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बकरीद पर कुर्बानी का विरोध: मोरक्को को बहाना बनाकर भारतीय मुसलमानों को भ्रमित करने की साज़िश

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

हर साल बकरीद आते ही कुछ कथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ वर्ग और मुस्लिम विरोधी मीडिया संस्थान कुर्बानी को लेकर नया नैरेटिव गढ़ने लगते हैं। जहाँ एक ओर यही वर्ग अन्य धर्मों के पर्वों में होने वाली पशु बलि—को लेकर पूरी तरह चुप्पी साधे रहते हैं, वहीं बकरीद के आते ही अचानक उनके ‘पशु प्रेम’ और ‘पर्यावरणीय चिंता’ जाग उठती है।

इस साल उन्होंने एक नया हथकंडा अपनाया है — मोरक्को के उदाहरण का। यह कहा जा रहा है कि “जब एक इस्लामिक देश मोरक्को ने बकरीद पर कुर्बानी पर रोक लगा दी, तो भारतीय मुसलमानों को भी उससे सीख लेनी चाहिए।” लेकिन इस प्रचार के पीछे की सच्चाई को जानबूझकर छिपाया जा रहा है।

असल वजह क्या है? मीडिया क्यों छिपा रहा है सच्चाई

मोरक्को की सरकार ने इस साल केवल एक असाधारण स्थिति को देखते हुए कुर्बानी पर रोक लगाई है — और वह कारण धार्मिक नहीं, बल्कि प्राकृतिक आपदा और आर्थिक संकट है।

मोरक्को में क्यों रोकी गई कुर्बानी?

  • लगातार 7 वर्षों से भीषण सूखा पड़ रहा है।
  • फसलों की पैदावार लगभग नष्ट हो चुकी है।
  • चारे और पानी की भारी किल्लत है।
  • देश में पशुओं की संख्या में 38% की गिरावट दर्ज की गई है।
  • जलाशयों की क्षमता भी 23% तक घट चुकी है।
  • चारे की कीमतों में 50% तक की वृद्धि हुई है, जिससे पशुपालक बुरी तरह प्रभावित हैं।
  • मांस की कीमतों में भी उछाल आया है, जिससे मध्यम और निम्न वर्ग के लिए बलि देना कठिन हो गया है।

इन हालातों में राजा मोहम्मद षष्ठम, जो मोरक्को के धार्मिक प्रमुख भी हैं, ने स्पष्ट कहा कि इस्लाम में बलि को अच्छा कार्य माना गया है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है। उन्होंने यह भी घोषणा की कि वह पूरे राष्ट्र की ओर से प्रतीकात्मक बलि देंगे, ताकि धार्मिक भावनाएं भी बनी रहें और संकट की घड़ी में जानवरों का संरक्षण भी हो सके।

सरकार ने इसके तहत देशभर में अस्थायी मंडियों को बंद कर दिया, जिससे बलि के लिए जानवरों की खरीद-बिक्री रोकी जा सके।

भारत की स्थिति मोरक्को से अलग है, तुलना करना भ्रामक और दुर्भावनापूर्ण

भारत में ऐसी कोई आपदा नहीं है। न ही सूखा है, न ही मवेशियों की व्यापक कमी। फिर भी कुछ मीडिया संस्थान मोरक्को के विशेष और अस्थायी निर्णय को ऐसे प्रचारित कर रहे हैं जैसे कि वह कोई धार्मिक सुधार हो — और भारतीय मुसलमानों पर उसे थोपने की कोशिश कर रहे हैं।

यह एक चालाकी भरा प्रयास है — धार्मिक हस्तक्षेप के नाम पर मुस्लिम समुदाय को शर्मिंदा करने का। इस तरह की रिपोर्टिंग से यह ज़ाहिर होता है कि असल मकसद पशु कल्याण नहीं, बल्कि मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता को निशाना बनाना है।


क्या कहता है इस्लाम?

इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, कुर्बानी ईद-उल-अज़हा की एक अहम सुन्नत है, जो पैग़ंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की परंपरा से जुड़ी है। यह केवल एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि त्याग, निष्ठा और सामाजिक सहयोग का प्रतीक है। कुर्बानी का मांस जरूरतमंदों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों में बांटने की परंपरा एक समाज कल्याण की भावना को भी जन्म देती है।


निष्कर्ष

मोरक्को के एक साल के लिए लिए गए आपातकालीन फैसले को आधार बनाकर भारत के करोड़ों मुसलमानों की धार्मिक परंपरा पर सवाल उठाना न केवल बौद्धिक ईमानदारी का अपमान है, बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता पर भी कुठाराघात है। ऐसी कोशिशें भारत की सामाजिक एकता और विविधता को नुकसान पहुँचाती हैं।

मुसलमानों को चाहिए कि वे इन झूठे नैरेटिव्स से सतर्क रहें, और कुरआन-सुन्नत के मार्गदर्शन में, समझदारी से अपने धर्म का पालन करें।

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