26/11 की अधूरी कहानी अब होगी पूरी, तहव्वुर राणा से खुलेंगे कई राज ?
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो | नई दिल्ली
अमेरिका से 26/11 मुंबई हमले के अहम आरोपी तहव्वुर हुसैन राणा का प्रत्यर्पण भारत के लिए एक प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि कूटनीतिक, रणनीतिक और वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है। जिस तरह से एक दशक से अधिक वक्त के बाद भारत ने न सिर्फ एक वांछित आतंकी को अपने हाथों में लिया, बल्कि अमेरिका जैसे देश से उसे कानूनी प्रक्रिया के तहत हासिल किया — यह स्पष्ट करता है कि भारत अब आतंकवाद के मामलों में ‘पीड़ित देश’ भर नहीं, बल्कि प्रभावी प्रतिकार करने वाला राष्ट्र बन चुका है।
कैसे बना राणा का प्रत्यर्पण भारत के लिए कूटनीतिक कामयाबी का सबूत?
तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण महज़ एक अदालती या कानूनी प्रक्रिया नहीं थी। यह एक लंबी, जटिल और बहुस्तरीय कूटनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा थी, जिसमें भारत को अमेरिका की विभिन्न एजेंसियों, न्यायालयों और यहां तक कि व्हाइट हाउस स्तर पर भी संवाद बनाए रखना पड़ा।
डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान यह मामला कुछ समय तक अटका रहा था। तब राणा की प्रत्यर्पण प्रक्रिया को ठोस आधार नहीं मिल पा रहा था। लेकिन भारत ने न केवल ट्रंप प्रशासन बल्कि बाइडन प्रशासन के साथ भी लगातार वार्ताएं कर, सबूत पेश कर और वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ अपने पक्ष को मज़बूती से रखकर यह सफलता हासिल की।
क्या यह केवल प्रतीकात्मक जीत है या ठोस लाभ की ओर संकेत?
यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जब 26/11 हमले को 17 साल हो चुके हैं, तो राणा के भारत आने से क्या बदलेगा? क्या भारत को इससे कोई रणनीतिक या सुरक्षा संबंधित जानकारी मिल पाएगी?
यहां यह समझना जरूरी है कि यह मामला केवल तहव्वुर राणा तक सीमित नहीं है। यह भारत की उस इच्छाशक्ति का प्रमाण है जिसमें वह यह दर्शा रहा है कि –
“भारत अपने नागरिकों पर हुए किसी भी आतंकी हमले को भूला नहीं है, और चाहे सालों लग जाएं, वह दोषियों को न्याय के कटघरे में लाकर रहेगा।”
पाकिस्तान की दोबारा बेनकाबी
राणा का प्रत्यर्पण इस बात को दोबारा रेखांकित करता है कि पाकिस्तान की जमीन से संचालित आतंकवादी संगठनों की भूमिका 26/11 जैसे नरसंहार में कितनी गहरी थी। कसाब, डेविड हेडली, और अब राणा – ये तीनों किसी ना किसी स्तर पर पाकिस्तान की भूमिका को उजागर करते हैं।
जहां पाकिस्तान हर बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी संलिप्तता को नकारता आया है, तहव्वुर राणा का भारत लाया जाना उस झूठ पर एक और गहरी चोट है। यह घटना उन देशों के लिए भी चेतावनी है जो पाकिस्तान को अब भी आतंक के खिलाफ साझेदार मानते हैं।
भारत की विदेश नीति में बदलाव का संकेत
राणा का प्रत्यर्पण भारत की आक्रामक और परिणामोन्मुख विदेश नीति का हिस्सा है। अब भारत:
- प्रतीक्षा नहीं करता, पहल करता है
- शिकायत नहीं करता, कार्रवाई करता है
- सहिष्णुता नहीं दिखाता, जवाब देता है
इस पूरे घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत की वैश्विक साख अब इतनी मजबूत हो चुकी है कि वह किसी भी देश से अपने मामलों पर न्याय की मांग कर सकता है – और उसे प्राप्त भी कर सकता है।
क्या राणा से मिलेंगे ठोस सुराग?
यह सच है कि 17 वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका है। मुंबई नेटवर्क का चेहरा और रूप, दोनों अब पहले जैसे नहीं रहे। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि तहव्वुर राणा जैसे लोग वर्षों तक संगठनों से जुड़े रहते हैं, और उनके पास:
- पुराने नेटवर्क की गहराई
- पाकिस्तानी एजेंसियों की भूमिका
- डबल एजेंट्स की पहचान
- आने वाली आतंकी योजनाओं की सूचनाएं
जैसी बहुमूल्य जानकारियां हो सकती हैं, जो भारत की सुरक्षा एजेंसियों के लिए रणनीतिक रूप से बेहद अहम हो सकती हैं।
क्या यह सियासी पीठ थपथपाने का मौका भर है?
यह भी एक पहलू है जिसे नकारा नहीं जा सकता कि इस तरह की कूटनीतिक सफलता अक्सर सरकारों के लिए ‘पीठ थपथपाने’ का अवसर बन जाती है। लेकिन इसके बावजूद, इसे केवल प्रचार का साधन कह देना उस संघर्ष और मेहनत का अपमान होगा जो पिछले कई वर्षों से चल रही थी।
राणा को अमेरिका से लाना – एक कानूनी, राजनीतिक और कूटनीतिक त्रिकोण का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें भारत ने अमेरिका जैसे नियम-केंद्रित देश को भी न्यायोचित आधार पर सहमत कराया।
निष्कर्ष: राणा आया है, लेकिन रास्ता लंबा है
तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण एक यात्रा की पूर्णता नहीं, बल्कि न्याय की ओर बढ़ते कदम की नई शुरुआत है। यह भारत की वैश्विक छवि, उसके संप्रभु अधिकारों और उसकी निर्णायक नीति का परिचायक है। अब यह भारत की न्यायपालिका, खुफिया एजेंसियों और आतंकवाद-निरोधक व्यवस्था पर है कि वह इस कूटनीतिक सफलता को एक ठोस परिणाम में कैसे बदले।
भारत ने यह दिखा दिया है कि भले ही देर हो, लेकिन अब न्याय की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता। तहव्वुर राणा आया है, और उसके साथ आया है – न्याय की नई उम्मीद का सूरज।