उमर खालिद को जमानत नहीं मिलने पर पूर्व न्यायाधीश रेखा शर्मा बोलीं, पता नहीं अदालतों को कौन नचा रहा है ?
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
एक खास वर्ग के मामले में अदालतों के फैसलों ने नया विवाद खड़ा कर दिया है. पहले मुस्लिम संगठन आरोप लगा रहे थे कि उनके समुदाय के मामले अदालतों का रवैया एक पक्षीय है. अब पूर्व न्यायाधीशों ने भी ऐसी बातें कहनी शुरू कर दी हैं.
ऐसे ही एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रेखा शर्मा ने कहा, ‘‘आज हम पाते हैं कि एक शक्तिशाली व्यक्ति को प्रायोगिक आधार पर जमानत मिल जाती है, उमर खालिद जैसे लोग अनसुना कर रहे हैं.’’
उन्होंने अपने बयान में आगे कहा, ‘‘एक पत्रकार अपना कर्तव्य निभाने के अपराध में जेल में समय बिताता है, एक बूढ़ा और बीमार आदमी जो अपना पानी भी पीने में असमर्थ है, उसे बुनियादी चिकित्सा सहायता से वंचित कर दिया जाता है और उसे सलाखों के पीछे पीड़ा सहने और मरने के लिए मजबूर किया जाता है.’’
“What we find today is that a powerful person gets bail on an experimental basis, men like Umar Khalid are withering unheard."
— Live Law (@LiveLawIndia) February 25, 2024
“A journalist spends time in jail for the crime of performing his duty, an old and ailing man unable to even sip his water is denied his basic medical… pic.twitter.com/I8iHeZmAvG
वो आगे कहती हैं, ‘‘सवाल यह नहीं है कि उन्हें कौन नचा रहा है, सवाल यह है कि कौन नाच रहा है और क्यों? ’’
कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) द्वारा आईएसआईएस, दिल्ली में आयोजित सेमिनार के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट की रिटायर्ड जस्टिस रेखा शर्मा ने अफसोस जताया कि सुप्रीम कोर्ट ने जनता की नजरों में अपनी विश्वसनीयता खो दी है.
उन्होंने आगे चिंता व्यक्त की कि शक्तिशाली लोगों को “प्रयोगात्मक आधार पर” जमानत मिल रही है, जबकि आम लोग “बिना रोए, अनसुने और बिना गाए मुरझा रहे .हैं” “कल्पना कीजिए कि जब इलेक्टोरल बॉन्ड मामले की तरह एक निर्णय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है; वे न केवल सुखद आश्चर्यचकित हुए, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की जय जयकार करने और धन्यवाद देने के लिए बहुत राहत महसूस कर रहे थे, जबकि उसने केवल अपने संवैधानिक कर्तव्य का पालन किया है … लेकिन तथ्य यह है कि इस तरह की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट ने न्याय वितरण प्रणाली के क्षेत्र में विश्वसनीयता के मामले में कितना खो दिया है. “
सुप्रीम कोर्ट और सभी हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों की एक सभा को संबोधित करते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता और समाज के सदस्य संगोष्ठी के लिए एकत्र हुए. सीनियर वकील सीयू सिंह संगोष्ठी “सुप्रीम कोर्ट न्यायिक प्रशासन और प्रबंधन- मुद्दे और चिंताएँ” पर थी और इसका संचालन विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना ने किया.
पैनल में शामिल अन्य लोगों के विचारों का समर्थन करते हुए न्यायमूर्ति शर्मा ने कहना शुरू किया कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से उच्चतम न्यायालय में रोस्टर प्रणाली के कामकाज की जानकारी नहीं थी. हालांकि, वर्षों से, उसने एक निष्पक्ष विचार रखने के लिए पर्याप्त सुना और देखा था.
उन्होंने बताया कि उन्होंने एक बार एक बुजुर्ग महिला वकील को अदालत के सामने पेश होते देखा था, जब बेंच ने केवल उनकी ओर देखा और कहा “बर्खास्त”. महिला वकील उस समय अदालत कक्ष से बाहर निकली थी, खुद को बड़बड़ाते हुए. बाद में, न्यायमूर्ति शर्मा ने उनके जूनियर के रूप में उनका साथ दिया.
आज उन्होंने इस घटना की तुलना वर्तमान समय से करते हुए कहा, “वर्तमान समय में जो पहले फुसफुसाए स्वर में कहा जा रहा था, उसके बारे में खुलकर बात की जा रही है. इसे बेंच फिक्सिंग कहा जाता है-“
जस्टिस कुरियन जोसेफ भीमा कोरेगांव मामले में 270 दिनों की कैद के बाद एक विचाराधीन कैदी के रूप में फादर स्टेन स्वामी की मौत की ओर इशारा करते हुए न्यायाधीश ने कहा, ‘एक पत्रकार अपना कर्तव्य निभाने के अपराध के लिए जेल में समय बिताता है, एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति जो अपना पानी पीने में भी असमर्थ है, उसे उसकी बुनियादी चिकित्सा सहायता से वंचित कर दिया जाता है और उसे पीड़ित होने और सलाखों के पीछे मरने के लिए मजबूर किया जाता है. आर्टिकल 21 को क्या हो गया है?
सीनियर एडवोकेट मिहिर देसाई उमर खालिद द्वारा सुप्रीम कोर्ट से अपनी आसन्न जमानत याचिका वापस लेने का उल्लेख करते हुए, उन्होंने आगे कहा कि अदालत के गलियारों से बाहर आना उक्त मामले में राहत माना गया था. आज हम पाते हैं कि एक शक्तिशाली व्यक्ति को प्रायोगिक आधार पर जमानत मिल जाती है, उमर खालिद जैसे लोग बिना रोए, अनसुने और अनसुने और इतने तंग आ चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट के गलियारों से बाहर आना अपने आप में एक राहत माना जाता है.
