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मुस्लिम राष्ट्रीय मंच : किसकी चाल, किसका एजेंडा? वक्फ संपत्तियों पर नया संग्राम

मुस्लिम नाउ विशेष

देश में वक्फ संपत्तियों को लेकर बहस इन दिनों फिर गर्म है। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए वक्फ संशोधन विधेयक 2024 पर बुनियादी सवाल उठाए जा रहे हैं – क्या यह विधेयक सरकार की कानूनी ज़रूरत है या फिर संघ परिवार का एक पुराना एजेंडा, जिसे अब अमलीजामा पहनाया जा रहा है?

इसका सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इस विधेयक के पक्ष में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसा संगठन खुलकर खड़ा नजर आता है। गौर करने वाली बात यह है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार की देखरेख में संचालित होता है।

यह मंच न सिर्फ विधेयक का बचाव कर रहा है, बल्कि “वक्फ बिल 2024: रिस्पेक्ट टू इस्लाम एंड गिफ्ट फॉर मुस्लिम” नामक 148 पृष्ठों की पुस्तक छाप कर इसे “इस्लाम के सम्मान” और “मुसलमानों को उपहार” की संज्ञा दे रहा है। कीमत रखी गई है ₹1800।

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विधेयक के विरोध में कई मुस्लिम संगठन मैदान में हैं, लेकिन उनका आंदोलन बेहद असंगठित नजर आता है। इसके पीछे क्या कारण है कि तमाम इस्लामी संस्थाएं और मुस्लिम नेतृत्व एकजुट होकर इसका न तो पर्याप्त विरोध कर पा रहे हैं, न ही कोई ठोस वैकल्पिक दस्तावेज़ पेश कर सके हैं?

क्या वाकई उनका विरोध केवल औपचारिकता भर है – सिर्फ कोर्ट में याचिका दाखिल कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेना? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। तीन तलाक, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर जैसे मामलों में भी मुस्लिम संगठन सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाते रहे लेकिन निर्णायक क्षणों में उनकी रणनीति ढह जाती है और वे खामोश बैठ जाते हैं।

⚖️ कपिल सिब्बल ने कहा- विधेयक पास करने में हुई धोखाधड़ी

वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने एक पॉडकास्ट में दावा किया है कि वक्फ संशोधन विधेयक को संसद में पेश करते समय धोखाधड़ी की गई। उनके अनुसार, संसद में विधेयक प्रस्तुत करने के बाद उसमें चुपचाप एक प्रावधान जोड़ा गया जिसके तहत पुरातत्व विभाग के कब्जे वाली वक्फ संपत्तियों पर से मुस्लिम समुदाय का अधिकार समाप्त कर दिया गया। इनमें कई मस्जिदें और दरगाहें शामिल हैं, जहां अभी इबादत होती है।

यदि सिब्बल की बात सही है, तो यह बेहद गंभीर मामला है। परंतु, सवाल यह उठता है कि मुस्लिम संगठनों ने इस गंभीर मुद्दे को प्रमुखता से क्यों नहीं उठाया? क्या वे पहले ही हार मान चुके हैं?

🤝 संघ परिवार की सक्रियता और मुस्लिम नेतृत्व की निष्क्रियता

वक्फ विधेयक पर आरएसएस का स्पष्ट रुख दिखाई दे रहा है। उसके नेता न केवल मंचों पर इसके पक्ष में तर्क दे रहे हैं, बल्कि ईद मिलन जैसे आयोजनों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। वे इसे पसमांदा मुसलमानों के हक में सुधार बता रहे हैं।

दूसरी ओर, मुस्लिम समाज की नेतृत्वकारी जमातें इस पर संयमित और निष्क्रिय हैं। न कोई ठोस दस्तावेज़, न ही जमीनी स्तर पर कोई संगठित आंदोलन।

🔥 क्या वक्फ विधेयक बनेगा मुस्लिम समाज के लिए लिटमस टेस्ट?

यह विधेयक महज़ एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज के लिए एक लिटमस टेस्ट है। अगर आज भी संगठनों ने इसे हल्के में लिया तो आने वाले वर्षों में अधिक दर्दनाक मुद्दे उनका पीछा करेंगे। मणिपुर में कर्फ्यू, मुर्शिदाबाद में हत्याएं और साठ से अधिक लोगों पर केस – ये सब इशारा करते हैं कि नए क़ानूनों के जरिये मुस्लिम समुदाय को बार-बार निशाना बनाया जा सकता है।

🔍 क्या सौ साल की रणनीति के मुकाबले मुस्लिम नेतृत्व के पास कोई रोडमैप है?

RSS की रणनीति पर गंभीर विश्लेषण करने वालों का कहना है कि यह सब अचानक नहीं हो रहा – यह सौ साल पहले बनाए गए एजेंडे का हिस्सा है। और, आगे के सौ साल के लिए भी रोडमैप तैयार किया जा चुका है।

इसके विपरीत मुस्लिम नेतृत्व अभी भी छोटे-छोटे कामों में उलझा है – न तो दीर्घकालीन योजना है, न तकनीकी दक्षता और न ही वैचारिक स्पष्टता।

🧓👦 पुराने नेतृत्व की थकान और नई पीढ़ी का इंतज़ार

क्या वजह है कि मुस्लिम संगठनों के बुज़ुर्ग नेता आज भी नेतृत्व से चिपके हैं जबकि उनकी शारीरिक और वैचारिक ऊर्जा थक चुकी है? क्यों नहीं वे नेतृत्व नई सोच, नई ऊर्जा और नई तकनीक से लैस युवा पीढ़ी को सौंपते?

किसान आंदोलन से सीखें। जब लाखों किसान दिल्ली की ओर कूच कर सकते हैं, तो क्या मुस्लिम समाज संगठित होकर शांतिपूर्ण ढंग से वैसी रणनीति नहीं बना सकता? भारत एक लोकतांत्रिक देश है – यहां दांडी मार्च से लेकर चंद्रशेखर की पदयात्रा तक का इतिहास रहा है।

🧠 समझें एजेंडा, बनाएं जवाबी नैरेटिव

कुछ कट्टरवादी संगठनों के एजेंडे में पसमांदा-अशराफ, शिया-सुन्नी, सूफी-वहाबी जैसे विभाजन साफ नज़र आते हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल एजेंडे के अनुसार होता है। इन जालों में उलझे बिना, मुस्लिम समाज को अपनी एकता, रणनीति और मूलभावना को आधार बनाकर जवाब देना होगा।

🧭 यह समय है दिशा तय करने का, नहीं तो…

मुस्लिम नेतृत्व के पास दो ही रास्ते हैं – या तो अब भी संगठित हो जाएं और वक्फ विधेयक जैसे मुद्दों पर स्पष्ट, तार्किक और व्यापक रणनीति बनाएं, या फिर आने वाली पीढ़ियों को और भी कठिन लड़ाइयों के लिए तैयार करें।
अगर आज जवाब नहीं दिया गया, तो सौ साल की योजना धीरे-धीरे मुसलमानों की ज़मीन, मस्जिद और आवाज़ – तीनों को निगल जाएगी।