंडे में थे।

फिलिस्तीन पर भी खामोशी

यह भी ध्यान देने योग्य है कि इंटरव्यू में या भारत-सऊदी बैठक में फिलिस्तीन जैसे महत्वपूर्ण इस्लामी मुद्दे पर भी कोई खास चर्चा नहीं हुई। जबकि भारत की इज़राइल के साथ बढ़ती नजदीकियों पर मुस्लिम दुनिया में चिंता है। सऊदी अरब की यह चुप्पी साफ करती है कि फिलिस्तीन अब उसकी प्राथमिकता में नहीं है।

निष्कर्ष: मुसलमानों को समझना होगा नया भू-राजनीतिक यथार्थ

इस पूरे घटनाक्रम से यह संदेश साफ है — सऊदी अरब अब ‘मुस्लिम नेतृत्व’ के नैतिक रोल की जगह आर्थिक और सामरिक ताकत बनने की दिशा में है। भारत के मुसलमानों को अब यह समझना होगा कि अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम नेतृत्व से उम्मीदें रखना एक भ्रम है। उन्हें अपने अधिकारों के लिए संविधान, लोकतंत्र और आंतरिक संघर्षों के रास्ते पर भरोसा करना होगा, ना कि उम्मा की काल्पनिक एकता पर।

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