UP elections: मुसलमानों का वोट चाहने वालों को CAA आंदोलन में पुलिस फायरिंग के शिकार लोगों की सुध नहीं
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, लखनऊ/ मेरठ / कानपुर / फिरोजाबाद
‘‘दो साल पहले पुलिस ने मेरे पति की हत्या कर दी थी. मैं अभी भी न्याय की प्रतीक्षा कर रहा हूं. मेरी तीन बेटियां हैं, शुरू में लोगों ने हमारी मदद की. अब कोई आस पास नहीं है. ” यह कहना है आसिफ की पत्नी इमराना का. उसके पति की 21 दिसंबर 2019 को कथित पुलिस फायरिंग में तब मार दिया गया, जब वह नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का विरोध कर रहे थे. उसकी तीन बेटियां सहित चार बच्चे हैं. इमराना के परिवार में इकलौते कमाने वाले उसके पति थे. अब गुजरा मुश्किल हो रहा है. यह बताते हुए वह हिचकी के साथ रोने लगती है. उसने कहा ‘‘शुरुआत में, लोगों ने हमारी मदद की. अब हमारे आसपास कोई नहीं आता.‘‘ .
इस संदर्भ में मुस्लिम मिरर्र डाॅट काॅम की की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पेश राज्य सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, 20 और 21 दिसंबर 2019 को पूरे उत्तर प्रदेश में विरोध प्रदर्शन के दौरान 22 मुस्लिम युवाओं की मौत हुई थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसा में 83 लोग घायल भी हुए थे. राज्य के विभिन्न जिलों से जो 22 मौतें दर्ज की गई हैं वह जिले हैं वाराणसी, रामपुर, मुजफ्फरनगर, संभल, बिजनौर, कानपुर, मेरठ और फिरोजाबाद. सबसे ज्यादा मेरठ और फिरोजाबाद में सीएए आंदोलन के दौरान मौतें दर्ज की गई थीं.रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसा के सिलसिले में कुल 833 लोगों को गिरफ्तार किया गया था.
इमराना अकेली नहीं है, जो पति की मौत के बाद से मायूस है. अन्य मृतकों के परिवारों का भी यही हाल है. सबके पास दिल दहला देने वाली कहानियां हैं. मगर कोई इससे सुनने को राजी नहीं. न तो सरकार उनकी सुनने को तैयार है और न ही इनके समुदाय के लोग. हालांकि सीएए विरोधियों के प्रति केंद्र और राज्य की वर्तमान सरकार के रवैये का पता तो सबको है. पर तथाकथित सुक्यूलर पार्टियों ने पीड़ितों को कुछ ज्यादा ही मायूस किया है.
आरोप है कि ये पार्टियों न तो पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने को आगे आईं और नहीं उनकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने में दिलचस्पी दिखा रही हैं.
इस चुनावी माहौल में अभी तमाम पार्टियों को मुस्लिम वोटों की जरूरत है. औवेसी तो ऐसा जाहिर कर रहे मानों मुसलमलों के सबसे बड़े हमदर्द वही हैं. यहां तक कि समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी भी खुद को मुसलमानों का हितैशी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. भाजपा को भी मुस्लिम वोट चाहिए, जिसे जुटाने के लिए तरह-तरह के नुस्खे आजमाए जा रहे हंै. मगर सीएए आंदोलन के दौरान सरकरी पड़ताना का शिकार लोगों का मसला दूर करने में किसी को दिलचस्पी नहीं. न ही कोई इस तरह का सांत्वा दे रही है. पार्टियांे के घोषणा पत्र में भी उन्हें इंसाफ दिलाने का कोई जिक्र नहीं है.
बता हैं कि सीएए आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के परिवारों को अब तक कोई मुआवजा नहीं मिला है. नाहिद शरफुद्दीन ने कहा, कुछ लोगों ने एनजीओ के माध्यम से कानपुर के कुछ परिवारों को वित्तीय मदद दी थी. अब हर तरफ खामोशी है.
फैजाबाद के कार्यकर्ता मुहम्मद फुरकान सहिजी का कहना, “शुरुआत में जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने गिरफ्तार लोगों की जमानत दिलाने में मदद की. बाद में वह भी पीछे हट गई. फिलहाल कोई भी मुस्लिम संगठन जमीन पर पीड़ित परिवारों के लिए काम नहीं कर रहा है. ”
बताते हैं कि राज्य सरकार द्वारा बल प्रयोग करने के बाद मुस्लिम समुदायों के एक वर्ग में भय व्याप्त है. वकील पुलिस थानों में जाकर एफआईआर की कॉपी लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. निस्संदेह, आर्थिक और कानूनी रूप से उनकी मदद करने वाले कुछ लोगों को नुकसान होने का खतरा है. राज्य की मशीनरी से नहीं तो गुंडों से.
मेरठ में मारे गए तीन प्रदर्शनकारियों के मामलों की जांच कर रहे वकील रियासत अली ने कहा, ‘‘मुस्लिम संगठन ऐसे मामलों में तुरंत निंदा का बयान जारी कर देते हैं और पीड़ितों को समर्थन का वादा करते हैं, लेकिन बाद में आवश्यक कदम नहीं उठाते.‘‘
कानपुर के बाबूपुरवा इलाके में पुलिस फायरिंग में मारे गए आफताब की मां ने कहा, ‘मेरे बेटे की हत्या को दो साल बीत चुके हैं. मुझे किसी मुस्लिम संस्था से कोई समर्थन नहीं मिला.
हैरानी की बात है कि जमात-ए-इस्लामी हिंद, जमीयत उलेमा-ए-हिंद या कई और मुस्लिम धार्मिक संगठन उनकी मदद के लिए नहीं आया.“इन संगठनों के नेता उर्दू अखबारों में अपनी प्रेस विज्ञप्ति के प्रकाशन से संतुष्ट हैं. क्या आप एक ही चेहरे को बार-बार उर्दू अखबारों में प्रकाशित होते नहीं देखते ? ”
दिल्ली के एक उर्दू दैनिक के लिए काम करने वाले एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘‘हालांकि, सभी बेपरवाह नहीं हैं. कुछ डर के कारण आगे नहीं आए.‘‘
ओवैसी, उनके समर्थक साल भर मौनी बाबा बने रहे
जब सीएए से संबंधित विधेयक संसद में पारित किया जा रहा था, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने विरोध में यह कहते हुए इसे फाड़ दिया कि यह मुसलमानों को गुलाम बना देगा. उनकी नागरिकता छीन लेगा. हालांकि, इन दो वर्षों में ओवैसी की ‘‘नाटकीयता‘‘ ध्वस्त हो गई. मेरठ के मोहम्मद सलाहुद्दीन, जिनके भाई 22 पीड़ितों में से एक हैं. कहते हैं, यूपी विधानसभा चुनाव के लिए, वह और ओवैसी पार्टी के सदस्य मुस्लिम इलाकों में समर्थन के लिए आक्रामक रूप से प्रचार कर रहे हैं, लेकिन इन दो वर्षों में वे इस मामले में मौनी बाबाद बने रहे. क्या ओवैसी या उनके उम्मीदवार हमसे मिलने आए या हमारा समर्थन किया? वह पूछते हैं. हमलावरों ने उनके घर में बैठे उनके परिजनों को मार डाला. अब ये लोग मौतों पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की कर रहे हैं.”