पाकिस्तानः शरीफों की सियासत
इम्तियाज आलम
नवाज शरीफ पीछे हटते हैं या शाहबाज शरीफ आगे बढ़ते हैं ? यह सवाल पीएमएल-एन और पीडीएम या विपक्षी दलों के मोर्चा पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट की राजनीति की दिशा तय करेगा. हां, यह पारिवारिक राजनीति का आंतरिक संघर्ष है, लेकिन इसके निहितार्थ काफी निर्णायक होंगे. शाहबाज शरीफ पहले दिन से अपने बड़े भाई को समझने और आज्ञा मानने की राजनीति के कायल रहे है. बुरे वक्त में भी उनके साथ रहे हैं. बुरे से बुरे समय में भी उन्होंने सुलह की खिड़कियाँ खुली रखीं, लेकिन अपने भाई की राजनीति की कीमत पर नहीं.
दोनों भाइयों की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उनके पिता मियां शरीफ ने निभाई. उनकी मृत्यु के बाद मियां नवाज शरीफ परिवार के संरक्षक के रूप में उभरे. अतीत में, व्यापार और राजनीति आम थे. अब सभी के अलग-अलग व्यवसाय और प्राथमिकताएं हैं. अगली पीढ़ी में पिछली पीढ़ी की तरह एकजुटता नहीं है. अब बहुत कुछ बदल गया है. मियां नवाज शरीफ को जीवन भर सार्वजनिक प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित रखा गया है. शाहबाज शरीफ के लिए प्रधानमंत्री बनने का शायद यह आखिरी मौका है.
नवाज शरीफ ने शाहबाज शरीफ को उनकी अक्षमता के लिए पार्टी अध्यक्ष के रूप में नामित किया और वह पीएम के लिए उनकी पहली पसंद भी थे. दोनों भाइयों की गैरमौजूदगी में मरियम नवाज अपने पिता के विरोध वाले बयान से काफी लोकप्रिय हो गईं और पीएमएल-एन का सार्वजनिक चेहरा बन गईं. अब मरियम की आवाज पर लोग इकट्ठा होते हैं. उन्हें उनके पिता के संरक्षण में पीएमएल-एन की जननेता के रूप में पहचाना जा रहा है. वे जितना सत्ता के खिलाफ लड़ीं, उतने ही लोकप्रिय होती गईं.
शाहबाज शरीफ की रिहाई के बाद हालात बदल गए हैं. वे अब जोर-शोर से अपनी लाइन लेने लगे हैं. वह पार्टी अध्यक्ष और नेशनल असेंबली में विपक्ष के नेता भी हैं.
उनका मुख्य लक्ष्य 2023 का आम चुनाव और प्रधानमंत्री का पोर्टफोलियो है. वे किसी भी कीमत पर इस लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं . ऐसा करने का तरीका अधिकारियों के मुख्यालय से होकर गुजरता है, जहां लंबे समय से उनके दिलों में इनकी लिए नरम जगज बनी हुई है. यह शाहबाज शरीफ ही थे जिनकी मूक कूटनीति ने शरीफ परिवार की मदद की. वह सोचते हैं कि सत्ताधारी दल के साथ संघर्ष ने पीएमएल-एन को समाप्त कर दिया है. वे इस गतिरोध से बाहर निकलना चाहते हैं,जबकि नवाज शरीफ और उनके बेटों पर कोई बोझ नहीं है. उनकी बेटी पर कोई मामला नहीं है. उसके हाथ बांधे नहीं होने के कारण ही वह फ्रंट फुट पर खेल रही हैं.
नवाज शरीफ और शाहबाज शरीफ के बीच मतभेद सामने आ गए हैं. अब दो परस्पर विरोधी प्रथाएं काम नहीं कर रही हैं. वैसे भी पीडीएम ठप हो गया है. मरियम नवाज ने अपनी अपरिपक्वता के कारण उसे तोड़ दिया है.