जस्टिस शर्मा ने बिना किसी शब्द के सवाल जारी रखे, ‘क्या हमारी न्यायपालिका उन लोगों को नीचा दिखा रही है जिन्हें नीचे धकेला जाना चाहिए और जो खींचे जाने के लायक है, या यह सिर्फ असफल प्रतिभाओं का सोने का पानी चढ़ा हुआ मकबरा बनता जा रहा है?’
“सवाल यह नहीं है कि उन्हें कौन नचा रहा है, सवाल यह है कि कौन नाच रहा है और क्यों?” हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ने इस अवसर पर निराशा व्यक्त की कि रोस्टर प्रणाली के कारण, महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों को केवल बार से पदोन्नत न्यायाधीशों को सौंपा जा रहा था.
उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों को कभी भी ‘तथाकथित सेवा न्यायाधीशों’ को नहीं सौंपा गया था. “तथाकथित सेवा न्यायाधीशों में से किसी को भी कभी भी महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को नहीं सौंपा गया था.
ऐसे सभी मामले बार से सीधे पदोन्नत न्यायाधीशों के पास गए जैसे कि बार के न्यायाधीश ज्ञान के प्रतिमान थे”,. उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि इलेक्टोरल बॉन्ड याचिका पर फैसला करने में कोर्ट को 5 साल से अधिक का समय लगा, जो ‘चुनाव प्रक्रिया के अस्तित्व और निष्पक्षता’ से संबंधित था.
न्यायमूर्ति शर्मा ने शीर्ष अदालत द्वारा मामले की तात्कालिकता को महसूस नहीं करने पर असंतोष व्यक्त किया, क्योंकि मामले पर फैसला होने तक एक आम चुनाव और कई राज्य विधानमंडल चुनाव हो चुके थे. उन्होंने कहा, ‘कोई पूछ सकता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड मामले में एक के बाद एक मुख्य न्यायाधीश द्वारा कोई तत्परता क्यों महसूस नहीं की गई . इसी तरह के एक अन्य मामले में नागरिकों के अधिकारों से जुड़ा एक और मामला है. इंटरैग्नम में पहले ही पुल के नीचे काफी पानी बह चुका है.
उन्होंने यह भी कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के फैसले को पारित करने और अपने संवैधानिक कर्तव्य को निभाने के बाद सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देने और उसकी सराहना करने की लोगों की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि शीर्ष अदालत ने न्याय प्रदान करने के संबंध में अपनी विश्वसनीयता कितनी खो दी है. विचारों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए, न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि कैसे सुप्रीम कोर्ट को अब महत्वपूर्ण घोषणाओं पर अंतिम प्राधिकरण के रूप में नहीं लिया जाता है.
उन्होंने कहा, ”पहले से ही चर्चा की जा रही है कि सरकार समीक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय जा सकती है या भारतीय स्टेट बैंक और निर्वाचन आयोग अपने निर्देशों के पालन के लिए और समय मांग सकते हैं… या सरकार फैसले के प्रभाव को रद्द करने के लिए एक अध्यादेश भी ला सकती है”.
न्यायाधीश ने याद दिलाया कि सरकार ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने के लिए एक कानून लाया और सीजेआई को चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए जिम्मेदार पैनल से हटा दिया. क्या अनुच्छेद 32 को एक मृत पत्र के रूप में माना जाना चाहिए?
विशेष रूप से, उन्होंने हाल ही में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के मामले में हुई सुनवाई के बारे में भी बात की. सोरेन ने कथित भूमि घोटाला मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा उनकी गिरफ्तारी को चुनौती दी थी.
जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस एम एम सुंदरेश और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की विशेष पीठ इस याचिका पर सुनवाई करेगी. हालांकि, खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत राहत के लिए सोरेन के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया. जस्टिस शर्मा ने स्पष्ट रूप से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 32 याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जबकि अतीत में, उसने अक्सर तत्काल और गंभीर मामलों में ऐसी याचिकाओं पर विचार किया है.
“हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 32 की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जिसमें राज्य (झारखंड) के एक सीएम की गिरफ्तारी शामिल थी, जिन्होंने आरोप लगाया था कि उन्हें बिना किसी सबूत के गिरफ्तार किया गया था और उनकी विधिवत निर्वाचित सरकार को स्थापित करने का एकमात्र उद्देश्य था.यह टिप्पणी इस बात के बावजूद की गई है कि अतीत में कई बार सुप्रीम कोर्ट ने मामले की तात्कालिकता और गंभीरता के आधार पर अनुच्छेद 32 याचिकाओं पर विचार किया है.
राम मंदिर और काशी के जुमा मस्जिद के मामले में अदालतों के आए निर्णय के बाद अब ऐसी आवाजंे बेहद मुखर हो गई हैं. जमीयत उलेमा ए हिंद के अरशद मदनी ने तो इसपर बेहद खुले अंदाज में आरोप लगाए हैं, जबकि जमाअत इस्लामी हिंद भी मुखर है.हालांकि एक कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने ऐसे मामले में चिंता प्रकट की है.पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रेखा शर्मा के इस वक्तव्य को लाइव लाॅ जैसी वेबसाइट ने सोशल मीडिया पर साझा किया है, जिसपर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं.
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