जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पीएचडी आरक्षण विवाद: मुस्लिम छात्रों के हक पर संकट?
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
देश के प्रतिष्ठित अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों में से एक, जामिया मिल्लिया इस्लामिया (JMI), इन दिनों भारी विवादों में घिरा हुआ है। विश्वविद्यालय प्रशासन पर आरोप है कि उन्होंने पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया में मुस्लिम छात्रों के लिए निर्धारित 50% आरक्षण नीति का उल्लंघन किया है। इस फैसले ने छात्रों, शिक्षाविदों और मुस्लिम संगठनों के बीच गहरी नाराजगी पैदा कर दी है। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी समेत कई बड़े नेता इस मुद्दे पर मोदी सरकार और जामिया प्रशासन की तीखी आलोचना कर चुके हैं।
क्या है पूरा मामला?
जामिया मिल्लिया इस्लामिया को भारत के अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में एक विशेष स्थान प्राप्त है। विश्वविद्यालय ने अब तक 30% सीटें मुस्लिम छात्रों, 10% मुस्लिम महिलाओं, और 10% मुस्लिम ओबीसी व एसटी के लिए आरक्षित रखी थीं। लेकिन अब आरोप लग रहे हैं कि 2024-25 शैक्षणिक सत्र के लिए पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया में इस आरक्षण नीति की अनदेखी की गई है।
आरक्षण उल्लंघन के ठोस उदाहरण
मकतूब मीडिया की एक विस्तृत रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कई विभागों में आरक्षित सीटों को कम किया गया या पूरी तरह हटा दिया गया। उदाहरण के तौर पर:
- एजेके मास कम्युनिकेशन एंड रिसर्च सेंटर में चार सीटों में से सिर्फ एक मुस्लिम छात्र को दी गई।
- संस्कृति, मीडिया और गवर्नेंस सेंटर में सात सीटों में से सिर्फ एक मुस्लिम छात्र को आवंटित हुई।
- इतिहास विभाग में 12 में से केवल 2 सीटें मुस्लिम छात्रों को मिलीं।
- मनोविज्ञान विभाग में 10 में से सिर्फ 2 सीटें मुस्लिम छात्रों को दी गईं।
नए कुलपति पर सवाल
नवनियुक्त कुलपति मजहर आसिफ पर आरोप है कि उन्होंने अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही जामिया में संघ-समर्थित एजेंडा लागू करने की कोशिश की है। छात्रों का आरोप है कि वीसी आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा से प्रभावित हैं और उन्होंने विश्वविद्यालय में हिंदू छात्रों और शिक्षकों को अधिक प्राथमिकता देना शुरू कर दिया है।
“उचित ध्यान देंगे” से “ध्यान दे सकते हैं” तक का विवाद
अक्टूबर 2024 में, वीसी मजहर आसिफ ने एक नया अध्यादेश जारी किया, जिसमें पीएचडी आरक्षण नीति को लेकर “उचित ध्यान देंगे” (shall ensure) के स्थान पर “ध्यान दे सकते हैं” (may ensure) शब्दावली का प्रयोग किया गया। यह बदलाव पहली नजर में मामूली लग सकता है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह आरक्षण नीति को निष्प्रभावी बनाने की एक सोची-समझी साजिश है।
क्या यह अल्पसंख्यक दर्जे पर हमला है?
कई शिक्षाविदों और सामाजिक संगठनों का मानना है कि जामिया के इस कदम का एक लंबे समय तक प्रभाव पड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जामिया को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिए जाने के बावजूद, सरकार और प्रशासन इसे कमजोर करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं।
असदुद्दीन ओवैसी की प्रतिक्रिया
AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इस मुद्दे पर मोदी सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा:
“जामिया ने अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में अपने पीएचडी स्लॉट का 50% मुसलमानों के लिए आरक्षित किया था, लेकिन सरकार ने इस नियम का उल्लंघन किया है। इसका उद्देश्य मुस्लिम उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना था। लेकिन अब मोदी सरकार ने मुस्लिम छात्रों को शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित रखने के लिए मौलाना आज़ाद फेलोशिप भी बंद कर दी। यह मुस्लिमों के साथ अन्याय है।”
Jamia reserved 50% of its PhD slots for Muslims as a minority institution, but the government has breached this rule. It aimed to boost Muslim higher education, which dropped by nearly 1.8 lakh students in 2020-21. Muslims form 14% of India's population yet only 4.5% of PhD…
— Asaduddin Owaisi (@asadowaisi) February 26, 2025
छात्रों का विरोध और न्यायालय की शरण
इस विवाद के बाद कई छात्रों ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी है। साहिल रज़ा खान, जो एक पूर्व कानून छात्र हैं, उन्होंने पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया में धांधली को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाया है।
कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई 27 फरवरी 2025 को तय की है।
प्रशासन की पारदर्शिता पर सवाल
जामिया प्रशासन ने इस साल प्रवेश सूची में श्रेणीवार आवंटन को सार्वजनिक नहीं किया है, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा कि सीटें किन आधारों पर आवंटित हुई हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम जानबूझकर पारदर्शिता खत्म करने और आरक्षण नियमों के उल्लंघन को छिपाने के लिए उठाया गया है।

क्या होगा आगे?
इस विवाद के बाद अब सबकी नजरें दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर टिकी हैं। यदि कोर्ट ने जामिया प्रशासन के खिलाफ निर्णय दिया, तो विश्वविद्यालय को अपनी पीएचडी प्रवेश नीति में बदलाव करना पड़ सकता है।
काबिल ए गौर
जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पीएचडी आरक्षण विवाद केवल एक संस्थान की नीति का मामला नहीं है, बल्कि यह भारत में मुस्लिम उच्च शिक्षा के भविष्य से जुड़ा एक गंभीर मुद्दा है। यह मामला दिखाता है कि कैसे शब्दों के मामूली बदलाव से भी पूरे समुदाय की शिक्षा पर असर डाला जा सकता है। अब यह देखना होगा कि छात्र, समाज और न्यायालय इस पर क्या निर्णय लेते हैं।