नवाज शरीफ की प्रतिरोध की राजनीति को वह जन समर्थन नहीं मिला जिसकी उसे जरूरत थी. संप्रभुता का शासन नारेबाजी से बेहतर कब था? न ही उनकी पार्टी में प्रतिरोध की परंपरा रही है. मुस्लिम लीग के वर्ग खमीर या जीन में कोई क्रांतिकारी आकांक्षा नहीं है.
नवाज शरीफ की राजनीति जनरल जिया-उल-हक की नर्सरी में पीएनए के कूड़ेदान में उभरी. वह उनकी लीग के हितैषी थे,जो 1973 के संविधान के निर्माता भुट्टो की न्यायिक हत्या के लिए भी जिम्मेदार थे. तब जनरल असलम बेग ने नवाज शरीफ के नेतृत्व में बेनजीर भुट्टो के खिलाफ इस्लामिक डेमोक्रेटिक एलायंस का गठन किया, क्योंकि आठवें संशोधन के सामने कोई विधानसभा और कोई प्रधानमंत्री नहीं टिक सके. इसलिए 90 के दशक में कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. हर प्रधानमंत्री की लगभग हर सेना प्रमुख से भिड़ंत होती रही. नवाज शरीफ का राजनीतिक परिवर्तन एक नागरिक मुख्य कार्यकारी के रूप में उनके द्वारा सामना किए गए कड़वे अनुभवों के कारण था, लेकिन लोकतंत्र के चार्टर पर हस्ताक्षर करने के बावजूद,
दोनों दल अधिकारियों के हाथों में खिलौना बने रहे. एक दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल किए गए. अपनी तीसरी सरकार में भी, नवाज शरीफ ने अधिकारियों के साथ तब तक समझौता करना जारी रखा जब तक कि वह सत्ता से बाहर नहीं हो गए. लेकिन नवाज शरीफ के गुस्से का एक गुण यह भी है कि वह बुरी तरह फंसकर भी मुशर्रफ के साथ जाल से निकलते रहे. अब वह इमरान खान के चंगुल से निकलने में कामयाब रहे. पंजाब और उसके व्यापारियों के प्रतिनिधि पार्टी के चरित्र में समझौता करना और कभी-कभी अपनी आँखें
शामिल रहा है. भुट्टो विरोध और भुट्टो विरोधी राजनीति में, नवाज शरीफ एक वैकल्पिक रोल मॉडल के रूप में उभरे, जो पंजाबी पूंजीपति वर्ग की दोहरी भूमिका और तेजी से आर्थिक और राजनीतिक छलांग को दर्शाता है. दिलचस्प बात यह है कि पीपीपी अभी भी भुट्टो के नारे का इस्तेमाल करती है, लेकिन शरीफों की राजनीति को अपनाकर उसने अपना असली सार्वजनिक चरित्र भी खो दिया है.
बहिष्कार, धरना और इस्तीफे की राजनीति के बाद इमरान सरकार को चलता करने का संकल्प टूट गया. पीडीएम टूट गया और प्रतिरोध खो दिया. यदि मरियम सत्ता को संविधान के रूप में ढालने के बारे में वास्तव में गंभीर होती, तो वह एक प्रमुख जन क्रांति के लिए तैयार होती या एक क्रमिक सुधार रणनीति तैयार करती. खाली नारों से संतुष्ट नहीं होती. अब जो कुछ बचा है वह आंतरिक परिवर्तन का दुष्चक्र है.
चुने जाने के बजाय चुने जाने का, लेकिन जो विपक्ष साथ नहीं रह सका, वह वैकल्पिक प्रशासन के साथ आने की स्थिति में नहीं है. ऐसा लगता है कि अब बदलाव की राह 2023 के चुनाव में होगी. शाहबाज शरीफ और बिलावल भुट्टो की निगाहें उसी पर टिकी हैं. पीडीएम के पास अब जल्दी चुनाव कराने का अधिकार नहीं है, इसलिए उसे भी 2023 तक इंतजार करना होगा. ऐसे में नवाज शरीफ और मरियम नवाज की राजनीति नहीं चलने वाली है.
पाकिस्तान के जंग अखबार से साभार