कश्मीर के गुर्जरों की पोशाक और संस्कृति के संरक्षण में लगी शाहिदा खानम
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सुहैल खान , बांदीपोरा ( कश्मीर )
कश्मीरी आदिवासियों की खास परंपरागत पोशाक, खान-पान और संस्कृति है, पर इसके संरक्षण के लिए कोई ठोस सरकारी नीति नहीं होने के कारण यह विलुप्त होते जा रहे हैं. ऐसे मंे इसे बचान का बीड़ा उठाया है कश्मीर के बांदीपोरा की शाहिदा खानम ने.उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा जिले की शाहिदा खानम ने पुरानी परंपराओं को संरक्षित करने और पुनर्जीवित करने को लगातार संघर्ष कर रही है. उन्होंने गुज्जर समुदाय की समृद्ध विरासत को प्रदर्शित करने के लिए एक संग्रहालय स्थापित किया है.
गुज्जर एक जातीय समूह है जो भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर के साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों में पाया जाता है. वे मुख्य रूप से अपनी देहाती और खानाबदोश जीवन शैली के लिए जाने जाते हैं. कश्मीर में सबसे बड़े समुदायों में गिने जाते हैं.
सदियों से, गुर्जरों ने स्थानीय पहचान पर अपनी विशिष्टता अंकित करते हुए इस भूमि को अपना घर कहा है. सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण जम्मू और कश्मीर , गुज्जर, बकरवाल, पहाड़ी और डोगरा जैसे विभिन्न जातीय समुदायों की मेजबानी करता है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अनूठी पोशाक और परंपराएं हैं.
परंपरागत रूप से, गुज्जर महिलाएं सुई के काम में निपुण मानी जाती हैं. सिलाई, आभूषण बनाने और कढ़ाई की कला में वो उत्कृष्ट हैं. अपनी पारंपरिक पोशाक को संरक्षित करने का उनका जुनून पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफलतापूर्वक चला आ रहा है. हालांकि, हाल के दिनों में, एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभरी है. युवा गुज्जर पीढ़ी इन समृद्ध परंपराओं को अपनाने में कम रुचि दिखाती है. नतीजतन, गोल टोपी बनाने की लुप्त होती कला ने कई जनजाति सदस्यों की आजीविका को गंभीर झटका दिया है.
महिलाओं का कौशल उन्नयन
बांदीपोरा जिले के अरगाम गांव की 28 वर्षीय आदिवासी महिला शाहिदा खानम ने बताया कि स्नातक की डिग्री पूरी करने के बाद, वह विभिन्न कारणों से अपनी शिक्षा जारी रखने में असमर्थ थी. इसके बाद मैंने अपने आदिवासी समुदाय के लिए काम करने और उनकी आवाज बनने का निर्णय लिया. इसका लक्ष्य साधने उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव और सुरक्षा लाना है. कई आदिवासी समुदायों में, महिलाओं को अक्सर काम करने की अनुमति नहीं होती है, इसलिए मेरे लिए इन रूढ़ियों को चुनौती देना और लैंगिक समानता के बारे में जागरूकता बढ़ाना महत्वपूर्ण है.
दिसंबर 2022 में, मैंने एक केंद्र स्थापित किया जहां मैंने आदिवासी समुदाय की लड़कियों को निःशुल्क प्रशिक्षण देना शुरू किया.उनके परिवार के समर्थन से, बांदीपोरा के विभिन्न हिस्सों से आदिवासी समुदाय की लड़कियां आगे आने लगीं. पहले बैच में शाहिदा ने 50 लड़कियों और महिलाओं को मुफ्त में ट्रेनिंग दी.
शाहिदा ने कहा कि उनकी अब तक की यात्रा का उद्देश्य अपने समुदाय की मदद करना और गुज्जर समुदाय की समृद्ध विरासत के बारे में जागरूकता बढ़ाना है. “चूंकि आदिवासी समुदाय की पारंपरिक पोशाक लुप्त हो रही हैं, इसलिए इन सांस्कृतिक प्रथाओं को पुनर्जीवित करना और संरक्षित करना महत्वपूर्ण है. सिलाई, आभूषण बनाने और कढ़ाई में प्रशिक्षण प्रदान करने के अलावा, मैंने एक संग्रहालय में पुरानी आदिवासी सांस्कृतिक कलाकृतियों को इकट्ठा करने और प्रदर्शित करने की दिशा में भी काम किया है.
