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आरएसएस के करीब जाने की कोशिशों में मुस्लिम बुद्धिजीवि ? एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

हाल ही में नजीब जंग, एस. वाई. कुरैशी, लेफ्टिनेंट जनरल जमीर उद्दीन शाह, शाहिद सिद्दीकी और सईद शेरवानी जैसे कुछ प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रति अपने झुकाव को सार्वजनिक किया है. यह प्रवृत्ति कोई नई नहीं है, लेकिन हाल के दिनों में इसमें तेजी आई है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान पर इन बुद्धिजीवियों ने फौरन प्रतिक्रिया दी और उनके नाम एक चिट्ठी जारी कर उनके विचारों की सराहना की. इस चिट्ठी में उन्होंने पुणे में दिए गए भागवत के वक्तव्य को “आशा का संचार करने वाला” बताया.

क्या है चिट्ठी में?

इन बुद्धिजीवियों ने अपने संगठन ‘सिटीजन फॉर फ्रेटरनिटी’ के माध्यम से लिखा कि वे भागवत के बयान से “अत्यंत प्रसन्न” हैं. चिट्ठी में कहा गया:

“हम, भारतीय मुसलमान, हाल के दिनों में समाज के एक वर्ग द्वारा दिए गए बयानों और घटनाओं से अत्यंत चिंतित हैं, जो गंभीर साम्प्रदायिक तनाव का कारण बनी हैं. ऐसे में सरसंघचालक के द्वारा दिया गया बयान अत्यधिक महत्व रखता है और न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के सभी सद्भावना रखने वाले लोगों के लिए आशा का कारण है.”इस चिट्ठी को कुछ लोगों ने ‘संघ’ के प्रति मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एकतरफा और दिखावटी प्रशंसा के रूप में देखा.

पुराना नहीं है यह प्रयास

यह पहली बार नहीं है जब इन बुद्धिजीवियों ने आरएसएस के करीब जाने की कोशिश की है. इससे पहले भी संघ नेताओं के साथ इनकी बैठकें हो चुकी हैं. हालांकि, आरएसएस ने अब तक इन्हें कोई महत्व नहीं दिया.

आरएसएस अपनी विचारधारा को लेकर सख्त है और इससे समझौता करने को तैयार नहीं होता. जब इन बुद्धिजीवियों के आरएसएस से संपर्क बढ़ाने की खबरें आईं, तो मथुरा और काशी की मस्जिदों को हिंदुओं को सौंपने जैसे मुद्दों पर चर्चाएं शुरू हो गईं. मुस्लिम समुदाय के विरोध के बाद, ये बुद्धिजीवि पीछे हट गए.

मदनी, चिश्ती, और इलियासी जैसे मुस्लिम नेताओं की आरएसएस के साथ नजदीकियों के बाद, अब कुछ अन्य मुस्लिम बुद्धिजीवि इस फिराक में हैं कि संघ से संपर्क बनाकर सरकारी संस्थानों में पद और सत्ता की मलाई हासिल की जाए. सवाल उठता है कि क्या इन प्रयासों से मुस्लिम समुदाय को कोई वास्तविक लाभ होगा?

विवादित चुप्पी

इन बुद्धिजीवियों की आलोचना इस बात को लेकर भी होती है कि वे मुस्लिम समुदाय के प्रति हो रहे गंभीर अन्यायों पर अक्सर चुप रहते हैं. जब एक हिंदूवादी पार्टी मुसलमानों को “लुटेरा” और “मंगलसूत्र छीनने वाला” कहती है, तब भी ये बुद्धिजीवि कुछ नहीं बोलते. उनकी चुप्पी को ‘मौकापरस्ती’ के रूप में देखा जा रहा है.

आलोचना और सवाल

आरएसएस से नजदीकी बढ़ाने वाले इन मुस्लिम बुद्धिजीवियों की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे हैं. क्या यह कदम मुस्लिम समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए उठाया जा रहा है या सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिए?

वहीं, आरएसएस के लिए यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि वह किस हद तक इन प्रयासों को स्वीकार करेगा.संघ की विचारधारा में मुसलमानों के लिए सीमित स्थान है, और यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बुद्धिजीवियों की कोशिशें क्या रंग लाती हैं.

मुस्लिम बुद्धिजीवियों का आरएसएस के प्रति झुकाव एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है. एक ओर, यह समुदायों के बीच संवाद की संभावना प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी ओर, यह मुस्लिम समाज के भीतर अविश्वास और आलोचना को भी जन्म देता है. भविष्य में, यह देखना जरूरी होगा कि ये प्रयास वास्तविक सद्भाव और सहयोग की ओर ले जाते हैं या सिर्फ एक राजनीतिक रणनीति बनकर रह जाते हैं.