शाहिदा ने कहा कि उनके केंद्र में सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा करने के बाद, युवा लड़कियां अब अपने घरों से काम करते हुए कमाई करने में कुशल हैं. शाहिदा ने बताया कि केंद्र में अब करीब 15 नई लड़कियां सीखने आ रही हैं. उन्होंने कहा कि केंद्र सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक खुला रहता है, जिसमें प्रत्येक कौशल में कम से कम एक घंटे का प्रशिक्षण दिया जाता है.
शाहिद के अनुसार,“हमारे दूर-दराज के आदिवासी क्षेत्रों में आय के स्थिर स्रोत का अभाव है. गरीबी व्यापक है. डिजिटल युग में रहने के बावजूद, हमारे समुदाय की लड़कियों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. इस चुनौतीपूर्ण समय के दौरान उन्हें वास्तव में मदद की जरूरत है.
उनके केंद्र की प्रशिक्षु दिलशादा बानो ने कहा, “इस केंद्र में, हम विविध कौशल हासिल करते हैं जो न केवल हमारे जैसी वंचित युवा महिलाओं के लिए रोजगार की संभावनाएं पैदा करते हैं. हमारी सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने में भी मदद करते हैं. हम वास्तव में यहां सीखने के अनुभव को संजोते है.
संग्रहालय
शाहिदा ने कहा, “बचपन से मैंने सामान्य कश्मीरी पोशाक की तुलना में हमारे आदिवासी पहनावे में अंतर देखा है. पारंपरिक सांस्कृतिक वस्तुओं को खोजने में कठिनाई को पहचानते हुए, मैंने भावी पीढ़ियों के लिए हमारी पुरानी परंपराओं को संरक्षित करने का लक्ष्य रखा. दुर्भाग्य से, इसकी सुंदरता और महत्व के बावजूद, हमारी पुरानी संस्कृति को बचाने के लिए आदिवासी समुदाय के भीतर कोई प्रयास नहीं हुए हैं.
संग्रहालय में, मैंने पूरी पोशाक, आभूषण, पारंपरिक खाद्य पदार्थ, कालीन, कुर्सियां, आभूषण, सिक्के, पोशाकें, मिट्टी के बर्तन और विभिन्न अन्य कलाकृतियां प्रदर्शित की हैं. हालांकि, मेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है. मैं स्थानीय लोगों की मदद से हमारे आदिवासी समुदाय से और चीजें इकट्ठा करना जारी रखता हूं.
शाहिदा ने कहा,“मैं अपने परिवार का आभारी और ऋणी हूं, जो मेरी पूरी यात्रा में समर्थन और आशा का निरंतर स्रोत रहे हैं. उन्होंने कहा, उनका समर्थन आवश्यक रहा है, खासकर आदिवासी महिलाओं द्वारा अपने सपनों को साकार करने और अपने समुदायों के बाहर काम करने में आने वाली चुनौतियों को देखते हुए.
जब उनसे पूछा गया कि अपना काम करते समय उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने कहा, “पुरुष प्रधान समाज में, महिलाओं के लिए यह हमेशा कठिन होता है. मैंने भी उन कठिनाइयों का सामना किया. हालांकि, आलोचना और नकारात्मक टिप्पणियों ने सामाजिक बाधाओं की परवाह किए बिना अपने समुदाय के लिए और भी अधिक मेहनत करने के मेरे दृढ़ संकल्प को प्रेरित किया.
अतीत का संरक्षण
कश्मीर की विरासत को संरक्षित करने की दिशा में उठाए गए प्रत्येक कदम के साथ, घाटियों में आशा की लहर फैल जाती है. लोगों को यह एहसास होने लगा है कि अपने अतीत का संरक्षण प्रगति में बाधा नहीं डालता, बल्कि उसे बढ़ाता है. यह संस्कृति का संरक्षण है जो समाज में गहराई और चरित्र जोड़ता है, यह याद दिलाता है कि यह कहां से आई है और यह कहां जा सकती है इसके लिए दिशा-निर्देश देता है.
हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग के निदेशक महमूद अहमद शाह ने उन युवाओं की सराहना की जो सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से उन्हें समर्थन देने का प्रयास कर रही है.
उनके अनुसार, हस्तशिल्प विभाग ने चार से पांच योजनाएं शुरू की हैं जिनमें सहकारी समितियों को वित्तीय सहायता, केंद्रों का प्रावधान, कारीगरों के लिए शिक्षा और निर्यात के लिए दस प्रतिशत प्रोत्साहन शामिल हैं. ये योजनाएं पहले से ही कार्यान्वित की जा रही है. आगे की वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए बैंकों के साथ सहयोग आवश्यक है.